शब्द समर

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24.4.17

मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|


मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|
मैं भूल जाता हूँ,
आदम-हौव्वा, एडम-ईव को,
मनु-सतरूपा, और प्रारम्भिक जीव को|
मैं ख़ुद ही जन्मता हूँ, और मर जाता हूँ,
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

मैं नहीं मानता,
कोई मालिक, कोई नौकर,
कोई दाता, कोई चाकर
मैं ख़ुद कमाता-खाता और उड़ाता हूँ
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

होता होगा
कोई राजा, कोई मन्त्री,
कोई रक्षक, कोई संतरी
मैं अपने आपको ख़ुद मारता और बचाता हूँ,
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|  

उड़ता होगा
कोई जहाजों पर, कोई विमानों पर
कोई धरती पर, कोई आसमानों पर
मैं अपने सपनों में ही उड़ता-उड़ाता हूँ
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

मुझे क्या लेना
किसी जंग से, किसी लड़ाई से,
किसी पर शासन से, किसी पर चढ़ाई से
अपने शहर मैं ख़ुद रचाता-गिराता हूँ,
क्योंकि मैं रात में केवल इश्क़ करता हूँ|

मैं दिन में भले नाचूँ
मालिक के इशारों पर, साहबों की मारों पर
कुत्ते जैसी पुचकारों पर, उसी के जैसे दुत्त्कारों पर,
पर रात में सिंह सा दहाड़ता और हाथी सा चिंघाड़ता हूँ
क्योंकि मैं रात में केवल इश्क़ करता हूँ|

होता होगा
कोई प्रेमी, कोई सौदाई,
कोई वफ़ादार, कोई हरजाई
अपनी वफ़ा पर मैं ख़ुद इतराता हूँ,
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

करता होगा
कोई आन्दोलन, कोई हड़ताल,
कोई चोरी, कोई पड़ताल
अपना हक़ मैं ख़ुद ही छीन लाता हूँ
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

करता होगा,
कोई निकाह, कोई मज़ाक,
कोई फतवा, कोई तलाक
अपने नियमों का मैं ख़ुद विधाता हूँ
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

मरता होगा
कोई तन्हाइयों में, कोई रुसवाइयो में,
कोई उथलेपन पर, कोई गहराइयों में
मैं अपनी महफ़िल बन खुद ही मुस्कुराता हूँ
क्योंकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|

वाकई मैं सब कुछ कुछ भूल जाता हूँ
दिन भर मरने के बाद
जीने की कोशिश में लग जाता हूँ
शुरू कर देता हूँ अपनी प्रेम कहानी
जिसका मैं ही होता हूँ राजा, मैं ही होती हूँ रानी,
कर देता हूँ हवा हर ग़म को,
बदल देता हूँ ख़ुशी में मातम को
अपने ही में सिमट,
अपने बाजुओं में कसके
भर लेता हूँ बाहों में गहराई से धँस के
इस प्यार को और ज़ोर-ज़ोर से दोहराता हूँ,
क्योकि मैं रात को केवल इश्क़ करता हूँ|  


22.4.17

उनींदी रातें

नींद को परिन्दों के पर लग गए हैं,
न जाने कहाँ आसमानों में उड़ गई?
सुबह शिकारी दाना फेंकेगा,
और फाँस लेगा,
उसकी चंचलता को,
कुतर देगा सारे पंख,
कर देगा बन्द पिंजड़े में,
लगाकर हड्डियों की सलाखें।
शाम ढलते ही छोड़ देगा किसी चबूतरे पर।
दिन भर उड़ने की चाहत में फड़फड़ाते हुए,
रात अँधेरे,
आते ही बिस्तर पर,
उग आते हैं,
फिर से उसके पंख,
और अपने लोथड़े को छोड़,
पुनः उड़ जाती है वह,
कभी ज़िन्दगी के प्यार में,
कभी बाग़ों की बहार में,
कभी सपनों की क्यारियों में,
कभी अपनों की फुलवारियों में,
कभी सुकून की तलाश में,
कभी बेख़बरी की आस में
कभी समन्दर की लहरों में,
कभी चमकदार शहरों में,
कभी बादलों के झुण्ड में,
कभी बुलबुलाते कुण्ड में
और सफेद लकड़ियों पर,
गेहुआँ परतों वाला यह ढाँचा,
तड़पता रह जाता है,
उसके इंतज़ार में सारी रात।

18.4.17

ना-समझ समझदार

यह समाज,
यह वह समाज,
जो अनजान होते हुए भी ज्ञानवान,
ना-समझ होकर भी समझदार बन
करता रहता है हत्याएँ,
अपने सन्तानों के मन की,
उनके उमंगों की,
उनके सपनों की|

दुनिया भर के माँ-बाप भूल जाते है,
अपनी जवानी,
जब वे भी चाहते थे
लेना हिलोरें उत्ताल सागर-तरगों के बीच,
चाहते थे उड़कर पकड़ लेना,
जुगनू जैसे जगमगाते तारों को,
ले लेना चाहते थे आलिंगन में,
किसी स्वप्न-परी, या राजकुंअर को|

क्या ऐसा नहीं था?
बिलकुल था,
क्योंकि युवा मन की अल्हड़ता,
और उसकी चंचलता को
दौड़ने से रोकना क्या उनके वश में था?

तो क्या भूल जाते हैं?
नहीं,
बल्कि वे अपने
कुतर दिए गए पंखों,
कुचल दी गई भावनाओं,
और भोथरी कर दी गई जीभ के कारण,
ज़िन्दगी की चाशनी में डूबी
मिठाई का नहीं चख पाए स्वाद ही,
न ही जान पाए,
इसके भीतर के भाव-रस को|
इसीलिए
अपनी असफलता की कुंठा,
और व्यथा में संकृति, परम्परा
और रिवाज़ों की बेड़ियाँ डाल
प्रतिदिन करते रहे हैं चेष्टा
बनाने को बन्दी स्वतंत्रता को,
किन्तु
उड़ने वाले परिन्दों के लिए
कोई लुहार आज तक
एक भी पिंजड़ा बना पाया है क्या?   

17.4.17

सड़क पर पितामह

चित्र-साभार-गूगल 
एक मक्खी
जो बहुत देर से भिन-भिना रही है
उसके मुँह के आसपास
शायद चाहती है,
कुछ कहना,
कुछ पाना|
अधुली-उलझी हुई
बड़ी-बड़ी दाढ़ी-वन में
उग आई हैं शायद इल्लियाँ,
जो खेल रही हैं
खेल लुका-छिपी का
मक्खियों के साथ|
इल्लियों की खोज में,
घुस जाती है मक्खी,
कभी नासिका के खोह में,
तो कभी बैठ कर सुस्ताने लगती है,
जीभ रुपी चट्टान पर|

अपनी ही संतानों से दुत्कारा यह व्यक्ति,
सड़क के किनारे
पोते-पोतियों की जगह,
कटोरे को छाती से लगाए
इन मक्खियों के खेल का हो गया है आदी|
वह इन पर हाथ भी नहीं उठाता,
क्योंकि शायद उन्हें ही,
समझ अपनी तीसरी पुश्त,
जलहीन आँखों से निहारता रहता है
इस खेल को|
कभी आनन्दित तो कभी
भावनाओं के सागर में डूबकर
चिल्ला पड़ता है

बाबू साहब एक रुपया दे दो|