शब्द समर

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8.9.22

माता-पुत्री सम्वाद

कृष्णा- मैं आई कहाँ से?
और हूँ कहाँ?
तुम कौन?
मैं कौन?
और ये लोग कौन?

 माँ- कृष्णे!
तुम अनन्त से
ब्रह्माण्ड की प्रिय
भू-लोक में हो आई।

मैं तुम्हारी जन्मदात्री;
'माँ' तुम्हारी,
और तुम मेरी 'आत्मजा' हो।

 सुते!
तुम पुत्री ही नहीं हो मात्र,
तुम असह्य वेदना,
तपती-उबली हुई देह,
धौंकनी-सी साँसें हो,
पीड़ा की अन्धकार,
और उसी व्यथा की
न बीतने वाली क्षण हो,
तुम न रीतने वाली
प्रण हो।
तुम माँ की हर पल की करवट,
चेहरे की सिलवट,
दाँतों का चिपकना,
होंठों का कटना,
हाथों की छटपटाहट,
पैरों की कसमसाहट,
असीम चीत्कार,
रक्षा की पुकार हो।

हे पुत्रे!
तुम नहीं हो मात्र कन्या हमारी
तुम तो सुप्त व जागृत नेत्रों का स्वप्न हो,
तुम निराकार से
कन्याकार की यात्रा,
बिसूरती आँखों की प्रतीक्षा का
परिणाम,
प्रसव-वेदना का
स्नेहलेप,
खिंचे अधरों की
मुस्कान हो,
तुम गहन तिमिर में
उज्जवल प्रकाश पुंज,
हताश-निराश
हैरान-हलकान जनों में
प्रसन्नता की द्योतक हो।

हिमाच्छादित पर्वत मण्डल,
सुदूर मरुक्षेत्र हो,
अनन्त गगन,
विहंगम सघन वन
नयनाभिराम,
सुलोचन शिशु-धाम,
जीवन की अभिलाषा
प्रेम की भाषा हो।
तुम कवि की कल्पना,
कृष्ण-नाम का जपना हो।
तुम नहीं हो मात्र आनन्द भद्रे!
तुम पूर्णानन्द हो,
माता-पिता को मिला;
परमानन्द।

 प्राणे!
ये हैं तुम्हारे सम्बन्धी सभी,
आओ सर्वप्रथम लो पहचान
उन्हें,
जो मेरे साथ-साथ
तुम्हें इस धरा-धाम पर लाने में;
रहे हैं सहयोगी बराबर,
और अब तुम्हारे,
लालन-पालन-पोषण सहित;
जीवन के हर क्षण में
रहेंगे छत्र की भाँति विद्यमान भी।
करो इन्हें प्रणाम धिये,
ये मेरे भी जीवनाधार और जीवनसाथी हैं;
ये जनक तुल्य 'पिता' हैं तुम्हारे।

वे जो चार जन हैं दिख रहे
जो प्राप्त हो चुके हैं
अपनी श्वेत जरावस्था को,
उनमें वे जो सबसे वृद्धा स्त्री हैं
और दीख रहे हैं वृद्ध पुरुष जो,
वे हैं तुम्हारे
'पितामही' और 'पितामह'
और जो दो और स्त्री पुरुष
हैं विराजमान वहीं पर,
वे है तुम्हारे 'मातामही' और 'मातामह' हैं।
ये वे हैं,
जो प्रथम प्रणम्य हैं हमारे,
किसी भी ईश्वर से।
उनसे ही सीखा है हमने
जीवन के गुर सभी।
वे हमारे रहे हैं,
और अब तुम्हारे भी होंगे
संस्कारधानी।
नतमस्तक हो करो प्रणाम इन्हें
कि इनका आशीष ही होगा
रक्षाकवच तुम्हारा।

 हे दुहिते!
जब तुमने इतनों को लिया पहचान,
तो अब सबको जाओ चीन्ह
धीरे-धीरे,
जो हैं
तुम्हारे साथ
ज्येष्ठ पिता-माता,
बुआ-फूफा,
मासी-मौसा,
मामा-मामी
भ्राता-भगिनी-भावज।
कुछ मित्र मेरे,
कुछ तुम्हारे पिता के
जो लगेंगे तुम्हारे
काका-काकी
और आस-पड़ोस के कई और सम्बन्धी,
करो इन्हें प्रणाम अंगजे।

हे नन्दे!
इन्हीं के मध्य है रहना तुम्हें
सामंजस्य के साथ,
यही कहलाते हैं समाज-सिन्धु सभी,
जो सुन्दर भी हैं,
और घृणित भी,
किन्तु
रहना ही पड़ता है,
साथ उनके
लाँघना ही पड़ता है
चाहे या अनचाहे भी।

हे पुत्रे!
और जो देख रही हो
तुम मिट्टी,
हरीतिमा,
जल, वायु,
जन-जीवन चारों ओर
यह हमारी भूमि है,
भारत-भूमि
तुम्हारी मातृभूमि,
हमारा राष्ट्र,
तुम्हारा राष्ट्र
करो प्रणाम इस धरती को;
और गौरवान्वित हो
कि इसी मिट्टी में मिला है जन्म तुम्हें;
यही मिला है तुम्हें,
एक राष्ट्र के रूप में।

अतः हे तनुजे!
इन सबको प्रणाम कर
उतर जाओ प्रेम भरे इस कुरुक्षेत्र में
स्व-नामानुसार कृष्ण बनकर,
और अर्जुन भी,
उठाओ
पांचजन्य भी
और
गाण्डीव भी तुम ही
कि करना मात्र तुम्हें ही हैं,
कोई और कर्ता न आएगा
अतिरिक्त तुम्हारे।

हे जगत!
अपने माता-पिता के चरणों में
दण्डवत के पश्चात
माता-पिता महों को नतमस्तक होते हुए
आप सभी को प्रणाम करती हूँ।
मैं 'सुमनार्थी कृष्णा',
आज से,
इस सुन्दर जीवन को;
जीवन के लिए
वरण करती हूँ।
आशीष दो
कि मैं अपने कर्तव्य-पथ पर,
रहूँ अडिग सदा,
परिस्थिति चाहे कोई भी आए।
प्रणाम!