शब्द समर

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9.9.15

आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ...


आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ...
तुम अपनी एक साँस मुझे दे दो,
तुम अपना एक विश्वास मुझे दे दो,
तुम अपने होने का एहसास मुझे दे दो
मैं इन तीनों में भरूँगा अपनी साँस,
तैराऊँगा तुम्हारी ज़िन्दगी-जल में,
और लिख दूँगा उसपर तुम्हारा नाम, राम की तरह
बस! तुम हाथ चलाना और पार कर जाना,
समाज-सिन्धु को|

आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ,...
तुम अपनी थोड़ी आवाज़ मुझे दे दो,
तुम अपने थोड़े अन्दाज़ मुझे दे दो,
तुम अपना थोड़ा मिज़ाज़ मुझे दे दो,
मैं इन तीनों में भरूँगा अपनी आवाज़,
मोड़ दूँगा रुख़ चट्टानों की ओर,
और कर दूँगा आग़ाज़
बस! तुम पैर उठाना और लाँघ जाना
समाज-पर्वत को|

आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ...
तुम अपनी थोड़ी हुँकार मुझे दे दो,
तुम अपनी थोड़ी झंकार मुझे दे दो,
तुम अपने शस्त्रों की टंकार मुझे दे दो,
मैं इन तीनों में भरूँगा अपनी हुँकार,
बनाकर अस्त्र लटका दूँगा तुम्हारी पीठ पर,
और उठा लूँगा पांचजन्य
बस! तुम युक्ति लगाना और जीत जाना
समाज-समर को|

आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ...
तुम थोड़ा फुफकार मुझे दे दो
तुम थोड़ा इज़हार मुझे दे दो,
तुम थोड़ा इक़रार मुझे दे दो,
मैं इन तीनों में भरूँगा अपनी फुफकार,
बनाऊँगा एक गाढ़ा घोल
कर दूँगा संचरित तुम्हारे रग-रग में
और खौला दूँगा तुम्हारा खून,
बस! तुम इंक़लाब करना और छीन लेना अपना हक़
समाज-सत्ता से|

आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ...
मैं तुम पर कोई एहसान नहीं कर रहा हूँ,
क्योंकि तुम जीते रहोगे तभी तो रहेगी
सम्भावना मेरे जीवन की|
तुमने सुना ही होगा
लक्ष्मण के मर जाने के ख़याल मात्र से ही
राम हो गये थे अधमरे ?
इसलिए आओ!
तुम मेरे मुँह में फूँको,
मैं तुम्हारे मुँह में फूँकूँ
भरूँ साँसें एक-दूसरे में,
परस्पर
निकले एक ही स्वर दोनों के हलक़ से
आओ! तुम्हें ज़िन्दगी दे दूँ...