एक आदमी आता है,
घर बनाता है।
गला सूखने तक,
प्यास को दबाता है,
अन्तड़ियाँ उखड़ने तक
भूख बिसराता है।
प्राण निकलने तक
प्राण पुचकारता है।
ख़त्म होती साँसों तक,
साँसों को बहलाता है।
पाताल तक की
मिट्टी खोदता है,
समन्दर भर का पानी,
उलीचकर मिलाता है।
जमा हुई पूँजी को
गारे में घोल जाता है।
मिट्टी को मिट्टी से उठाने में,
अपनी हैसियत के,
सालों-साल समय लगाता है।
चमचमाती आँखों,
हलराती साँसों से,
लहराते सपनों से,
खिलखिलाते अपनों से,
उसे निहारता है,
दुनिया के साथ खूब
खुशियाँ मनाता है।
*****
एक, दूसरा आदमी आता है,
उस घर को गिरा देता है।
मिट्टी को मिट्टी से उठाने में,
लगे वर्षों निर्माण-काल को,
आकाश-चूमते
उन सपनों को,
कुछ पल में ही
मिट्टी में मिला देता है|
कितना सरल होता है,
किसी के श्रम को,
क्षण भर में भरभरा देना
ताश के पत्तों की तरह।
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