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8.11.16

रेगिस्तानी-बगीचा


चित्र-साभार, गूगल 
रेत के इन लाल कणों के बीच, तुम्हारी सुर्ख आँखें, देखकर लगता है, जैसे मैं किसी नीले समुद्र में हूँ| बार-बार उठ रहे ये बवण्डर और तुम्हारी पलकें, मुझे इठलाती लहरों में डुबोने का एहसास कराती हैं| ये टीले, और तुम्हारी पुतली, किसी सुनसान टापू में ले जाकर छोड़ देते हैं| इस रेगिस्तान ने, और तुम्हरी आँखों ने, ज़रूर कोई सामुद्रिक विद्या पढ़ी है, तभी तो, तुम अपने वशी-यन्त्र से वशीभूत कर लेती हो मुझे|

रेत के इन लाल कणों के बीच, तुम्हारी आँखों को देखकर लगता है, जैसे मैं किसी हरे-भरे बगीचे में हूँ| बार-बार उठ रहे ये बवण्डर, और तुम्हारी पलकें मुझे, बलखाते झूले का एहसास कराती हैं| ये टीले, और तुम्हारी पुतली, किसी एकांत हरियाली में ले जाकर छोड़ देते हैं| इस रेगिस्तान ने, और तुम्हारी आँखों ने ज़रूर कोई इंद्रजाल पढ़ा है, तभी तो, तुम अपने मोहक-मन्त्र से मोहित कर लेते हो मुझे|

उसकी आँखों को निहारते वह ऐसे बोल रहा था जैसे किसी समुद्र में डूब रहा हो, लेकिन उससे बाहर नहीं निकलना चाहता| ठीक उसी के अंदाज़ में वह भी उसकी आँखों में ऐसे डूब गई जैसे किसी घने जंगल में हो|

वह बोले ही जा रही थी-“तुम बहुत ही मीठा गाते हो| ऐसा जैसे इस मरुस्थल की हवाएँ| जैसे भँवरा, किसी कली के कान में शहद घोल रहा हो| सच में, मेरा सावन, मेरे मेघ, मेरी हरियाली, मेरे त्यौहार, सिर्फ़ तुम हो| तुम्हारे आलिंगन में आते ही मुझे लगता है, जैसे मैं किसी दरख्त की शाखाओं के सहारे झूल रही हूँ, ऐसी शाखा, जिसे चक्रवात भी नहीं उखाड़ सकता| तुम्हारी गोद में सर रखते ही, मैं भूल जाती हूँ बिछौना भी| जब तुम्हारी अँगुलियाँ मेरे बदन पर सरगोशी करती हैं, तो मुझे लगता है, जैसे हरी-हरी दूब गुदगुदा रही है| जी करता है, तुम्हारी गर्दन में अपनी बाहें डाले, हमेशा लिपटी रहूँ, जैसे लता लिपटी रहती है, पेड़ों में| अहा! कितना मधुर गुंजन है तुम्हारा, जी करता है, बिखर जाऊँ पूरे बगीचे में, पोर-पोर भर दूँ, अपना रस-रंग तुममें| हाँ तुम गुनगुनाते रहो, ऐसे जैसे बाँसुरी|”

अचानक उसकी नज़रों को किसी गंधा पर टिकते देख, वह सिहर उठी, और अपने शहद को उड़ेलते हुए उसे अपनी ओर खींचने लगी- सुनो! तुम उस कली की ओर मत देखो, मैं बाग़ की सारी ख़ुशबू सिर्फ़ तुम्हरे लिए समेटे बैठी हूँ| तुम जिसे देख रहे हो वह बार-बार फूल बनने की कोशिश कर रही है, पर उसके रस में नशा टपक रहा है|
तुम कहते हो न कि तुम्हारी एक ही जूही है, तुम केवल उसी का पराग-पान करोगे, फिर दूसरी कलियों की ओर तुम्हारी आँखों का जाना, तुम्हारे, और मेरे दोनों के लिए ख़तरनाक हो सकता है| मेरी ओर देखो, तुम्हारी जूही पूर्ण-परागयुक्त है, आओ, तुम उधर मत देखो|
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तुम जूही के गुंजन हो? क्या वह इतना महकती है कि तुम किसी कुसुम के पास जा भी नहीं सकते? सुनो! मुझे भी संगीत से बहुत प्रेम है| क्या तुम मुझे भी वही भ्रमर-गीत सुना सकते हो, जिसे सुनकर, जूही हर रोज़ खिलती है, महकती है? अपने पराग-केसरों को उसके मुँह पर लिपटाते हुए वह कहती जा रही थी| आज मुझे भी महका दो न| मैं अपनी आँखें बंद कर लेती हूँ, ताकि मैं पूरी तरह तुम्हें अपने में उतार सकूँ| मेरे लिए भी वह गीत गुनगुना दो, जिसे सुन कर यह सारा बगीचा हरा हो जाता है|
उसकी यह बातें सुन, वह उसके दलों पर आकर बैठ गया, और फिर एक राग छेड़ दिया| वाह! गूँजते रहो, ऐसा लग रहा है, जैसे मेरा ब्रह्माण्ड ही गुंजित हो रहा है| क्या सचमुच कृष्ण भी ऐसी ही बाँसुरी बजाता था| सुनो! अब मैं खिलना चाहती हूँ, तुम्हारे पंखों के बीच, इजाज़त दे दो| देखो तो! मेरी पंखुड़ियाँ नाचते हुए कैसी दिख रही हैं, तुम इन्हें अपने पंखों के बीच आलिंगित कर लो| इस पवन में जो तुमने अपनी धुन भर दी है, वह मुझे मतवाली कर रही है| मेरा पोर-पोर नशीला हो रहा है, तनिक मेरे केसर की ओर देखो| इसके पहले कि मैं हो जाऊँ मधुहीन, अब मेरा पान कर लो| मेरे खिलने की ऋतु आ गई है| वह कहती जा रही थी, और वह अपनी सुध-बुध खो कर, उसके शब्दों के साथ, उसीमें विलीन होता जा रहा था| ओह मेरे गुंजन! कली से कुसुम बनने के मेरे सहयात्री, क्या अब भी तुम जूही के हो?
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इस हरे-भरे बगीचे में, असंख्य फूल हैं, पर सिर्फ़ तुम पर ही मंडराता हूँ| तुम्हारा पराग, तुम्हारा स्त्रीकेसर, पुंकेसर, परागकण सब-के-सब में आकर्षण की गुरुत्व शक्ति है| मैं तुम्हारे पुष्पदलों के नीचे अनंत दिनों तक बिना भूख-प्यास के सो सकता हूँ| अब मैं नहीं जाउँगा कभी भी वापस उस ऊबी हुई, एकरंगी जूही के पास| आज से तुम कुसुम नहीं, मेरी नौरा हो| मेरी और सिर्फ़ मेरी नौरा| मैं गुंजन नहीं, नौशन हूँ, तुम्हारा और सिर्फ़ तुम्हारा नौशन|
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मेरे पुष्पकेतु! तुम तो मेरे स्वामी थे न? मुझे ही विच्छिन्न कर दिया? समेट दिया मेरी ख़ुशबू को? छिटका दिया टहनियों को दर-ब-दर? शुष्क कर दिया मेरे पुष्पदलों को? बरसती धार की तरह बहते हुए वह कहने लगी| मेरा रज, मेरे केसर, मेरा मधु, मैंने सब कुछ तुम्हें समर्पित कर दिया| अपनी पत्तियों और शूलों से तुम्हें बचाए रखा, और सूर्योदय से सूर्यास्त तक खिलती रही तुम्हारे लिए| और अपने सायक से तुमने मुझे ही वेध दिया?

तुम मुझसे शिकायत मत करो| तुम एक मरुस्थल हो| वीरान मरुस्थल, जिसमें न हवा है, न पानी| तुम्हारे कण उड़ती हुई किरकिरी है, जो मेरी आँखों को घायल करते रहते हैं| तुमने अपने मन में मरीचिका पाला यह तुम्हारी भूल थी|  मुझे नौरा मिल गई है, जो जब खिलती है, तो सारा रेगिस्तान महक उठता है| रेत का एक-एक कण उसकी सुगंध से उन्मत्त हो जाता है| उसके चटकते ही, यह धूसर रेगिस्तान, एक बगीचा बन जाता है| तुम मेरे मन के साँचें से उतर चुकी हो, अब इसमें दुबारा नहीं सज सकती|
इसलिए मैं जा रहा हूँ, उसी बगीचे की सैर में| मैं उसकी हरियाली में, गुनगुना पाउँगा| रच पाउँगा कई और उसके जैसे ही पौधे| हो पाएगा कई और बगीचों का निर्माण| रसोन्मत्त वह दुत्कारे जा रहा था उषा को|
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उषा न हँस पा रही थी, न रो पा रही थी| बस अनायास ही उसके होंठ बड़बड़ा रहे थे- मैं... साँचे से उतर गई...? तो... मेरी... आँखों... की तारीफ़...? मेरी आँखों का समुद्र...? टापू...? लहरें...?

उसे अपने आपको देखकर सचमुच में एक वीराना रेगिस्तान महसूस होने लगा, और नौशन उसमें उगने वाला नागफनी| और नौरा? वह क्या है? क्यों आई मेरी हरियाली को सेहरा बनाने...?


उसने अपनी आँखों से निकलने वाली, सारी लहरों को पी लिया| उसकी हरियाली सूखने लगी, डालियाँ छिटकने लगीं| 

वह एक ठूँठ की तरह वहीं गड़ गई पुनः उद्यान बनने की आशा में...