शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

26.2.14

षड्यंत्रकारी

जन अज्ञान, और तंत्र बेजान,
देखो टोपीधारी कैसे टोपी पहना रहे|
आम रह गये आम, वो लें गुठली के दाम,
टोकरे से घोषणा के रस टपका रहे|
कि भूख रही चीत्कार, करे 'विद्यार्थी' हाहाकार,
सैफई में ख़ान जी कमर मटका रहे|
दे के चाय की बहार, और दूध की फुहार,
मोदियापा कर पप्पू जी मल्हार राग गा रहे|

24.2.14

मंज़िल के पुजारी

जितना गहरा हो सागर को झेलेंगे हम
जितनी ऊँची हो चोटी को पा लेंगे हम
हम जवाँ हैं जवानी की ये उम्र है
ज़िंदगानी को मस्ती से खेलेंगे हम

कौन कहता है कोई बड़ा काम है
अपनी मुट्ठी से किसका बड़ा दाम
एक क़ीमत जो हमने लगा दी कहीं
सारी दुनिया को उतने में ले लेंगे हम

एक वादा जो हमने किया जब कभी
वो इरादा न मुड़ता है पीछे कभी
लाख आएँ  त्रिलोकी के योद्धा मगर
पाँव अंगद का ज़मीं पर टिका देंगे हम

हम थिरकते है घुँघरू की झंकारों पर
होते मदहोश होठों के इशारों पर
पर अगर राह में कोई अंगार हो
पाने मंज़िल उसको भी बुझा देंगे हम|

8.2.14

हैपी हग डे



साभार-गूगल,
आज हग दे|
फिर साल भर इन्तज़ार करना पड़ेगा|
प्रेमिका की बाँहों में
लिपटकर हगो,
धीरे-धीरे हगो, या झपटकर हगो,
पर खूब हगो|
हग का भी, 
अपना एक अलग ही आनन्द है|

कामदेव भी आज के दिन
लजा-लजा कर हग रहे होंगे,
और रति भी,
किन्तु आज दोनों हगेंगे|
काश! कि मेरी भी कोई प्रेमिका होती,
मैं भी उसे बाँहों में
जकड़कर खूब हगता,
और वह भी हगती|


बाग़ मेंबगीचा में, घर मेंदूकान में
अगवाड़े में-पिछवाड़े में
,
झाड़ी में
झुरमुट में
अरहर के खेत में

गेहूँ के खलिहान में
,
आरी में
मेड़ में
छुप कर हगो|


चाहे वर्तमान
खुली संस्कृति के अनुसार
,
अगर कंज़र्वेटिव नहीं हो तो
,
खुलेआम सड़कों पर
,
माता-पिता के सामने
,
बड़ों के सम्मान में
,
कालेज प्रांगण में
,
कक्षा में, घर के आँगन में
,
छात्र शिक्षकों के सामने
,
और शिक्षक छात्रों के सामने
हग डालो|


बैठ के हगो,
या खड़े-खड़े
,
झुक कर हगो,

या पड़े-पड़े,
पर आज के दिन ज़रूर हगो|

चूम-चूम के हगिये,
झूम-झूम के हगिये
,
काँख-काँख के हगिये,
पाँख-पाँख के हगिये|
कई दिनों बाद वाले
अपने साथ टिशू-शुशू
पेपर ज़रूर रखना,
न जाने फुर्क़तों का पानी
कितना निकले,
तो उसे पोछेंगे कैसे
?

मेरे अधकचरे हिन्दी भाषी साथियों!
बुरा मत मनाना
मेरे 
'हगनेशब्द से.
घिन भी मत करना 
'हगनेकी प्रक्रिया से|
हिन्दी में यह शब्द
अवश्य असामाजिक है,
लेकिन अंग्रेज़ी के गुलामों के लिए
भरी सभा में सभ्यता का प्रतीक है|
मैं भी सभ्य बन रहा हूँ,
और अंग्रेज़ी में हग रहा हूँ,
क्योंकि जिस तरह
अंग्रेज़ी के 
'रिपोर्टशब्द को हिन्दी के
बहुवचन में 
'रिपोर्टें'
डॉक्टर को 'डॉक्टरों'
,
इस्तेमाल किया जाता है,
उसी तरह से मैंने
अंग्रेज़ी के 
'हगको
हिन्दी में हग दिया है|

मैं जिस जगह रहता हूँ
वहाँ अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है,
मजबूरी में मुझे इस
भाषा को हगना पड़ा है|
अब मैं आये दिन अंग्रेज़ी में ही
हगने लगा हूँ|
हगना हिन्दी में हो
या अंग्रेज़ी में
इससे मन तो   
हल्का हो ही जाता हैं
,
इसे वैज्ञानिकों ने भी
प्रमाणित कर दिया है|
तो फिर पक्का न
आज हग दें
?

हे बारह फ़रवरी!
तू साल भर बाद ही क्यों आती है,
जबकि मैं हर रोज़ हगना चाहता हूँ|
चलो साथियों मैं तो सुबह से
इन्तज़ार कर रहा हूँ,
कौन है,

जो मेरे साथ हगना चाहता है?
आओ तो वेलकम
,
जाओ तो भीड़ कम|

2.2.14

ब्राह्मण का विधर्मी प्रेम

जितेन्द्र देव पाण्डेय 'विद्यार्थी'
भाई मैं हिन्दू हूँ. तिस पर उच्च कुल गोत्र ब्राह्मण. बचपन से घर-गाँव और आस-पास के परिवेश से संस्कार मिले हैं कि बिना नहाए-पूजा पाठ किये अन्न-जल ग्रहण ना करूँ. किसी निम्न जाति के व्यक्ति के छुए अन्न-जल से परहेज करूं. अन्य जाति तो ठीक किन्तु चमारों और धैकारों (डोम) लोगों को छुऊँ भी नहीं अन्यथा अपवित्र हो जाऊंगा. मुसलमानों से कोसों दूरी बनाकर रहूँ, ये लोग बड़े ही कट्टर और कसाई होते हैं, हिन्दुओं को पसंद नहीं करते. 
मुझे जो बातें लोग बताते थे, जिनसे परहेज करने कि बातें मेरे कानों में पड़ती थीं वे लोग भी मुझसे यही बात कहते थे. "नाहीं बाबू हो तोहरे बड़े मनई लाग हमरन क छुअल खाब त तोहार जाति चलि जाई. हमरन से दुरिहाँ रहल कर." जिन्होंने किया मैं उनका नाम नहीं लिखूंगा किन्तु मैंने अपनी आँखों से देखा है कि एक केवट के घर में उसके आटे को लात से कुचल कर फेक दिया गया, उसके चूल्हे में पानी डाल दिया गया था. मैं बचपन से भक्त रहा हूँ. ईश्वर के प्रति सदैव से मेरी श्रद्धा रही है. मैं जब छठी कक्षा में था तभी गीता का पाठ किया था. उसमें पता नहीं क्या लिखा था किन्तु वह मेरा धार्मिक ग्रन्थ है इसलिए उसका पूरा अध्ययन किया था. रामचरित मानस की चौपाइयां तो अभी भी कंठस्थ हैं. विद्यालय में अन्ताक्षरी होती तो कोई मुझे परास्त नहीं कर सकता था. नलकूप पर मैं नहा रहा होता था तो कोई भी खैरवार जाति के घर का व्यक्ति उसके घेरे में खड़ा भी नहीं हो सकता था. विद्यालय में पानी पीते समय चमारों के लड़के दस कदम दूर होते थे. मुसलमान तो मेरे गाँव में नहीं थे हाँ पड़ोस के गाँव समदा में हैं उन्हें पता नहीं किन-किन शब्दों से चिढ़ाते थे. लम्बी सी शिखा और त्रिपुंड तिलक पूरे गाँव और विद्यालय में मेरी निशानी थी. स्मरण आता है कक्षा सातवीं में था. मेरे गाँव के ही एक शिक्षक (नाम नहीं लिखुंगा क्योंकि विवाद का कारण बन सकता है) सामाजिक विज्ञान पढ़ा रहे थे. उसमें था कि किसी से छुआछूत का भाव नहीं रखना चाहिए, सबको मिलजुल कर रहना चाहिए. चाहे कोई भी जाति-धर्म का व्यक्ति हो सब एक समान हैं. जो शिक्षक मुझे पढ़ा रहे थे उन्होंने मुझसे पानी मंगाया. प्रतिदिन जब भी उन्हें या किसी भी शिक्षक को प्यास लगती वे मुझे या मेरे जैसे ही किसी सवर्ण या तथाकथित पानी वाली जाति के ही बच्चे से पानी मंगाते और पीते. इस दिन भी उन्होने मुझसे पानी मंगाया. मैंने धर्मेन्द्र कुमार चर्मकार को भेज दिया वह पानी लाया और पंडीज्जी को देने लगा. तड़ाआअक एक तमाचा उसके गाल पर गूंजा. वह वहीं खड़ा रहा मैं डर गया. मेरा कान पकड़कर उन्होंने उठाया. हम तोहसे पानी मंगाए रली न? वे मुझ पर जोर से गरजे. वे मुझे पीट नहीं सकते थे क्योंकि इसका एक कारण तो मुझे पता है जब मैं अनामांकित था तभी से एक होनहार बच्चे के रूप में पूरे विद्यालय और गाँव में मेरा बर्चस्व था. दूसरा आज तक नहीं पता. क्योंकि किसी बच्चे का होनहार होना उसे उसकी पिटाई से बचा ले यह बात गले नहीं उतरती. मेरा परिवार दबंग भी नहीं है न मेरे माता-पिता हममे से किसी भाई -बहन का पक्ष लेकर विद्यालय में लड़ने ही जाते थे फिर भी? अभी लिखते समय एक कारण ध्यान में आ रहा है वह यह कि कहा जाता है मैं उनका पौपूज्य ब्राह्मण हूँ. उनके घर-ख़ानदान की लड़कियों से मेरे खानदान में विवाह होता है. पौपूज्य ब्राह्मण पर हाथ उठाने का मतलब था सात पीढ़ियों को नर्क में डालना. हो सकता है पाप के भय से न पीटा हो. मैं किसी भी शिक्षक को पंडीज्जी या सर जी कह के नहीं बुलाता था. सभी मेरे गाँव से ही थे अतः कुछ न कुछ रिश्ता होने के कारण मैं उसी संबंध सूचक शब्द से पुकारता था और आप की जगह तुम शब्द का प्रयोग करता था. “तुहिन न अबहिन पढ़ावत रल कि सब एक समान होन. चाहइ कौनउ जाति-धर्म क मनई होंइ. एही से हम एकरेकी पठइ देली.” पूरी कक्षा डरी हुई थी. लेकिन मैं निर्भीकता से बोला. कक्षा में तो बोल गया लेकिन अब डर इस बात का था कि कहीं यह बात भैया को पता चली तो जम के कुटाई होगी. हालाँकि कभी पीटा गया तो नहीं था लेकिन भैया का डर सदैव मेरे मन में भरा रहता था. तब तो सही गलत को समझ भी नहीं पता था. मैंने धर्मेन्द्र से पानी मंगाकर सही किया था या गलत तब मुझे नहीं पता था किन्तु अब सोचता हूँ वह मेरे क्रांति का पहला कार्य था. बड़ा हुआ धर्मों को समझने का प्रयास करने लगा तब समझ में आया ईश्वर मात्र जीव बनता है. मनुष्य, पशु, पक्षी फिर उन सबमें धर्म और जातियों का निर्धारण मनुष्य करता है. ईश्वर कोई एक शक्ति है जो अदृश्य है उसी को लोग अपने-अपने ढंग से पूजते हैं, उसकी इबादत करते हैं. मेरी शिखा, मेरा तिलक मेरे माथे पर रहे या न रहे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. ईश्वर भी समय के वश में है समय जो चाहता है वही करता है. यह जाति-धर्मों के लिए चिल्लाचोट मात्र मनुष्य करता है. मेरी यह समझ बन ही गई और इसी के आधार पर जीवन पथ बढ़ चला हूँ. विद्रोह और मैं दोनों भाई-भाई हैं. जहाँ कहीं अनुचित लगता है मैं तपाक से उठ खड़ा होता हूँ. इसके कई सारे नमूने विद्याद्य, महाविद्यालय और विशेष रूप से माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति के विरोध में प्रस्तुत हो चुके हैं. अनुचित के विपक्ष में बोलने पर कईयों ने मुझे सलाह भी दिया कि इस प्रकार मत बोला करो तुम्हारी छबि धूमिल होती है. मेरा एक ही उत्तर होता है अन्याय होने के बाद क्या छबि का आचार डालूंगा? मैं सीधी में जब पढ़ रहा था उस समय संघ से वास्ता हुआ. भारतीय संस्कृति की झलक और परम्पराओं के निर्वहन का बोझ देख मैं उस ओर आकर्षित हो गया. बचपन से इच्छा थी सरस्वती शिशुमंदिर में पढ़ने की किन्तु परिवार की आर्थिक समस्या थी नहीं पढ़ सका. यहाँ आकर एक अवसर मिला है इससे जुड़ने का सो जुड़ गया. एक लम्बा सा कुर्ता, माथे पर लाल लम्बा तिलक और सर पर लम्बी सी शिखा और वाणी में ओज. यह देख बजरंग दल के ज़िला अध्यक्ष ने मुझे सम्मिलित होने के लिए कहा मैं सम्मिलित हो भी गया. शाखा में प्रतिदिन उपस्थित होने लगा. बड़ा ही आनंद आता. मेरे जुड़ने के सातवें दिवस एक जन भाषण देने बैठे उनका नाम अभी मुझे स्मरण नहीं है. उन्होंने बहुत सारी बातें कहीं जो देशहित में थीं किन्तु एक बात मुझे सुई की भाँति चुभ गई. उन्होंने कहा मुसलमान और इसाईयों को इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं. ये म्लेच्छ होते हैं. इनका वध करने से पुण्य मिलेगा. उसी मंच पर मेरा उन महानुभाव से विवाद हो गया और संघ से मेरा संबंध भी विच्छेद. मैं मानव को मात्र मानव के रूप में देखता हूँ किसी जाति-धर्म के आधार पर नहीं. मैं जब भोपाल में था वहाँ एक मुस्लिम घर में ही रहता था. पूजा करता था और ज़ोर से तीन बार शंख बजाता था. मैंने वहीँ रहकर नमाज पढ़ना सीखा. कलमा तो ज़ुबानी याद हो गया. “लाइलाहा इल्लल्लाह मोहम्मद-उ-रसुल्लाह” अवसर मिलते ही जुमे की नमाज पढ़ लेता हूँ. इस समय भी कई सारे मुसलमान मेरे घनिष्ट मित्र हैं. उन सबसे द्वेष कैसे कर सकता हूँ. मेरे कसी भी हिन्दू घर्म ग्रन्थ में नहीं लिखा है कि मैं मित्र से घात करूँ वरन रामचरित मानस में बाबा तुलसी दास ने लिखा है “जे न मित्र दुःख सुनी होहिं दुखारी. तिनहिं विलोकत पातक भारी.” मुसलमान मेरे मित्र हैं तो मैं उन्हें हानि कैसे पहुंचा सकता हूँ? अभी कुछ दिन पूर्व मेरे जन्मदात्री राजस्थान के पुष्कर में स्थित ब्रह्मा मंदिर में दर्शन के लिए आये. आयु अधिक है अतः मेरा उनके साथ होना आवश्यक है. सो मैं भी उनके साथ था. पुष्कर दर्शन के पश्चात् मैंने उनसे अजमेर शरीफ़ दरगाह चलने का आग्रह किया. मैं डर रहा था पिता जी या माँ की डांट पड़ेगी किन्तु वे पुत्र की इच्छा को पूरी करने के लिए तैयार हो गये. हम अजमेर शरीफ़ गये. माता-पिता भी भीतर तक गये. वहां मुझे ढेर सारा फूल मिला. ईश्वर पर असीम श्रद्धा है फूल रख लिया. नवलगढ़ आया अपने कमरे में लीला बिहारी श्री कृष्ण के चरणों में वह फूल अर्पित कर दिया. मेरी माँ को अन्य जाति-धर्म के लोगों से समस्या होती है और पिताजी तो प्रख्यात पण्डित हैं उन्हें तो होना ही है. मैंने फूल कृष्ण के पास रख दिया और माता-पिता से बोला देखो अगर इसको अल्लाह से कोई दिक्कत होगी तो यह फूल को तुरंत ही लात मार देन चाहिए क्यों जो किसी से घृणा करता है उसे अपने पास नहीं रहने देता किन्तु तब से लेकर आज पन्द्रह दिन हो गये वे फूल सूख कर मुरझा गये हैं लेकिन कृष्ण के चरणों में ही पड़े हैं.