शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

25.5.12

स्वदर्शन

मैं व्यथित हूँ.
मुझे आभासित होती हैं व्यथाएँ भांति-भांति की.
हर प्रक्रिया श्वसन की
होती है समाहित किसी न किसी पीड़ा के साथ.
आपादमस्तक बना ही है मेरा मात्र हेतु कष्ट के
जिसमें वेदनाएं क्षण प्रति क्षण करती हैं प्रभावित
सूक्ष्मतम इकाई को जिसे भुगत रहा हूँ
मात्र मैं ही संसार में अकेले,
बन गई है मेरी यह समझ नित्य की.
राग-द्वेष का प्रदेश
यह मन रहता है सदैव व्याकुल
और भटकता रहता है
लोक-परलोक
पंडित, पादरी, मुल्लाओं के पास 
कि
मिटा सकें वे इसका संताप
किन्तु
निरीह, असफल लौट आता है अपने इन्हीं
शत्रुओं के मध्य.

चंचल मन
अनगिनत इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं की
पैजनी बांधे
आसक्ति और तिरस्कार के थाप पर
करता रहता है नर्तन आठों याम,
मीठी-तीखी संवेदनाओं के रूप में कराता है सुरापान
और मैं कष्ट भोगी
लडखडाता, डगमगाता
अश्रु और प्रसन्नता के पथ पर चल रहा हूँ 
चलता ही जा रहा हूँ
निरंतर.

मैं व्यथित हूँ
क्योंकि मैंने किया नहीं स्वदर्शन
जो होता है विशिष्ट प्रकार से इस काया कल्प का.
 अनंत पीडाओं से मुक्ति के इस मार्ग में
नहीं पड़ती आवश्यकता भौतिक नेत्रों की
न ही
किसी शब्द्नाम या चित्र की उपास्य का.
बस अन्तः नयनों से दृश्य हो जाता है
पोर-पोर साढ़े तीन कर माप का.
उत्पाद और व्यय रुपी गतियाँ
हो जाती हैं आभासित सूक्षतम संवेदनाओं की.
पता चल जाता है विधि का विधान.
मन और अन्तः हो जाते हैं दोनों स्थिरप्रज्ञ
और मिल जाता है छुटकारा
सहस्त्र जाति कर्मों से.