शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

22.10.21

निर्भय-प्रेम

प्रेमी,
भीग जाने से कभी नहीं हिचकिचाता;
चाहे वृष्टि-
प्रेम की हो,
या पानी की।

रसिक,
डूब जाने से कभी नहीं घबराता;
चाहे गहराई-
आँखों की हो
या झील की।

भ्रमर,
पान करने से कभी नहीं सकुचाता;
चाहे पराग-
अधर का हो,
या सुमन का।

8.10.21

मुर्गा

एक मालिक के घर,

एक मुर्गा था,

बड़ा ही सुन्दर।

लाल रंगों से सजे पंख उसके,

लाल-लाल दाढ़ी

और सर पर मयूरी ताज।

भोर से प्रभात

और प्रभात से दिन तक

अपनी सबसे तेज़ आवाज़ में बांग देता।

घर के मुखिया से लेकर,

छोटे नाती तक,

सभी उसे प्यार करते।

फिर साल भर में

एक दिन,

देवता के पूजा का समय आया।

थाली में छटपटाते

मुर्गे ने मन-ही-मन में कहा,

"न जाने क्यों लोग

मात्र बकरे की माँ की ही विवशता

क्यों देखते है?

रोती तो मेरी भी माँ है

ठीक वैसे ही।"

आज उसके मालिक के घर

खुशियों का माहौल है,

सबके-सब अघाए हुए डकारें ले रहे हैं,

किसी को भोर होने,

और मुर्गे के न होने की चिन्ता नहीं है।

जल-यात्रा

वह जन्मा,

बहा बन निर्झर,

गिरा अनन्त ऊँचाई से,

छिटका-छितराया,

चोटिल हुआ,

फिर निर्मल हो,

बहा पुनः

और धारा बन

जा मिला

सागर की अनन्त गहराई में।

पानी स्थिर नहीं होता

बहता रहता है

और देता है जीवन

असंख्य प्राणियों को।

पंथ

 दक्षिण,

अर्थात ऐसी दिशा,

जो हिन्दू मान्यताओं के अनुसार-

होती है पूर्ण अशुभ,

जिसकी ओर

तभी मुख किया जाता है,

जब हो जाती है मृत्यु किसी की,

पड़ जाता है सूतक घर-खानदान में।

ठीक उसके वाम दिशा में

होता है पूर्व,

जहाँ से उदित होते हैं,

दिनमान,

जिनके प्रकाश से

चलायमान होती है समूची सृष्टि।

हिन्दू मान्यताओं में

सबसे शुभ दिशा है पूर्व,

जिस ओर मुख करके

किये जाते हैं,

शुभकर्म सभी।

अब निर्णय वे करें

कि उन्हें है कौन-सा पंथ स्वीकार?

जो सूतकीय है,

या जिसकी क्षितिज से

संसार प्रकाशित होता है।

रंग

सौर-किरण के सप्तपुत्र,

छिटकते ही,

हो जाते हैं विभक्त

अपने-अपने क्रम में।

किरणें वस्तुओं से टकराते ही,

दीप्त हो स्वयमेव ही,

हो जाते हैं दृष्टिगोचर।

वर्ण कभी नहीं करते भेद

सम्प्रदायों,

जातियों,

विचारों

प्रतीकों में।

वे समान रूप से

प्रकाशमान होते हैं,

सृष्टि के समस्त जीवों को।

वर्ण-भेद करते हैं

मनुष्य मात्र,

जिन्होंने बाँट रखा है,

ईश्वर भी अपने-अपने,

स्वार्थानुसार,

और पहना दिया है वस्त्र भी उन्हें,

अपने अभिरुचि के रंगों का।

कितना ही सुन्दर होता,

जब मनुष्य भी

सूर्य की ही भाँति,

इन्द्रधनुषी व्यवहार युक्त होता,

और समस्त चराचर पर डालता,

दृष्टि भी समान।


कवि को उत्तर

कवि को,

कविता की भाषा में ही

प्रतिउत्तर देना चाहिए।

हालाँकि

कोई भी कवि,

कविता की मूल भाषा को

कभी नहीं समझ पाता,

क्योंकि वह

अपने

कवि होने के भाव में

इतना डूब जाता है,

कि

दूसरों की कविताएँ उसे

ओछी और निम्न समझ आती हैं।

 

अतः

कविता की

भाषा से मिले उत्तर से

मूर्ख बन

वह

आजीवन बुद्धिजीवी होने के

अहंकार में डूबा रहता है।

इसलिए

कवियों को

कविता की भाषा में
ही प्रतिउत्तर देना चाहिए।


ख़ुदा को भी जीने का हक़ है...

 ख़ुदा को भी है जीने का हक़
उसी आज़ादी से,
जो आज़ादी बख़्शी है उसने
अपने इंसानों के लिए।
पर
इंसानों ने
कर रखा है क़ैद उसे
दीवारों के बीच
बना रखे हैं क़ैदख़ाने
मस्जिदों, मक़बरों, दरगाहों के नाम पर।

 

ख़ुदा ख़ुद परेशान है
तिज़ारत पर
कि जैसे बेची जा रही हो रूह उसकी
जिबह हो रहा हो सरेआम नाम उसका।
ख़ुदा की आज़ादी
इंसानों के हाथ में है,
और इंसान उसे आज़ाद नहीं करेगा,
क्योंकि
इंसान कमाता है करोड़ों
उसी ख़ुदा के नाम पर।

 

ख़ुदा हर मज़हब में है,
इंसान हर मज़हब में है
ख़ुदा बिक रहा है,
इंसान बेच रहा बेख़ौफ़ ख़ुदा को अपने,
बना रखा है ग़ुलाम
अपनी मर्ज़ी का।
क्या जीना चाहेगा ख़ुदा ऐसे माहौल में भी?
यदि वह वाकई ख़ुदा है
और बेशर्म नहीं है...

युवपति

 एक नगर,

नगर में जन संग्रह हुआ है,

दो जन

कर रहे हैं, चर्चा कुछ-

तुम कौन?

मैं धरणीपुत्र,

जो अन्नोत्पादन से

उदरापूर्ति करता है संसार का।

 

तुम?

मैं,

भी वही, जो तुम हो

बस स्थान अलग है।

तुम आए क्यों हो?

मैं आया हूँ, सम्राट से मिलने,

कहने व्यथा अपनी

कि हमें कृषि, उत्पादन

एवं उससे जीवन यापन में

उठानी पड़ रही है हानि बहुत,

थोड़ा नियमों में करें ढील अपनी।

 

तो अब क्या कर रहे हो?

प्रतीक्षा।

किसकी?

सम्राट की?

हाँ|

वो देखो दूर कोई रथ आ रहा है।

हाँ।

महाराज ही हैं|

लगता तो है|

एक और रथ?

आगे-आगे भू-कुंअर हैं।

क्या रथ में राजकुमार हैं?

निःसन्देह भूपति संग युवराज भी हैं,

किन्तु सुना है,

कुमार के भीतर दया का भाव नहीं है,

वे वसुपति से भी अधिक हैं भयानक,

मृत्यु के साथ हुआ है समझौता उनका

कि वे खिलाते रहेंगे

मानव मास मृत्यु को

समय-समय पर।

तो क्या युवपति हत्यारे हैं?

दुस्सास क्यों किया इस कथन का भी,

वे हत्या नहीं करते,

मार्ग स्वच्छ करते हैं,

वे करते हैं हम जैसे मानव के

रक्त से अभिषेक अपना,

और देते हैं प्रमाण पिता को

कि अब हो चुके हैं वे पूर्ण योग्य

जन-दोहन को।


यह वार्ता चल ही थी कि

कुमार का चतुष्चक्र वाहन

कइयों की देह को

कुचलता हुआ चला गया।

कुमार अपने निवास में

मद्योन्मत्त हैं,

और धरा

अपने पुत्रों के शवों को छाती पर लिटाए,

क्रन्दन कर रही है।

संसार उन्हीं शवों के ऊपर

जुगुप्सित नृत्य नाच रहा है।

29.7.21

जब सब कुछ पानी-पानी होगा

पानी से पानी की निशानी होगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा

पृथ्वी पानी की कहानी होगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


गूँजेंगी किलकारियाँ

हवाओं में सिर्फ सदा बनकर

सिसकियाँ भी पहचानी होंगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


खानदान की ताक पर

क्रूर समाज की शान पर

प्रेम की ही बलिदानी होगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


बैलों के गले का घुँघरू

हलवाहे का पसीना

फ़सलें अतीत की सानी होंगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


मीठे कसैले कड़वे-से

खारे बेस्वाद समन्दर की

लहरें केवल तूफानी होंगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


नष्ट हो जाएँगे ग्रन्थ सभी

सूर्य-चन्द्र भगवान भी

श्रद्धा-भक्ति पूजानी होंगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


मिट जाएँगे लोग सभी

नदी-पहाड़ का नाम भी

यादें तब भी रूमानी होंगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


मिट जाएगी आग भी

मिट्टी अम्बर का ताप भी

पानी-ही-पानी की मनमानी होगी

जब सब कुछ पानी-पानी होगा


पानी ही पानी का साथी होगा

पानी ही पानी का रहबर भी

जीवन भी पानी-पानी होगा

जब सब कुछ पानी-पानी होगा।

13.7.21

समर शेष है

इस कविता की भूमिका यह है कि अभी कुछ दिनों पूर्व, मैं भीषण बीमार था (कोविड नहीं)। उस अवस्था में मुझे जीने की प्रेरणा चाहिए थी, और मैंने उसी अवस्था में अपने लिए यह कविता लिखी।

आप सबके समक्ष प्रस्तुत है-
---------//--------//----------

समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे
शत्रु शेष है
लिए अक्षौहणी
खलबल आगे-आगे

उठो कि भेरी बज उठी है
तुम सस्वर प्रस्थान करो
मन-ध्वन्या की बाँध प्रत्यंचा
निजबल-शर संधान करो
अरि शेष है,
चलो थलपति ले जनबल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे

उसके तीक्ष्ण वार के बदले
वार तुम्हें करना है
उसके प्रति प्रहार से पहले
मार तुम्हें करना है
अस्त्र शेष है
चलो दलपति
ले दलबल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे

बनें रहना हो रण में तो
दलित नहीं होना है
मस्तक धरती पर गिरने तक
खलित नहीं होना है
मृत्यु शेष है
चलो रणपति
ले सम्बल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे

ये लो अन्तिम शत्रु का
मस्तक अब हाथ तुम्हारे है
ये लो अन्तिम शत्रु का
क्षत्रप अब हाथ तुम्हारे है
जीवन शेष है
बढ़ो अधिपति
ले करतल आगे-आगे
समर शेष है
चलो समरपति
ले भुजबल आगे-आगे