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10.5.17

बाल गतिविधियाँ-शैतानी या स्वभाव?

चित्र-साभार गूगल 
“बच्चे बहुत शैतानी करते हैं|” अक्सर यह बात कई समाज में घर में, विद्यालय में वयः जनों से, माता-पिता, अभिभावक शिक्षकों एवं अन्य जनों से सुनने मिलती ही रहती है| ‘शैतानी’ वास्तव में इसका तात्पर्य क्या है? आइए तनिक इस पर अपनी समझ बनाते हैं| शैतान-In English-Satan. Means-Devil. “The angel, who in Jewish belief is commanded by God, to tempt humans to sin, to accuse the sinners, and to carry out God's punishment.” अरबी-शैतान। शाब्दिक अर्थ-हैवान, बुराई करने वाला| “इब्राहिमी धर्मों में सबसे बुरी हस्ती का नाम हैजो दुनिया की सारी बुराई का प्रतीक है। इन धर्मों में ईश्वर को सारी अच्छाई प्रदान की जाती है, और बुराई शैतान को। मनुष्य को बहका कर ईश्वर के सन्मार्ग का विरोध करनेवाली शक्ति जो कुछ सामी धर्मों यथा इस्लामी, ईसाई धर्म आदि में एक दुष्ट देवता और पतित देवदूतों के अधिनायक के रूप में मानी गई है।“ हिन्दी में इन्हें दुष्ट कहा जाता है, जिसका तात्पर्य है-बुरे आचरण वाला, कुटिल मनोवृत्ति वाला, दुर्जन, दूषित, सदोष, निकम्मा, नीच। यह भी माना जाता है कि दुष्ट व्यक्ति मनुष्यों को बहलाकर कुमार्ग में लगाता और ईश्वर तथा धर्म से मुकरता है।
हमारे समाज में यह भी कहा जाता है, बच्चे भगवान का रूप होते हैं|” भगवान् जो कि मात्र दूसरों का भला करता है, जो अनुचित का विरोधी एवं न्याय का प्रतीक माना जाता है| और दूसरी तरफ, जब यह वाक्य कानों में गूँजता है कि बच्चे शैतानी करते हैं, तब कथित शुभचिंतकों का एक बहुत बड़ा विरोधाभास दिखाई पड़ता है| लोगों में यह विरोधाभास क्यों है? या तो लोग शैतान और भगवान् दोनों को एक ही जैसा मानते हैं, या वे भगवान् और शैतान का मूल तात्पर्य नहीं जानते| किन्तु लोग इतने भोले भी नहीं हैं कि दुष्ट-देव, फ़रिश्ता-शैतान, Evil-Devil में अन्तर न कर कर पाते हों, अन्यथा भारत में प्रतिवर्ष दशहरा पर अरबों रुपए किसी का पुतला जलाने में खर्च नहीं होता, और लोग उसका आनन्द लेने के लिए अपना घर-बार छोड़ कर दूर-दूर तक रावण दहन देखने नहीं जाते| फिर बच्चों की तुलना शैतान से क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोग शैतानी कार्य और बच्चे द्वारा किये गये कार्य को समान रूप से देखते हैं? वैसे ऐसा भी हैं नहीं| लोग बहुत अच्छे से समझते हैं कि शैतानी क्या है|
शैतानी क्या है, विद्वानों द्वारा परिभाषित शैतानी को तो ऊपर ही शब्दार्थ के साथ बताया जा चुका है| क्या बच्चे उपरोक्त परिभाषा वाले की तरह कार्य करते हैं? यह अवलोकन का विषय हो सकता है| एक दृष्टि डालते हैं, बच्चों की गतिविधियों पर- एक पल में घर में, दूसरे पल खेल के मैदान में, और कुछ देर बाद छत पर पतंग उड़ाते हुए। एक काम में ज्यादा देर तक उनका मन नहीं लगता, और वे उठकर दूसरा काम करने लगते हैं| कितनी भी धूप हो, उन्हें खेलने से मतलब है| भाई-बहन, मित्र-मित्र ऐसी लड़ाई करते हैं, जैसे एक-दूसरे के जन्म-जन्मान्तरों के शत्रु हों| कुछ सामान उठाते हैं, वह हाथ से छूटकर गिर जाता है, और टूट जाता है| माँ-पिता, भाई-बहन खिलाना चाह रहे हैं, बच्चे ठुनकते हैं, खाते नहीं हैं| कुछ सामान देखा, मन को अच्छा लगा, उसे पाने के लिए मचल उठे, रोने लगे, घर सर पर उठा लिया| रास्ते में कोई चल रहा है गुलेल, पत्थर उठाया, दे मारा| किताब-पुस्तिका रखी हुई हैं, पढ़ा-फाड़ डाला| हाथ में डंडा है, तो किसी के सर पर, देह के किसी भाग पर लाल निशान बना दिया| कक्षा में बैठे हुए, कभी खिड़की से बहार झाँकते हैं, तो कभी सहपाठियों पर, तो कभी शिक्षक पर ही प्रहार कर डालते हैं| विद्यालय से घर की ओर, या घर से विद्यालय के मार्ग में, कभी कुछ, तो कभी कुछ अप्रत्याशित-सा कर जाते हैं|
बच्चे ऐसा क्यों करते हैं? क्या वे अपने परिजनों, मित्रों का अनभल चाहते हैं? मूल रूप से देखा जाय, तो बच्चों के ये क्रियाकलाप स्वभावतः होते हैं, न कि द्वेष-भाव में भरकर| ऐसा नहीं कि बच्चों में ईर्ष्या नहीं होती, होती है किन्तु वह क्षणिक ही होती है| उनमें किसी का सर्वनाश करने का संकल्प तो नहीं होता है, इस बात को कथित बड़े लोगों को समझना होगा| एक बच्चा है, जो दूध माँग रहा है, उसे वह तुरन्त चाहिए| नहीं मिलने पर अपनी क्षमता, या परिस्थिति के आधार पर तीन कार्य करेगा, एक-जो भी सामान उसके आसपास रहेगा, उसको हानि पहुँचाएगा, दो-रोएगा, तीन-तोड़-फोड़ से काम न बनता देख भी रोएगा, अर्थात् हानि और रुदन दोनोंबच्चे द्वारा की गई दोनों ही गतिविधियाँ अपनी बात मनवाने के हथकण्डे हैं| उसके पास कोई और मार्ग ही नहीं होता है| इसी प्रकार की माँग यदि कोई बड़ा/वयस्क व्यक्ति करता/करती, और समय पर पूरा नहीं होता, तो वह मन-ही-मन कुढ़ जाता/जाती है, अब चूँकि वयस्क लोगों के पास थोड़ी समझ बढ़ गई रही होती है, अतः वे अपने भीतर उठने वाले हर गुबार को कई बार रोक लेते हैं, और अन्यमनस्क होकर या वहाँ से चले जाते हैं, या अप्रत्यक्ष कुछ ऐसा कर देते हैं, जिससे उनकी इच्छा पूर्ती न करने वाला/वाली थोड़े ही समय के लिए सही, किन्तु परेशान तो हो ही जाय|
अब यह देखने वाली बात है कि अधिक घातक क्या है, बच्चे द्वारा त्वरित प्रतिक्रिया, या वयस्क द्वारा अप्रत्यक्ष घात? इन दोनों में से शैतानी की श्रेणी में किसे रखा जाय? सोचे-समझे षड्यंत्र को, या अनभिज्ञ गतिविधियों को? मुन्शी प्रेमचंद ने बच्चों के भीतर उठने वाले असंख्य प्रश्नों पर आधारित एक कहानी ‘नादान दोस्त’ लिखी है| उस कहानी में माता-पिता की व्यस्तता के कारण अपने प्रश्नों का उत्तर न पाने वाले, केशव और श्यामा ने जो भी किया, वह मात्र अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए, किन्तु परिणामतः चिड़ियों के अण्डों का गिर कर नष्ट हो जाना, उन्हें भी अप्रत्याशित लगता है|
बच्चों में प्रश्न एक सैलाब की तरह उमड़ते रहते हैं, वे उनका उत्तर खोजना चाहते हैं| जब बड़े उनकी सहायता नहीं करते, तो वे स्वयं प्रयोग करते हैं| क्या बच्चों द्वारा शंका-समाधान हेतु किये गये अनुसंधान को शैतानी कहा जाय? या उनके स्व-विनोद को शैतानी कहा जाया? क्या अपनी माँगों को पूरा करने के लिए किये गये हठ को शैतानी कहा जाय? यदि इन गतिविधियों को शैतानी कहेंगे, तो फिर उपरोक्त विद्वानों द्वारा परिभाषित शैतान, Devil और दुष्ट की परिभाषा में परिवर्तन की आवश्यकता होगी| यह भी समझना होगा कि ऐसा होने पर बच्चे आत्मग्लानि महसूस करने लगते हैं। आत्मग्लानि महसूस करने वाले बच्चों का आत्मविश्वास कम हो जाता है। वे अपने-आप पर शंका करने लगते हैं। वो समझने लगते हैं कि उनके साथ कुछ अनुचित हो रहा है। इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि बच्चे कहीं अपराध-बोध से ग्रस्त न हो जाएँ।

अन्त में बस यही कि बाल-मन, बाल-चेष्टा, बाल-क्रीड़ा को समाज में घातक प्राणियों की तुलना से बचाना होगा, ताकि बच्चे स्वस्थ्य रूप से सोच सकें, और उचित-अनुचित में अन्तर कर सकें, और इसका दायित्व प्रत्येक अभिभावक, शिक्षक एवं सामजिक वयस्क एवं वृद्धों का है| बच्चों को शैतान न कह उसे खिलाड़ी, अभिनेता, शोधकर्ता इत्यादि एवं उनकी गतिविधियों को क्रीड़ा, मनोरंजन, शोध इत्यादि नाम दिया जा सकता है| तब हम कहीं जाकर बच्चों के बचपन से न्याय कर पाएँगे|

3.5.17

गाल ही बजाइए


आइए हुज़ूर ज़रा ताल बजाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

आप हैं शिकारी बड़े,
अपने पैरों पर हैं खड़े,
बड़ी-बड़ी लड़ाई लड़े,
बाहों पे रत्न ख़ूब जड़े
पर जिस पर रखी थी बन्दूक, वह कन्धा भी दिखाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

लिखने में बड़े शूर हैं,
दिखने में भी हूर हैं,
कहते तो ज़रूर हैं,
पर करने से ज़रा दूर हैं,
पर दूसरों पर दिए उपदेश को, ख़ुद के अमल में भी ज़रा लाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

गाँधी हों अड़ोस में,
सुभाष हों पड़ोस में,
राम हों बड़े रोष में,
युवा भी हों जोश में,
पर बगल की कुण्डी को छोड़, कभी द्वार अपना भी खटखटाइए,
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए


आज काट डालिए,
आज छाँट डालिए,
आज हाथ डालिए,
आज बाँट डालिए,
पर रक्त औरों का बहा कर, ख़ुद को यूं तो न छुपाइए   
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

दूसरों का खून है,
आपमें जनून है,
फटा ख़त का मजमून है,
दिखे आपमें सकून है,
पर दूसरों के लहू को छोड़, अपनी भी देह पर कभी आँच तो लगाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए

घात आज कराइए,
मात आज कराइए,
साथ न आज जाइए
पर प्रतिघात आज कराइए
दूसरों को बरगला कर, ख़ुद को वार न से बचाइए
ताल न-बजे-न-सही गाल ही बजाइए