शब्द समर

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11.8.14

एक आरज़ू...

एक मुद्दत से
मेरे दिल की एक चाहत है
कि तुम और मैं,
समझ सकें एक-दूसरे को,
बाँट सकें दर्द,
कर सकें अठखेलियाँ
मेरी और तुम्हारी नज़रें
एक-दूसरे में खो कर|
मैं जानता हूँ तुम हो चुकी हो
मशरूफ़, अपनी ज़िंदगी में
जिसमें केवल तुम हो
तुम्हारी अपनी तन्हाईयाँ हैं,
अनचाही बातें हैं,
और है अकेले का दर्द
जिसे नहीं चाहती तुम करना बयाँ
किसी के सामने|
मुझे पता है
तुम वही बर्फ़ हो
जिसमें हमने बिताए हैं
कुछ यादगार पल
जिसे थोड़ा भी ताप मिलने पर
पिघल जाएगी
और बह निकलेगी
गंगा-सिन्धु की तरह|

उस ताप की आहट
मैंने कब का दे दिया
लेकिन तुम जानबूझ कर
कर रही हो बचाव,
यह जानते हुए भी
कि
तुम्हारे पानी बनने से लेकर
समुद्र में मिलने तक
तुम्हारा दूसरा किनारा बनकर
चलने को हूँ मैं तैयार|
मैं भी कूद चुका हूँ
उसी नदी में
जिसमें चल रही है
तुम्हारी नाव|
फ़र्क बस इतना है
कि
तुम धारा से अलग हो
मैं तरंगों में सराबोर
तुम्हारा दूसरा पतवार बन
साथ में खेना चाहता हूँ
तुम्हारी नाव को|
मेरी आँखे कब से
टिकी हुई हैं
घड़ी की सुइयों पर
और पूछ रही हैं
एक सवाल उससे
“क्या ऐसा कोई वक़्त नहीं है
किया तुमने मुकर्रर
जिसमें मैं
हिमालय की बर्फ़ को पिघलाकर
अपने खेतों में बहा सकूँ”?

प्रणय निवेदन


एक प्रणय निवेदन तुमसे प्रिय,
अपने आँचल में ग्रहण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

कोकिल स्वर से मुखरित तुम,
कर्ण वनों में कूक रही|
लिए चषक मृगनयनों की
मनः पटल पर हुक रही|
प्रेम-पिपासु इस अन्तः को,
निज अधरों से संवरण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

अभिसार पथों का मैं मार्गी,
गन्तव्य तुम्हारा प्रेमांगन|
निर्बाध अग्रसर हूँ मग पर,
दृढ़ प्रतिज्ञ कर अंतः मन|
मेरी अविचल यात्रा का,
तुम एक भाग अनुसरण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|

मैं नव अंकुर एक प्रेमी हूँ,
नहीं भान मुझे प्रेमालाप|
हूँ परे तुम्हारे नाजों से,
नहीं ज्ञान मुझे प्रेम-प्रताप|
मैं सर्वस्व समर्पित तुम पर,
तुम एक तो भाव संचरण करो|
निर्निमेष इन भावों को,
अपने हृद में विस्तरण करो|