शब्द समर

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31.1.13

मृगनयनी



तेरे हुस्न की तारीफ करूं,
ये मेरी की औकात नहीं.
लिखने को जो दे साथ जिंदगी भर,
कोई ऐसा कलम-दावत नहीं.
कहना चाहूँ मिलकर तुमसे,
तो इतनी बड़ी मुलाक़ात नहीं.
बखान करूँ अगर कसकर तुमको बांहों में,
तो इतनी भी लम्बी रात नहीं.
अब तुम्हें क्या लिखूं ऐ मृगनयनी’,
विद्यार्थी के पास कोई बात नहीं.

18.1.13

उन्मत्त मेघ



आज मेघराज,
टकरा रहे हैं रजत चषक,
अपनी
तड़ित, चपला, चंचला अप्सराओं संग
और
कर रहे हैं घोर नाद
अखिल नभ मंडल में.
होकर उन्मत्त
कर रहे हैं नर्तन
समीर सितारी धुनों पर.
टपकाते जा रहे हैं
मधुरस
धरणीसुत के
स्वर्णकलश में

12.1.13

नग्नता से नंगेपन तक



मैं जब कक्षा छठी में था तब मुझे पढ़ाया गया था कि पृथ्वी जब उत्पन्न हुई तब वह आग के गोले के समान थी। धीरे-धीरे वह सूर्य से दूर होती गई और उसका तापमान घटता गया। कालान्तर में अभी तक जितने शोध हो सके हैं या जितनी खगोलशास्त्रियों ने जानकारी जुटाई उसके अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक ऐसी ग्रह है जिसमें जीवन संभव है।
इसी प्रकार अनेक दूसरे जीवों की उत्पत्ति के पश्चात् मनुष्य की उत्पत्ति हुई। इतिहासकारों के अनुसार जब मनुष्य वानर से नर बना, तब वह निर्वस्त्र था। उसे वस्त्र पहनना नहीं आता था या यूं कहें कि तब वस्त्र क्या होता है, उसे पता भी नहीं था। समय बीतता गया मानव में बुद्धि का विकास हुआ उसने बड़े-बड़े आविष्कार किये और आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह युग कलयुगहै। कलयुग अर्थात कलमाने यन्त्र’, ‘युगमाने समय
चक्र की आकृति गोल होती है और संयोग से समय और पृथ्वी की आकृति भी गोल ही है। प्रतिदिन घड़ी की सुई जहां से यात्रा प्रारंभ करती है एक निर्धारित काल के पश्चात् वह उसी स्थान पर पहुंचती है तथा एक क्षण भी व्यर्थ किये बिना वह अगली यात्रा प्रारंभ कर देती है। सृष्टि के निर्माण से अब तक समय रुका नहीं है और वह निरंतर गतिमान है। अपने साथ असंख्य परिवर्तन लिए यह समय असंख्य निर्माण व विनाश  का साक्षी है।
मेरे पूर्वजों ने जो अपना समय बताया था या अभी तक का जो जीवन मैंने जिया है  तथा इस संसार का जो रूप देखा है तो पिछले 10 वर्षों में स्वयं ही अपने व आसपास में कई परिवर्तन देखा है। जब उसे सोचता हूं तो जो परिवर्तन हो रहे हैं उसमें तीव्र गति से पीढ़ियों में अन्तर दिख रहा है। रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, विचार, शौक इत्यादि हर क्षेत्रों में।
इन सभी परिवर्तनों के अतिरक्तित जो प्रकृतिक परिवर्तन दिख रहे हैं वे एक बहुत बड़े विनाश  की सूचना देते हुए से प्रतीत हो रहे है। आज समूचा मानव समाज हो रहे जलवायु परिवर्तन व बढ़ रहे    वैश्विक -ताप से भयभीत है। पश्चिमी देशों में तथा कुछ-कुछ भारतीय महानगरों में अब पूर्ण वस्त्र पहनने वालों की तदात घटने लगी है। पुरुष हो या स्त्री वस्त्र पहनने की रुचि लोगों की कम ही दिखाई पड़ रही है।
कहने का तत्पर्य यह है कि समय जहां से प्ररंभ होता है उसी स्थान पर पहुंचता है। पृथ्वी सूर्य से अलग होकर आग के समान थी तो अब तीव्रता से बढ़ रहा वैश्विक-ताप इसे पुनः उसी स्थिति में पहुंचने का द्योतक लग रहा है वहीं वस्त्र विहीन आदिम मानवों की भांति वर्तमान मानव समाज धीरे-धीरे उसी दिशा की ओर अग्रसर हो रहा है। गोल धरती, गोल रह जायेगी किन्तु वह पुनः अपने चरम ताप को प्राप्त  कर लेगी और नंगा मानव अपने पूर्वजों की भांति नंगा हो जायेगा इस सृष्टि से मानव नामक प्राणी का पुनः सर्वनाश  हो जायेगा। यह नग्न  से नंगेपन की यात्रा है। मनुष्य निर्वस्त्र  पैदा हुआ तो उसका विनाश  भी नंगा ही होगा। यही काल की गति है जो गोल है न आदि है न अंत।

प्रेम की नैया



संबन्धों में महत्वऔर विवशता की समझदोनों का अपना विशेष स्थान है। एक, व्यक्ति अपने निकटस्थ को जो महत्वदेता है, यह उसके संबन्ध स्थापन की इच्छा पर निर्भर करता है तथा दूसरा, अपने समीपस्थ की मजबूरी को कितना समझता है तथा दोनों पर  एक-दूसरे की  विश्वसनीयता कितनी है? दो संबन्धियों में ये दोनों गुण हों तो निःसंदेह संबन्ध गोंद चिपकी हुई वस्तु की भांति जन्म-जन्मान्तर तक प्रगाढ़ रहेंगे।
 उदाहरण स्वरूप और दोनों की मित्रता थी किन्तु न दोनों एक-दूसरे  की विवशता समझते थे न ही एक-दुसरे को कोई विशेष महत्व ही दिया। इसी कारण दोनों का अहंकार बीच में आ गया और परिणामतः दोनों का जीवन मार्ग पृथक हो गया।

  वहीं एक और उदाहरण लें कि और के बीच मित्रता है। इनमें ’ ‘को बहुत ही महत्व देता है किन्तु उसकी मजबूरी नहीं समझ पाता। जबकि ठीक इसके विपरीत है वह की लाचारी तो समझता है किन्तु उसे महत्व नहीं देता। यदि व्यक्ति किसी को स्व से अधिक महत्व देता और सामने वाले से आपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो यह बात उसे दुःख पहुंचाती है तथा उसके स्वाभिमान को ठोकर सी प्रतीत होती है  परिणामतः संबन्धों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

   के साथ कुछ ऐसा ही है। को लेकर वह बेहद चिंतित रहता है। वह चाहता है कि मैं जो भी करूं-कहूं तुरंत उसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया दे किन्तु के लिए तथा उसकी भावनाएं या उसकी गतिविधियां उतनी महत्वपूर्ण नहीं लगतीं। के लिए की अपेक्षा और भी कई सारी बातें या कार्य अधिक महत्वपूर्ण लगते है अतः वह की ज्यादातर अवहेलना करता रहता है। चूंकि  ’ ‘की मजबूरी समझता है अतः उसे से कोई समस्या नहीं होती किन्तु के लिए द्वारा अवहेलित किया जाना संसार की सबसे बड़ी घटना लगती है इसलिए वह से सदैव असंतुष्ट रहता है।

यहीं ठीक एक उदाहरण और का है। दोनों एक-दूसरे को स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं  तथा एक-दूसरे की विवशताओं को भी समझते हैं। यही कारण है कि दोनों के संबन्धों में कभी खटास नहीं आई।  दूर-दूर रहकर भी दोनों प्रसन्न रहते हैं। दोनों का एक-दूसरे पर अटल विश्वास है।
   इन्हीं तीनों उदाहरणों से यह प्रमाणित तो हो ही रहा है कि महत्वऔर विवशताका संबन्ध में कितना योगदान है। इन दोनों  के आलावा दो और महत्वपूर्ण भाव हैं 'विश्वास' तथा  अहंकार। इनमें जहां विश्वाससंबन्ध को प्रगाढ़ता की ओर प्रशस्त करता है वहीं अंहकारविच्छेद करने के लिए आग में घी का काम करता है।
’,‘और के साथ समस्या यह है कि वे अपने संबन्धी से अधिक विशिष्टता अहंकारको देने लगते हैं जिससे उनके संबन्धों में सदैव जटिलता बनी रहती है। वहीं ’, ‘और विश्वास की विशिष्टता के बल पर गहरे व अटूट संबन्ध स्थापित कर पाते हैं।
  इन तीन प्रकार के संबन्धों में दूसरे संबन्धी और के संबन्ध और के श्रेणी तक आसानी से पंहुच सकते हैं किन्तु इसके लिए दोनों को अपनी भावनाओं को एक-एक चरण आगे बढाना होगा। सहृदीय संबन्ध तभी बनेंगे जब महत्व’, ‘विवशता की समझतथा विश्वासके पराग पड़ेंगे क्योंकि, "प्रेम की नैया राम के नहीं विश्वास के भरोसे तैरती है"।