शब्द समर

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18.12.18

बगदरा-सिंगरौली का अन्तिम छोर


मैं अन्तिम छोर हूँ,
जहाँ पानी भी
अपनी आख़िरी बूँद के साथ ही पहुँच पाता है।
अन्तिम वह स्थान होता है,
जहाँ प्रारम्भ चाह कर भी नहीं पहुँच पाता,
और पहुँचता भी है, तो चुका हुआ।
अन्तिम तक पहुँचते-पहुँचते
मध्य भी थक ही जाता है,
और तक जब पहुँचता है
स्वयं ही अन्त हो जाता है।
मुझ तक पहुँचने वाली
सरकारें भी,
साहब-दर-साहब बिखरी हुई आती हैं,
और साहब तो अक्सर रीते हुए ही होते हैं।
हमें देने की बजाय,
उल्टा हमें ही देने पड़ जाते हैं।

मैं अन्तिम छोर हूँ,
मेरी आवाज़
मुझमें ही घुट रही है,
मुझमें ही मर रही है।
प्रारम्भ ने अपनी दीवारों पर
सफेदी पोत दी है,
मेरे अँधेरे को
दुनिया की नज़रों से छुपा दिया है,
और अब वह विश्वगुरु बन चुका है।
यह अलग बात है कि
उसके अन्तिम छोर ने आज तक
सूर्य नहीं देखा।

मैं हूँ यहाँ


मैं हूँ यहाँ
कि देखना चाहता हूँ मुस्कुराहट,
उन चेहरों पर भी,
जिन्हें ख़ुद से मुस्कुराने के लिए
बचपन से ही उठाना पड़ता है,
मैला, बोतलें, बोरियाँ, बेलन, बच्चे और थालियाँ।
जो होते हैं अनाम,
और बन जाते हैं
छोटू, लड़के और छोकरी।

मैं हूँ यहाँ
कि दिला सकूँ उन्हें
किताबें, बल्ले-गेंद और खिलौने।

मैं हूँ यहाँ
कि बिखेर सकूँ हँसी कपोलों पर।
मैं चिन्दियों में बिखरी खुशी को
पूरा पैरहन देना चाहता हूँ।