शब्द समर

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29.9.14

लोकगीत-रसीले नैना

चित्र साभार-गूगल 
इस गीत की प्रथम पंक्ति मैंने अपने बाल्यकाल में अपनी दीदी से सुना था| आज अचानक याद आ गया तो बाकी की पंक्तियाँ स्वतः ही लिख डाली| हो सकता है प्रमुख गीत के शब्दों से थोड़ा-बहुत इसका संबंध हो रहा हो तो इसके प्रमुख रचनाकार से क्षमाप्रार्थी हूँ|

सखी पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना
गुइयाँ पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना
रसीले दोऊ नैना, नशीले दोऊ नैना
रानियाँ पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना

मोरे नैनों का रस छलके, जब चालूँ मैं हलके-हलके
मैं कमरिया से बलखाऊँ, सम्हाले भी सम्हले ना
प्यारी पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना


पनघट पर बइठे छैला, हाथों लेके ढेला
मोरि गगरी कैसे बचाऊँ, उका काम है फोरते रहना 
बीबी पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना

कहने को मोरे जेठा, दुअरा में आके बैइठा
ओके लालच से डर जाऊँ, छुपा के मोहे रखना
बिट्टी पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना

मोर बालम बड़े छबीले, मोर बाँह कभी न ढीले
उनके बोसे में घुल जाऊँ, पनिया की सुद्ध रहे ना
लाला पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना


दिन चार बची जिंदगानी, मैं रोकूँ कइसे पानी
किस-किस से नजर बचाऊँ, बैरी ही मोरे नैना
रजनी पनिया कैइसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना

13.9.14

बारह सौ छब्बीस बटा सात-विषय-संक्षेप

कहानी-परमात्मा का कुत्ता                लेखक-मोहन राकेश     नाट्य रूपांतरण-जितेन्द्र मित्तल
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१२२६/७ मोहन राकेश द्वारा लिखित कहानी ‘परमात्मा का कुत्ता’ का नाट्य रूपांतरण है| अगर पैनी नज़र से देखा जाय तो कुत्ता और आम आदमी में गहरी समानता है| इसी समानता को ध्यान में रखते हुए मोहन राकेश ने यह कहानी लिखी| साधु सिंह जो कि अधेड़ उम्र का हो चुका है और पिछले छः वर्षों से अपने ज़मीन के लिए सरकारी दफ़्तर के चक्कर काट रहा है किन्तु न तो आज तक उसे उसकी ज़मीन मिल पाई न ही उसका मुआवज़ा| इतने दिनों में अगर उसे कुछ मिला था तो वह था एक नाम| एक ऐसा नाम जिससे उसे बेहद घृणा हो गई है| वह नाम है १२२६/७ जो कि उसकी फ़ाइल का नाम है और अब वह इसी नाम से जाना जाता है|
१२२६/७ एक बेबाक, बेतुका, बदज़बान और कथित समाज का असम्बद्ध व्यक्ति है| १२२६/७ फैज़ अहमद फैज़ का आवारा कुत्ता है जो एक टुकड़ा रोटी की आशा में कभी इस बाबू के पास तो कभी उस बाबू के पास चक्कर कटता रहता है किन्तु वह टुकड़ा उसे कभी नज़र नहीं आता| अंत में जब उसे एहसास होता है कि वह ‘परमात्मा का कुत्ता है और वह भौंक सकता है तो फिर भौंकता है और इतना भौंकता है कि मालिकों की चूलें हिल जाती हैं|
१२२६/७ एक आम आदमी के जीवन का संघर्ष और आक्रोश का प्रतिबिम्ब है| १२२६/७ छः वर्षों से निरंतर चल रहे संघर्ष, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में समाज की विसंगतियों, सरकारी कार्यालयों की अफ़सरवादी मनोवृत्ति, लालफीताशाही और झूठी बनावट के साथ-साथ अमानवीय कृत्यों और भ्रष्टाचार के प्रति वितृष्णा एवं झुंझलाहट का प्रारूप है जो अफ़सरों के सामने तीखी लय में तेज़ धार के साथ प्रकट होती है| चपरासी और बाबुओं के साथ का बर्ताव एवं उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया रंगमंचीय शक्ति को बढ़ाती है|
१२२६/७ व्यक्ति की जिजीविषा और उसके लिए दिन भर की भटकन, शरीर के रक्तचाप की भाँति इतनी तीव्र है कि उसे आसानी से महसूस किया जा सकता है| परिवेश-बोध और व्यवस्था के प्रति असंतोष, आदमी के आदमी न रह जाने कि व्यथा, मात्र संख्या वह भी लम्बी, निरर्थक रह जाने कि पीड़ा, आम आदमी के आक्रामकता के संकेत को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है| व्यक्ति अपनी पहचान अपने परिजनों द्वारा दिए हुए नाम से करना चाहता है किन्तु यहाँ साधु सिंह अपने नाम का अस्तित्व बचाने कि जद्दोजहद में लगा हुआ है| १२२६/७ अस्तित्व की लड़ाई के लिए अपना वही रूप प्रस्तुत करता है जो रूप ‘निराला’ का ‘कुकुरमुत्ता’ ‘गुलाब’ के सामने| 
१२२६/७ वर्तमान समाज की एक लम्बी लड़ाई है जिसे न तो शब्द बाँध सकते हैं, न अंक, न ही जीवन| यह लड़ाई हर उस समय छिड़ सकती है जब मनुष्य को किसी और के कारण ख़ुद के शून्य होने का बोध होने लगेगा|

11.9.14

*संतुलित भोजन*

आज एक शिक्षक से बात हो रही थी|  उस घटना को मैंने एक कहानी का रूप देने के प्रयास किया है| इसमें नाम  तो काल्पनिक है किन्तु यह पूरे भारत वर्ष की एक अकाट्य सच्चाई है
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कक्षा में विज्ञान के शिक्षक पढ़ा रहे हैं "बच्चों आपको संतुलित भोजन करना चाहिए| संतुलित भोजन? उसी कक्षा में बैठा राजू सोच रहा है| ये संतुलित भोजन क्या होता है? वह उक्त अध्यापक से पूछना चाहता है परन्तु डर के मारे नहीं पूछ पाता किन्तु छुट्टी के पश्चात् भी उसके मन में एक ही प्रश्न बार-बार कौंधता रहता है "ये संतुलित भोजन क्या होता है?"
राजू पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला दस-ग्यारह वर्ष का बच्चा है जिसके स्वास्थ्य के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि यदि उसका कपड़ा उतार दें तो पसलियों को सरलता से गिना जा सकता है| गणित के अध्यापक गिनती सिखाने के लिए माँस से लिपटी हड्डियों का प्रयोग कर सकते हैं| वज़न इतना कि अगर वह खुले मैदान में सो जाए तो चील कौआ भी उठा ले जा सकते हैं और पंचतंत्र की 'कंटकम कंटकेनैव' कहानी चरितार्थ हो सकती है|

वह घर पहुँचता है| पहुँचते ही माँ से पूछता है, "माँ! यो संतुलित भोजन के होवे है (माँ! ये संतुलित भोजन क्या होता है)? माँ अनपढ़ वह क्या उत्तर देती बोली म्हाने के बेरो? होतो होग्गो कुछ (मुझे क्या पता? होता होगा कुछ|) बच्चे के मन में यह प्रश्न ज्वार-भाँटे की भाँति उछाल मरने लगा| सांझ के समय रोटी को पानी में सानते हुए उसने अपने पिता से पूछा, बापू यो संतुलित भोजन किण बोल्यां हाँ (बापू ये संतुलित भोजन किसे बोलते हैं?) के बेरो बेटा अपां तो रोजिना ही यो लूण-रोटी खावाँ हां| कदं-कदं दाळ-दूल भी मिल ज्यास्सी| जणा तू काल अपने गुरूजी ने जाके बूझ ले (क्या पता बेटा| हम तो रोज यही नमक-रोटी खाते हैं| कभी-कभी दाल- भी मिल जाती है| तू कल अपने शिक्षक से पूछ लेना|)

राजू कुछ नहीं बोलता| चुपचाप खा कर सोने चला जाता है किन्तु उसका मन तो बार-बार एक ही प्रश्न से जूझ रहा होता है, ये संतुलित आहार क्या होता है? कैसा होता होगा? कैसा दीखता होगा? कौन लोग खाते होंगे? क्या मुझे भी कभी मिलेगा? क्या पता जो मैं रोज खाता हूँ वही संतुलित भोजन हो? उहूँ होगा कुछ| पर नींद उसकी बैरी हो गई| रात भर आँखों से बस एक ही बात के लिए उसे परेशान किया वह थी संतुलित भोजन|

दूसरे दिन उसने ठान लिया कुछ भी हो मैं तो गुरूजी से पूछूँगा ही| क्या करेंगे मारेंगे? मुर्गा बनाएंगे? ठीक है जो करना हो कर लेंगे लेकिन मैं पूछूंगा| कक्षा में पहुँचते ही वह पूछ बैठा गुरूजी संतुलित भोजन किसे कहते हैं? गुरूजी ने उसकी ओर देखा| बाकी बच्चे भी उसके अनपेक्षित प्रश्न से हँसने लगे| ये पाठ तो कल ही समाप्त हो गया फिर भी यह वही प्रश्न पूछ रहा है| अध्यापक बताने लगे- नकम-रोटी,  पानी में भीगी हुई बाजरे की रोटी, चकौड़े का साग और सवां-कोदो की रोटी यही सब संतुलित भोजन होते हैं| फिर गुरूजी ने उससे  पूछा-तुम तो रोज़ यही खाते हो न राजू? उसने सीना तान कर जवाब दिया- हाँ गुरूजी| तब उन सभी हँसने वालों की आवाज़ बंद हो गई| राजू कक्षा में उपस्थित सभी बच्चों की ओर वह सगर्व देख रहा था तभी उसके कानों में ध्वनि जाने लगी, बेटा! सुबह नाश्ते में पोहा, ब्रेड, मक्खन, टोस्ट, पराठे, फल, फलों का रस| दोपहर के समय भात-दाल, रोटी, सब्ज़ी, घी, दही| रात में रोटी, हरी सब्जियाँ और सोते समय दूध जब ये सब मिलाकर भोजन में लिया जाता है तो उस भोजन को संतुलित भोजन कहते हैं| जो लोग पसंद करते हैं उनके लिए अंडा, मांस या मछली इत्यादि भी संतुलित भोजन का ही प्रकार है|
राजू के कानों में ये सारे शब्द पड़ रहे थे और अचानक उसके मुँह से एक और प्रश्न निकल पड़ता है "गुरूजी क्या इतना सब कुछ एक बार में ही किसी को खाने के लिए मिल सकता है?|