कहानी-परमात्मा का कुत्ता लेखक-मोहन राकेश नाट्य रूपांतरण-जितेन्द्र
मित्तल
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१२२६/७ मोहन राकेश द्वारा लिखित कहानी ‘परमात्मा
का कुत्ता’ का नाट्य रूपांतरण है| अगर पैनी नज़र से देखा जाय तो कुत्ता और आम आदमी
में गहरी समानता है| इसी समानता को ध्यान में रखते हुए मोहन राकेश ने यह कहानी
लिखी| साधु सिंह जो कि अधेड़ उम्र का हो चुका है और पिछले छः वर्षों से अपने ज़मीन
के लिए सरकारी दफ़्तर के चक्कर काट रहा है किन्तु न तो आज तक उसे उसकी ज़मीन मिल पाई
न ही उसका मुआवज़ा| इतने दिनों में अगर उसे कुछ मिला था तो वह था एक नाम| एक ऐसा
नाम जिससे उसे बेहद घृणा हो गई है| वह नाम है १२२६/७ जो कि उसकी फ़ाइल का नाम है और
अब वह इसी नाम से जाना जाता है|
१२२६/७ एक बेबाक, बेतुका, बदज़बान और कथित समाज
का असम्बद्ध व्यक्ति है| १२२६/७ फैज़ अहमद फैज़ का आवारा कुत्ता है जो एक टुकड़ा रोटी
की आशा में कभी इस बाबू के पास तो कभी उस बाबू के पास चक्कर कटता रहता है किन्तु
वह टुकड़ा उसे कभी नज़र नहीं आता| अंत में जब उसे एहसास होता है कि वह ‘परमात्मा का
कुत्ता है और वह भौंक सकता है तो फिर भौंकता है और इतना भौंकता है कि मालिकों की
चूलें हिल जाती हैं|
१२२६/७ एक आम आदमी के जीवन का संघर्ष और आक्रोश का प्रतिबिम्ब है| १२२६/७
छः वर्षों से निरंतर चल रहे संघर्ष, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में समाज
की विसंगतियों, सरकारी कार्यालयों की अफ़सरवादी मनोवृत्ति, लालफीताशाही और झूठी बनावट
के साथ-साथ अमानवीय कृत्यों और भ्रष्टाचार के प्रति वितृष्णा एवं झुंझलाहट का
प्रारूप है जो अफ़सरों के सामने तीखी लय में तेज़ धार के साथ प्रकट होती है| चपरासी
और बाबुओं के साथ का बर्ताव एवं उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया रंगमंचीय शक्ति को बढ़ाती
है|
१२२६/७ व्यक्ति की जिजीविषा और उसके लिए दिन भर
की भटकन, शरीर के रक्तचाप की भाँति इतनी तीव्र है कि उसे आसानी से महसूस किया जा
सकता है| परिवेश-बोध और व्यवस्था के प्रति असंतोष, आदमी के आदमी न रह जाने कि
व्यथा, मात्र संख्या वह भी लम्बी, निरर्थक रह जाने कि पीड़ा, आम आदमी के आक्रामकता के
संकेत को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है| व्यक्ति अपनी पहचान अपने परिजनों द्वारा
दिए हुए नाम से करना चाहता है किन्तु यहाँ साधु सिंह अपने नाम का अस्तित्व बचाने
कि जद्दोजहद में लगा हुआ है| १२२६/७ अस्तित्व की लड़ाई के लिए अपना वही रूप
प्रस्तुत करता है जो रूप ‘निराला’ का ‘कुकुरमुत्ता’ ‘गुलाब’ के सामने|
१२२६/७ वर्तमान समाज की एक लम्बी लड़ाई है जिसे न
तो शब्द बाँध सकते हैं, न अंक, न ही जीवन| यह लड़ाई हर उस समय छिड़ सकती है जब
मनुष्य को किसी और के कारण ख़ुद के शून्य होने का बोध होने लगेगा|
आदमी को अपना हक पाने के लिए कुत्तों की तरहा भोंक्ना चाहिए। इतना भोको की अधिकारियो के कान फट जाय। अगर चूहो कि तरहा टूकुर टूकुर देखोगे तो कुचले जाओगे। Kapil Kumar IEHE BHOPAL
जवाब देंहटाएंTunne....
हटाएं*कपिल कुमार* एक्सलेन्स महाविद्यालय भोपाल
जवाब देंहटाएंअगर आप चाहते हैं कि सरकारी दफ्तर में आपके काम को जल्दी किया जाय तो आपको कुत्ता बनना होगा। कुत्ता जागरूकता का प्रतीक है। हमे अपने हक़ के लिए आबाज उठाना चाहिए, क्योकि हम सब परमात्मा के कुत्ते है। बहुत हुआ अब चुप मत रहो, भोको, बहुत भोको इतना भोको की इन भ्रष्टाचारी अधिकारियो बाबूओ के कान फट जाए और ये तुम्हारे काम करने के लिए वेवश हो जाए, अगर यूँही चूहो कि तरह टूकर टूकुर देखते रहोगे तो कुचले जाओगे।
आदमी को अपना हक पाने के लिए कुत्तों की तरहा भोंक्ना चाहिए।हमे अपने हक़ के लिए आबाज उठाना चाहिए, क्योकि हम सब परमात्मा के कुत्ते है।
जवाब देंहटाएंAkhil Nagar Iehe Bhopal
Wah wah kya baat hai
जवाब देंहटाएंIehe bhopal
मैं भी परमात्मा का कुत्ता हूँ Iehe Bhopal
जवाब देंहटाएंJi
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