शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

30.12.22

काव्य-पात

बहुत दिनों से
कविता मन में आती हैं,
कुछ भाव जगाती है,
और पहले इसके कि
दूँ उसे रूप कोई,
लाऊँ दुनिया के सामने,
न जाने क्यों
वह बिना कुछ कहे-बताए
स्वयमेव ही
नष्ट हो जाती है?

मेरे मन के
गर्भपात से
मैं
घुटता ही रह जाता हूँ,
भीतर-ही-भीतर।
कविता भी कभी-कभी
बड़ी निर्मोही होती है।

मेरी संज्ञा

मेरी संज्ञा
कवि नहीं है,
क्योंकि मैं
कवि और कविता के विशेषणों,
से सदैव अनभिज्ञ हूँ। 

मैं
सर्वनाम हूँ,
जो
स्वनाम से स्थानान्तरित,
गुप्त हूँ,
अनाम हूँ।

मैं, कवि नहीं हूँ

 मैं,
कवि नहीं हूँ।

मैं,
वर्णमाला की क्रमबद्धता को तोड़,
अक्षरों, शब्दों
और
वाक्य विन्यास में,
व्याकरण के सम्विधान का
उल्लंघन कर,
बलात उनमें भाव-विचार भरता हूँ।

मैं कवि नहीं हूँ।
मैं,
कविता नहीं लिखता हूँ।
मैं,
मन में उठ रहे उद्वेगों को,
मात्राओं के छन्दों से बाँध,
शब्दों का वस्त्र पहना,|
उपमाओं से अलंकृत कर,
रसों में डुबाकर
पाठकों को,
आस्वादन के लिए परोस देता हूँ।
मैं कविता नहीं लिखता हूँ।

2.12.22

तनहाइयों की बातें

तुमने प्यार को-
सिर्फ होते देखा,
उसे मरते नहीं।

तुमने आँखों को देखा-
सिर्फ चमकते हुए,
झरते नहीं।

होंठों को तुमने देखा-
सिर्फ मुस्कुराते हुए
उन्हें फफकते नहीं।

तुमने बाँहों को देखा-
झूलते हुए सिर्फ़,
लरज़ते नहीं।

तुमने क़दमों को-
सिर्फ़ चलते हुए देखा,
उन्हें लड़खड़ाते नहीं।

मरना,
झरना,
फफकना,
लरज़ना,
लड़खड़ाना-
ये तन्हाइयों में होते हैं,
नुमाइशों में
नहीं दिखतीं।

30.11.22

नदी के उस पार

संगीत के उस पार कोई नहीं रहता,
सिवा निर्वात के|

नदी के उस पार,
एक गाँव बसता था;
समेटे हुए
बचपन से बुढ़ापे तक की यात्रा,
और
अतीत से वर्तमान की
असंख्य स्मृतियाँ| 

अतीत में जहाँ-
गाँव देहात था,
गाँववाले गँवार थे,
गँवारों में जीवन था,
जीवन की संस्कृति थी,
संस्कृतियों की परम्परा थी,
परम्परा में रातें थीं,
रातों में रस था
रस में संगीत,
संगीत में आनन्द था| 

फिर,
गाँव का मध्यकाल आया
काल में, विचार आया
विचार था- नगर का,
नगर में आकांक्षा थी,
आकांक्षा थी, विकास की,
विकास में- आशा थी,
आशा से जन्मी लालसा,
लालसा, बढ़ी और लिप्सा बनी
लिप्सा व्यावसायी थी
व्यावसाय था, नगर का|
गाँव नगर न बन पाया,
नगर, महानगर हो गया|

अब,
गाँव खो चुका है,
वह,
उजाड़ है, निर्जन है, वीरान है
जहाँ-
नीरवता है, निस्तब्धता है, सन्नाटा है|
इसीलिए,
नदी के उस पार कोई नहीं रहता;
सिवा दिन-रात के-
ठीक ऐसे ही जैसे,
संगीत के उस पार कोई नहीं रहता;
सिवाय निर्वात के|

कृष्णा की हँसी

यह जो मेरी खिलखिलाहट है, मुस्कुराहट है न?
यह नहीं है हँसी मात्र मेरी,
यह-
आषाढ़ का मेघ है,
सावन की हरियाली है,
भादों की कजरी भी है,
तो क्वार की क्यारी है|

कार्तिक की जगमगाती दीवाली
और मार्गशीर्ष की गुलाबी गुनगुनी धूप है ,
तो पौष का मकर, पोंगल लोहड़ी,
और माघ के वसन्त आहट है|

फागुन की रंग-बिरंगी पिचकारी है यह,
और है चैत्र के ढोल-नगाड़ों सहित खलिहान की खुशहाली,
वैशाख में यह नाचती बिहू और वैशाखी है,
तो जेठ में रिमझिम बरखा की तैयारी है|

मेरे माता-पिता जब भी मुझे ऐसे देखते हैं,
तो जी जाते हैं-छः ऋतुएँ,
बारहों महीने,

एक क्षण में एक युग की भाँति|

19.10.22

कवि की आयु

एक कवि सम्मलेन होने वाला था| दिग्गज-से-दिग्गज कविजन अवतरित हुए थे| कोई इतना श्रृंगारी कि कामदेव और रति वर्षों से उनके घर पर पानी भर रहे थे| किसी की कविताएँ वीर रस से इस प्रकार ओतप्रोत होतीं कि उनके हर सम्मलेन में वातवरण में वायु प्रताप बढ़ जाता, तम्बू स्वयं ही उखड़ने लगते| हास्यरस के कविवर की कविताओं में इतना जादू होता कि लोग अपने किसी प्रिय कि मृत्यु पर भी रोने के स्थान पर हँसते ही रहते| देशप्रेम वाले कवि की कविताओं का यूँ प्रभाव था कि लोग अपने पड़ोसी को ही पाकिस्तानी समझकर कूट दिया करते थे|

इन समस्त श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठतम पुरुषार्थी महाकवियों में मध्य एक हिमवर्णी, मृगनयनी, गजगामिनी, कोकिलकंठी, पुष्पहृदयी, नवायु कवयित्री भी बैठी हुई थीं, जो कि समस्त श्रृंगारी, उत्साही जनों के नयनों का विश्रामस्थल थीं| कोई कहीं भी ताक कर जब थक जाता, बस उन्हें देखता, निहार लेता फिर निहारता ही रहता|

ऐसे ही में उसी हृदचौरी ने एक कविवर से विनोद-ही-विनोद में उनकी आयु पूछ लिया, क्योंकि वे बार-बार बातों-ही-बातों में उसे अपना पौरुष बखान रहे थे, साथ-ही-साथ अप्रत्यक्ष प्रेम निमन्त्रण भी प्रेषित करते जा रहे थे| आयु के बारे में सुनते ही, कविवर झेंप गए| महोदय ने अपने सम्पूर्ण श्वेतवर्णी केशों को पूर्ण श्यामल बना रखा था, यहाँ तक कि दाढ़ी और मूँछें भी सोलह वर्ष की बता रही थीं, क्योंकि वे उगने ही नहीं पाती थीं| अब किसी नवयौवना को अपनी मूल आयु कैसे बताएँ? उन्हें स्वयं से लज्जा और प्रकृति पर क्रोध आ रहा था| हालाँकि उन्होंने हँसी-हँसी में टाल दिया किन्तु अपनी आयु नहीं बताई|

तभी संचालक ने एक स्थानीय युवा कवि को भी कविता पढ़ने के लिए मंच पर आमन्त्रित किया| कवि बेचारा अभी नया-नया ही कवि बना था, अतः उसे कवियों के साथ वाले रहन-सहन और उसकी औपचारिकताओं की जानकारी नहीं थी| उस युवा ने दूर से तो लोगों का अभिवादन किया, किन्तु चरण वन्दन नहीं किया, और आकर कविवर के पड़ोस में बैठ गया| फिर क्या था कविवर के भीतर की बड़ी मछली जग गयी| उन्होंने तमतमाते हुए कहा, “आजकल के युवाओं को कोई शऊर, कोई शिष्टाचार, आचार-विचार, व्यवहार की समझ नहीं है, और चले आए कवि बनने| अपने से बड़ों के सामने कैसे प्रस्तुत हुआ जाता है, इनको पता ही नहीं है| ये क्या कविता पढ़ेंगे? पहले अपने गुरुओं का, अपने से बड़ों का सम्मान तो करना सीख लो, फिर कवि बनना| बड़े आए उभरते कवि बनने|” बेचारा नवयुवक कवि होने से पूर्व महाकवि के शब्दबाणों से ही शहीद हो गया|

तभी सहसा युवती ने धीरे से पुनः उनकी आयु पूछ लिया, अब तो बेचारे को काटो तो खून नहीं| बेचारे असमंजस में पड़ गए, “अब सम्मान बचाऊँ, या प्यार?”

यह कौन है...?

यह कौन है?
जिसने चूम लिया मुझे चुपके से?
वह भी बिना मेरी सहमति या अनुमति के?

लेकिन मुझे क्यों अच्छा लग रहा है,
जब यह करता जा रहा है
प्रवेश वस्त्रों का भीतर,
और भरता जा रहा है गर्माहट
मेरे बदन के पोर-पोर में?
और यह गर्मी,
आहा! जैसे इसकी ही प्रतीक्षा थी मेरी देह को।


क्यों सूख रहे हैं होंठ मेरे
?
और क्यों रोयों में है सरसराहट भरती जा रही?
कटकटाते दन्त-पंक्तियों पर
कौन बिखेर रहा है चमक अपनी?
कौन है,
जो हाथों से कराता जा रहा है
अजब-अजब क्रियाकलाप?
क्यों चुँधिया जा रही हैं आँखें मेरी,
जब ताकती हूँ उसकी ओर?|

ओह! तो यह सूरज है?
जो शरद की गुलाबी शीत में,
गुनगुनी-सी धूप से सेंक रहा है देह मेरी।
तब तो स्वागत है तुम्हारा दिनकर।
आओ,
और बने रहो चारों ओर हमारे,
देते हुए पूर्ण गर्माहट
और
बिखेरते रहो उजाला
समूची सृष्टि में।

8.9.22

माता-पुत्री सम्वाद

कृष्णा- मैं आई कहाँ से?
और हूँ कहाँ?
तुम कौन?
मैं कौन?
और ये लोग कौन?

 माँ- कृष्णे!
तुम अनन्त से
ब्रह्माण्ड की प्रिय
भू-लोक में हो आई।

मैं तुम्हारी जन्मदात्री;
'माँ' तुम्हारी,
और तुम मेरी 'आत्मजा' हो।

 सुते!
तुम पुत्री ही नहीं हो मात्र,
तुम असह्य वेदना,
तपती-उबली हुई देह,
धौंकनी-सी साँसें हो,
पीड़ा की अन्धकार,
और उसी व्यथा की
न बीतने वाली क्षण हो,
तुम न रीतने वाली
प्रण हो।
तुम माँ की हर पल की करवट,
चेहरे की सिलवट,
दाँतों का चिपकना,
होंठों का कटना,
हाथों की छटपटाहट,
पैरों की कसमसाहट,
असीम चीत्कार,
रक्षा की पुकार हो।

हे पुत्रे!
तुम नहीं हो मात्र कन्या हमारी
तुम तो सुप्त व जागृत नेत्रों का स्वप्न हो,
तुम निराकार से
कन्याकार की यात्रा,
बिसूरती आँखों की प्रतीक्षा का
परिणाम,
प्रसव-वेदना का
स्नेहलेप,
खिंचे अधरों की
मुस्कान हो,
तुम गहन तिमिर में
उज्जवल प्रकाश पुंज,
हताश-निराश
हैरान-हलकान जनों में
प्रसन्नता की द्योतक हो।

हिमाच्छादित पर्वत मण्डल,
सुदूर मरुक्षेत्र हो,
अनन्त गगन,
विहंगम सघन वन
नयनाभिराम,
सुलोचन शिशु-धाम,
जीवन की अभिलाषा
प्रेम की भाषा हो।
तुम कवि की कल्पना,
कृष्ण-नाम का जपना हो।
तुम नहीं हो मात्र आनन्द भद्रे!
तुम पूर्णानन्द हो,
माता-पिता को मिला;
परमानन्द।

 प्राणे!
ये हैं तुम्हारे सम्बन्धी सभी,
आओ सर्वप्रथम लो पहचान
उन्हें,
जो मेरे साथ-साथ
तुम्हें इस धरा-धाम पर लाने में;
रहे हैं सहयोगी बराबर,
और अब तुम्हारे,
लालन-पालन-पोषण सहित;
जीवन के हर क्षण में
रहेंगे छत्र की भाँति विद्यमान भी।
करो इन्हें प्रणाम धिये,
ये मेरे भी जीवनाधार और जीवनसाथी हैं;
ये जनक तुल्य 'पिता' हैं तुम्हारे।

वे जो चार जन हैं दिख रहे
जो प्राप्त हो चुके हैं
अपनी श्वेत जरावस्था को,
उनमें वे जो सबसे वृद्धा स्त्री हैं
और दीख रहे हैं वृद्ध पुरुष जो,
वे हैं तुम्हारे
'पितामही' और 'पितामह'
और जो दो और स्त्री पुरुष
हैं विराजमान वहीं पर,
वे है तुम्हारे 'मातामही' और 'मातामह' हैं।
ये वे हैं,
जो प्रथम प्रणम्य हैं हमारे,
किसी भी ईश्वर से।
उनसे ही सीखा है हमने
जीवन के गुर सभी।
वे हमारे रहे हैं,
और अब तुम्हारे भी होंगे
संस्कारधानी।
नतमस्तक हो करो प्रणाम इन्हें
कि इनका आशीष ही होगा
रक्षाकवच तुम्हारा।

 हे दुहिते!
जब तुमने इतनों को लिया पहचान,
तो अब सबको जाओ चीन्ह
धीरे-धीरे,
जो हैं
तुम्हारे साथ
ज्येष्ठ पिता-माता,
बुआ-फूफा,
मासी-मौसा,
मामा-मामी
भ्राता-भगिनी-भावज।
कुछ मित्र मेरे,
कुछ तुम्हारे पिता के
जो लगेंगे तुम्हारे
काका-काकी
और आस-पड़ोस के कई और सम्बन्धी,
करो इन्हें प्रणाम अंगजे।

हे नन्दे!
इन्हीं के मध्य है रहना तुम्हें
सामंजस्य के साथ,
यही कहलाते हैं समाज-सिन्धु सभी,
जो सुन्दर भी हैं,
और घृणित भी,
किन्तु
रहना ही पड़ता है,
साथ उनके
लाँघना ही पड़ता है
चाहे या अनचाहे भी।

हे पुत्रे!
और जो देख रही हो
तुम मिट्टी,
हरीतिमा,
जल, वायु,
जन-जीवन चारों ओर
यह हमारी भूमि है,
भारत-भूमि
तुम्हारी मातृभूमि,
हमारा राष्ट्र,
तुम्हारा राष्ट्र
करो प्रणाम इस धरती को;
और गौरवान्वित हो
कि इसी मिट्टी में मिला है जन्म तुम्हें;
यही मिला है तुम्हें,
एक राष्ट्र के रूप में।

अतः हे तनुजे!
इन सबको प्रणाम कर
उतर जाओ प्रेम भरे इस कुरुक्षेत्र में
स्व-नामानुसार कृष्ण बनकर,
और अर्जुन भी,
उठाओ
पांचजन्य भी
और
गाण्डीव भी तुम ही
कि करना मात्र तुम्हें ही हैं,
कोई और कर्ता न आएगा
अतिरिक्त तुम्हारे।

हे जगत!
अपने माता-पिता के चरणों में
दण्डवत के पश्चात
माता-पिता महों को नतमस्तक होते हुए
आप सभी को प्रणाम करती हूँ।
मैं 'सुमनार्थी कृष्णा',
आज से,
इस सुन्दर जीवन को;
जीवन के लिए
वरण करती हूँ।
आशीष दो
कि मैं अपने कर्तव्य-पथ पर,
रहूँ अडिग सदा,
परिस्थिति चाहे कोई भी आए।
प्रणाम!

19.8.22

जय श्रीकृष्ण हरे!

जय श्रीकृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे
भक्तन के दुःख सदा प्रभु जी
भक्तन के दुःख सदा प्रभु जी
बस एक पल में टरे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

तेरी शरण में जो भी आया गिरिधर
तेरी शरण में जो भी आया गिरिधर
वो भव-सिन्धु तरे
वो भव-सिन्धु तरे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

धर्मन की रक्षा की खातिर
धर्मन की रक्षा की खातिर
रूप विभिन्न धरे
रूप विभिन्न धरे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

दुष्टन से वसुधा को बचाने
दुष्टन से वसुधा को बचाने
युद्ध महा युद्ध करे
युद्ध महा युद्ध करे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

दीन-हीन मित सुख की खातिर
दीन-हीन मित सुख की खातिर
उसके भण्डार भरे
उसके भण्डार भरे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

प्रेम-बीज धरणी में धरकर
प्रेम-बीज धरणी में धरकर
जग मय प्रेम करे
जय मय प्रेम करे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

गोपियन को संग प्रेम को कान्हा
गोपियन को संग प्रेम को कान्हा
महा महा रास करे
महा महा रास करे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

तुम हो जग के कर्ता धर्ता
तुम हो जग के कर्ता धर्ता
तुम ही सब काज करे
तुम ही सब काज करे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

मैं दीनन में दीन हे केशव
मैं दीनन में दीन हे केशव
शरण तुम्हारी परे
शरण तुम्हारी परे
जय श्री कृष्ण हरे
जय जय श्री कृष्ण हरे

16.8.22

बेटी का आना

कोई भी बेटी,
बेटी की चाहत में नहीं आती
न दादी-दादा की,
न बुआ-फूफा की,
न मौसी-मौसा,
न नानी-नाना,
न किसी भी सम्बन्धी की,
न ही वह चाहत होती है,
समाज की,
अधिकतर माँ-बाप की भी 
चाहत नहीं होती है
बेटी|

बेटी का आना अपशगुन है,
अभिशाप है,
कलंक है,
बोझ है|

बेटी का आना
प्रतीक है,
सिकुड़ी हुई नाक,
चढ़ी हुई भौंहों,
लाल-लाल रक्तिम आँखों
माथे पर पड़े बल का|

बेटी का आना
ताना है माँ के लिए
अपमान है उसकी कोख के लिए
मातम है और
पसरा हुआ सन्नाटा है
पूरे घर के लिए| 

बेटी का आना
चिन्ता है
ससुराल की
दहेज़ की
सुरक्षा की
तरह-तरह की बातों की
प्रतिष्ठा की
मान की, सम्मान की|

असल में बेटी का आना
आना नहीं,
रोना होता है| 

बेटियाँ,
पहली हों
या आख़िरी,
वे अवांछित और अनिच्छित ही होती हैं
और 
वे जब भी आती है
बेटे की ही चाहत में जन्मती हैं|

30.7.22

बुलडोज़र

कुछ सालों पहले की बात है, शहर में सड़क किनारे एक विलक्षण वाहन खड़ा था।

देखते ही पाँच वर्षीय बालक झुल्लू ने आश्चर्य से अपने पिता से पूछा, "बाबू! ई कवन गाड़ी ह, जवने में, केवल डराइबर बइठल?"

"बउआ! एकरा हथिसुड़वा कहल जाला, एकरा से पहाड़ खोदल जाला, डहर बनावल जाला, नया निर्माण करल जाला। तहरा गाँव के जब पक्का सड़क बनी त तहरा गाँव में भी आई।" पिता ने बड़े ही प्यार से झुल्लू को बताया।

एक दिन सुबह-सुबह की ही बात है, पैतीस वर्षीय झुल्लू अपने दोस्त इकराम के साथ खड़ा था, उसके गाँव में वही हथिसुड़वा आया है, झुल्लू खुश है, क्योंकि कल ही उसने सरपंच से शहर और गाँव के बीच बाधा बन रहे पहाड़ को काट, गाँव में सड़क बनाने के लिए तीखी बहस की थी। अब उसको गाँव में सड़क बनने का सपना साकार लगा ही था कि बुलडोज़र चढ़ बैठा उसके घर पर और क्षणभर में मलबा हो गया उसका और इकराम का घर।

झुल्लू की बिटिया, वही सवाल कर रही है झुल्लू से, जो उसने अपने पिता से पूछा था, लेकिन झुल्लू का उत्तर था, "बिटिया! एकरा बुलडोज़र कहल जाला, जवने के देस कानून के छाती पर चढ़ा के लोगन के घर गिराव जाला।"

पापा! हमारी गलती क्या है कि घर गिरा दिया हमारा? बिटिया! कल तहार बाऊ, माने कि हम आ तहार इकराम चचा सरपंच से ओकरा गलत बात न माने खातिर अड़ गइल रहली जा। सरपंच इहवाँ के बड़का अदमी ह आ जड़बुद्धि, घमण्डी, जातिवादी, धरमवादी ह, ऊ अपना ख़िलाफ़ बात बर्दाश्त ना करेला, उहो हम जइसे छोटका लोगन से। जवन अदमी के पास बुद्धि ना होखेला,

ऊ अपना ताकत देखावेला।"

तो पापा! गाँव के बाकी लोग क्यों नहीं रोक रहे? बिटिया दुःखी मन से पूछती है। लाचार झुल्लू और इकराम जब तक बिटिया को जवाब देते, उनको गोली लग चुकी थी, बिटिया सन्नाटे में कभी उन्हें देखती, कभी गाँव वालों को, जिन्होंने झुल्लू और इकराम के एनकाउंटर के लिए पुलिस बुलाया था, और एक को इलज़ाम दिया सरपंच के पाटीदारों पर पत्थर चलाने का, और झुल्लू को ज़मीन हथियाने का।

पाँच साल की बिटिया अब बेघर, बेबस, लावारिस सड़कों पर खड़ी भीख माँग रही है। वह सरपंच के ख़िलाफ़ कानूनन मुकदमा भी नहीं कर सकती, क्योंकि कानून का एनकाउंटर कर चुकी थी पुलिस, और बचे हुए को बुलडोज़र रौंद चुका था, कई बार गाँव के कई लोगों के घरों पर चढ़ कर, जिसने भी सरपंच के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी।

अब इस गाँव में कई महिलाएँ और बच्चे सड़कों-चौराहों पर या तो भीख माँग रहे हैं, या बेच रहे हैं, पेन डायरी सस्ते दामों में।

सरपंच सुशासन और गाँव ने सर्वोत्तम व्यवस्था के नाम पर पद्म पुरस्कारों से सम्मानित हो रहा है।

जिगर कहाँ से लाओगे

मुझसे नज़र तो मिलाओगे
पर जिगर कहाँ से लाओगे

जो दग़ा हमसे किया है
वो ख़बर कहाँ मिटाओगे

पीठ-पीछे जो रखा है मेरे
वो खंजर कहाँ छुपाओगे

छुप के जो दफ़नाया है
मेरी कबर कहाँ दबाओगे

दर्द चीखेगा सरे बज़्म मेरा
अपना हशर कहाँ ले जाओगे

शब-ए-ख़ात्मा होने को है
कहो वो सहर कहाँ बुझाओगे 

14.7.22

धर्म

ले लो ले लो
क्या बेचते हो भाई?
मैं धरम बेचता हूँ सरकार।
धरम?

हाँ जी धरम;
जिसे दीन, मज़हब रिलीजन कहते हैं,
जो तिलक, टोपी, क्रॉस
और पगड़ी में दिखाई देता है,|
जिसका प्रतीक,
गाय, सुअर या बकरा होता है,
जो केसरिया, हरा, नीला, लाल होता है,
जो मूँछों, दाढ़ियों से पहचाना जाता है।
अच्छा-अच्छा
जो
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघरों में
रहता है,
जो अल्लाह, राम,
जीजस के नाम से पुकारा जाता है?

हाँ जी वही धरम।
चाहिए आपको?
चाहिए तो था,
पर बड़ा मँहगा होगा?
क्या क़ीमत लगाई इसकी?

हे हे हे!
अरे हज़ूर!
मँहगा?
वह भी धरम?
अजी छोड़िए।
इससे सस्ता तो कुछ हो ही नहीं सकता।
ये कोई डीज़ल, पेट्रोल, रसोईं गैस थोड़े न है,
न ही यह थाली की रोटी है,
यह तो धरम है जी,
आज के दौर का सबसे सस्ता माल।

यह महँगा हुआ करता था,
पिछले ज़माने में,
हमारे दादा-परदादा के।
अच्छा!
क्या क़ीमत लगाई?

ख़ून।
ख़ून?
जी हुज़ूर,
ख़ून, लहू, रक्त, ब्लड।
माफ़ करो,
मैं अभी हाल ही में रक्तदान कर आया हूँ;
तो तुम्हारा माल मैं नहीं ख़रीद पाऊँगा।

अरे सरकार!
कौन माँग रहा है आपसे आपका ख़ून?
तो फिर?
आप तो बस टोपी वाले को,
तिलक वाले से,
तिलक वाले को क्रॉस वाले से,
या ऐसे ही अलग-अलग
निशान वालों को,
इनके अपने-अपने धरम के
ख़तरे में होने का दे दीजिए हवाला
भिड़ा दीजिए,
इन्हें एक-दूसरे से,
फिर देखिएगा,
कैसे ख़ून बहाते हैं ये-
सड़कों पर, चौराहों पर, घरों में
या कहीं भी।
ये रक्तदान नहीं,
रक्त की नदियाँ बहा देंगे।
ये जान बचाने के लिए नदी नहीं,
जान लेने के लिए
लहू तैरकर लहू बहाएँगे।
आप तो बस अपने महलों से
देखते जाइएगा ये नज़ारा,
और पिलाते रहिएगा ख़ुराक़
भाषणों की दूर से ही।
ये वो चीज़ है मालिक,
जिसे आप ख़ुद मानें-न-मानें,
पर लोग आपकी दुहाई देकर
न केवल मानेंगे ही,
बल्कि दूसरों को मनवाने के लिए,
उनके घरों से
ख़ून-ही-ख़ून बहाएँगे।

अरे वाह!
कुछ बेमोल-सी जानें,
और थोड़े-से ख़ून के बदले,
इतनी ख़ूबसूरत चीज़?

लाओ भाई मुझे दे दो।