शब्द समर

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13.4.11

आत्महंता लहरें

बैठा झील के किनारे
सोच रहा है वह

ये लहरें क्यों उठती हैं
और खत्म हो जाती हैं
पहुंचकर साहिल पर

जिसकी तलाश में
भटकता है हर इंसान
वहीं मौत को गले
क्यों लगा लेती है ये तरंगे
जो देखने में हैं बहुत खूबसूरत, चंचल

क्या इनकी जिंदगी
केवल चलकर मर जाने की है......

किससे करोगे नफ़रत...?

,
कमरे में पड़ा एक आदमी सोचता है कि
करूँ नफ़रत या मोहब्बत इस दुनिया से?

तब उसका मन उससे कहता है,
चार बाई चार के कमरे में
तुम किससे नफ़रत करोगे ?

वहाँ चारों ओर दीवारें ही दीवारें तो हैं,
उनकी तरह-तरह की आकृतियाँ
चिढाएगी तुम्हें,
जितना करोगे उनसे नफ़रत।
तुम टीसते ही रह जाओगे
और बर्बाद कर लोगे अपनी ज़िन्दगी।

मेरी बात मानों
डालो ज़रा प्यार भरी नज़र इन पर।
ये निष्प्राण, ईंट, सीमेंट, गारे से बनी दीवारें,
खींचेंगी तुम्हे अपनी ओर मोहब्बत से,
उनका स्पर्श
जगाएगी ललक तुम्हें
जीने की
एक मोहब्बत भरी जिंदगी.

2.4.11

एक तारा जो होता मेरी जेब में


एक तारा जो होता मेरी जेब में,

आसमां की तरफ मैं नहीं देखता।

रोती रहतीं ये आँखें सदियों भले,

आंसुओं की तरफ मैं नहीं देखता।

उम्र भर मै मुखौटे बदलता रहा,

कई रूपों में लोहे सा ढलता रहा।

मोमबत्ती अभी तक आधी है क्यों?

मैं तो पूरा का पूरा पिघलता रहा।

शकल बदली है कितनी मेरी अब तलक,

आईने की तरफ मैं नहीं देखता।

भूख में पेट मैनें बांधे मगर,

रोटियां भीख की कभी खाई नहीं.

दुनिया उलझी रही रेखा गणितों में पर,

मैनें जाना इकाई-दहाई नहीं।

एक लत्ता भी होता जो ग़ैरों के पास,

खुद को नंगा कभी मैं नहीं देखता।

एक तारा जो होता मेरी जेब में,

आसमां की तरफ मैं नहीं देखता.

1.4.11

मेरा वज़ूद क्या है?

अपने मन के अन्तरंग से जूझते हुए,
जब कभी मैं अपने आप से पूछता हूँ
कि मेरा वज़ूद क्या है?
तब मेरी भावनाएँ मुझे धिक्कारती हैं,
आशाएँ दुत्कारती हैं,
मेरी कल्पनाओं की किरणें ठोकर मारती हैं मुझे
और तब मेरा मन मुझसे कहता है,
तुम चन्द साँसों की दीवार में कैद
उस पंछी की तरह हो
जो अन्दर ही अन्दर व्याकुल होता है,
छटपटाता है पिंजरे लडक़र,
उसी के अन्दर आँसू बहाता रहता है अन्त तक
मगर कुछ कर नहीं सकता। 

क्यों?
क्यों हर बार हर रिश्ता छल जाता है?
हर कदम पर कोई न कोई बदल जाता है?
क्यों ज़मी नहीं बदलती,
आसमां नहीं बदलता,
ये दुनिया नहीं बदलती,
फिर इंसान क्यों बदल जाता है?
क्यों होता है ऐसा कि लाश तो बदल जाती है
पर लाश का सामान नहीं बदलता?
इंसान बदल जाता है
पर अन्दर का हैवान नहीं बदलता?

मैं पूछता हूँ मुझे क्या हो गया है
कि मैं कुछ करना भी चाहता हूँ
और मरना भी चाहता हूँ?
मैं जानता हूँ कि एक न एक दिन जहाँ से आया हूँ,
वहीं चला जाउंगा,
मिट्टी में पैदा हुआ हूँ,
उसी में मिल
दुनिया, ये रिश्ते,
ये नाते , सब झूठ हैं,
बकवास हैं,
ये वो बुलंदी को चूमती ऊँची दीवारें हैं
जो बाहर से देखने में तो मजबूत
लेकिन अन्दर से सब खोखली हैं।
हकीकत है तो सिर्फ इतना कि कोई अपना नहीं होता
अगर होता तो दुनिया में सपना नहीं होता

एक न एक दिन हर इंसान,
उसकी हर उम्मीद,
हर सपना ,
हर ख्वाहिश खाक में मिल जायेगी
मैं भी जानता हूँ
कि कभी न कभी कोई न कोई साँस तो ऐसी आएगी
जो मुझे इस जीवन 
और इसकी दीवारों के बन्धन से मुक्त कर देगी।
फिर न कोई डर होगा,
न कोई टीस होगी,
न होगी किसी की ज़रूरत।
इस ज़िन्दगी की आग में जलने के बाद
मैं शाश्वत आग में झोंक दिया जाउंगा
और फिर खाक में मिल जाउंगा,
खाक में मिलने के बाद 
सिर्फ राख बनकर रह जाउंगा।
लेकिन राख बनने से पहले 
सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ
कि
आखिर
मेरा वज़ूद क्या है?