शब्द समर

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23.12.12

भेड़ियों के बीच मेमना



आप लोग मुझे जानते हैं? अरे मैं आपकी भांजी. बहन?
हाँ

मैं आपकी बेटी हूँ जिसके लिए मेरी माँ ने नौ महीने मेरा इंतज़ार किया है. मैं धरती पर आई तब वो गा रही थी,

मेरे घर आई एक नन्हीं परी

चांदनी के हसींन रथ पे सवार...

तुमने मुझे लक्ष्मी का नाम दिया. मैं पालने में झूल रही थी तब आप गया करते थे,

सुरमयीं अंखियों में नन्हां-मुन्ना एक सपना दे जा रे...

और मेरे गालों को अनायास ही तुम चूम लिया करते थे.

हर राखी को आप मुझसे सुना करते थे,

भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना... 

मैं शुक्ल पक्ष की चंद्रमा की तरह बढ़ने लगी... और आखिरकार पूनम की रात आ ही गई और मैं बड़ी हो गई. तुम्हारी आँखों का वात्सल्य वासना में बदल गया.  

एक दिन मेरे पास एक फोन आया

मैं-  हैलो.

उधर से-  सवी?

मैं-  हाँ.

उधर से-  आज तुम मुझसे मिलने नहीं आओगी?

मैं-  नहीं आज नहीं. कल पक्का.

उधर से-  नहीं सवी प्लीज़.

मैं-  नो आज नहीं.

उधर से-  अगर तुम नहीं आज नहीं आई तो मैं तुम्हारे घर के सामने आकर जान दे दुंगा.

मैं-  नहीं ऐसा मत कहो.

उधर से-  नहीं सवी तुमने अभी तक सुना होगा अब अपनी आँखों के सामने अपने प्रेमी को मरते देखोगी. ये एक अफसाना बनेगा कि एक प्रेमिका अपने प्रेमी की हत्या का कारण खुद है.

मैं-  नहीं तुम ऐसा मत करो मैं आती हूँ.

यह फोन मेरे ऊपर जान छिडकने का दावा करने वाले, जिसपर मैं अपने आप से भी अधिक विश्वास करती थी, उस मेरे महबूब सौरव का था.

मैंने अपनी चचेरी बहन को साथ लिया और उससे मिलने गई.

पर ये क्या? यहाँ सौरव अकेला नहीं दो और लोग हैं.

आओ बुलबुल आओ.

सौरव के मुंह से इस तरह का शब्द मैंने पहली बार सुना लेकिन सोचा शायद अपने दोस्तों को दिखाने के लिए ऐसा बोला हो.

फिर अचानक तीन से दस लोग हो गये. मेरा प्रेमी अकेला नहीं अपने नौ और साथियों के साथ है. और फिर ..................फिर..................

आप यह जानना पसंद करेंगे कि हमारे साथ क्या-क्या हुआ?

आह!!! हम दोनों बहने असहाय, लाचार.

अचानक खेत में काम करने वाले कुछ किसान दौड़े. पूरी तरह से बिखर चुकी हमें आशा की एक किरण दिखाई पड़ी लेकिन हाय से किस्मत हमारे निर्वस्त्र देह को देख कर उनके भी भीतर सोया हुआ पिशाच जाग गया. उन रक्षकों में भी वही हवस थी. और फिर वही वासना का नंगा नाच........... 

आज फिर मैं मुख्तार माई की तरह अपने जवानी का रोना रो रही हूँ. मेरे रूप में आज फिर एक अरुणा शानाबोग ताउम्र कोमा में जाने के लिए पुरुषों दरिंदगी झेलने वाली लाचार अबला हो गई.



अगर वह दिन दूर नहीं कि जब मुझे सरेआम बसों में भी पीट-पीट कर मुझे ज़िना किया जायेगा. मेरी हालत तो बकरे के सामान हो गई है जो कब किस कसाई के हाथ लग जाए कोई ठिकाना नहीं.



आज हर समाज मेरे कपडे उतार रहा है. तुम चाहते हो अब मैं कपडे ना पहनू. जब कभी कोई मल्लिका या राखी सावंत पहनती हैं कम या तंग कपडे तुम चिल्लाते हो सबके सामने धिक्कारते हो उनके संस्कार पर फेकते हो लानत संस्कृति की गिरावट पर लेकिन तुम्हारे मन का चोर तो यही देखना चाहता है. छुप-छुपकर निहारते हो मेरे वस्त्रों में छिपे मेरे अंगों को और टपकाते हो लार उसी तरह जिस तरह एक खूंखार भेड़िया करता है इंतज़ार जंगल में असहाय मेमने का.

हे भीष्म! मैं तुम्हारी द्रौपदी आज फिर तुम्हारी सभा में निर्वस्त्र की जा रही हूँ और आज मुझे बचाने वाला कोई कृष्ण नहीं है. जहाँ भी देखती हूँ केवल दुर्योधन और दुश्शासन ही हैं...    

(यह कहानी इंदौर में हुए एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म पर आधारित है किन्तु नाम काल्पनिक हैं. अभी दिल्ली में हुआ एक युवती के साथ सामूहिक और हिंसक दुष्कर्म से इसे फिर ताज़ा कर दिया. पुरुष समज इतना वहशी हो गया है कि लगता है यह रचना सदैव नई रहेगी. ईश्वर न करे ऐसा हो)       

16.12.12

क़िरदार

हमसाये को हमसाया बनाना नहीं आया
हमसे कोई क़िरदार निभाना नहीं आया।
हमसाये को हमसाया बनाना नहीं आया...

ग़ैरों का भी एहसान उठाते रहे लेकिन,
इंसान को हैवान बनाते रहे लेकिन,
हैवान को इंसान बनाना नहीं आया
हमसे कोई क़िरदार निभाना नहीं आया।
हमसाये को हमसाया बनाना नहीं आया...

लड़ते रहे अक्सर हम एक दूजे से,
लड़ाते रहे लोगों को अल्लाह और पूजे से,
सच्ची किसी को राह दिखाना नहीं आया,
हमसे कोई क़िरदार निभाना नहीं आया।
हमसाये को हमसाया बनाना नहीं आया...

ग़ैरों के जायज़ाद को हम लूटते रहे,
आपस में ‘'विद्यार्थी’ हम जूझते रहे,
बिगड़ा किसी का काम बनाना नहीं आया
हमसे कोई क़िरदार निभाना नहीं आया।
हमसाये को हमसाया बनाना नहीं आया...


कर दी हलाली हमने सारे अरमानों की,
लगा दी ढेर कई जगह क़ब्रिस्तानों की,
ज़ख़्मों पे मरहम लगाना नहीं आया,
हमसे कोई क़िरदार निभाना नहीं आया।
हमसाये को हमसाया बनाना नहीं आया...

9.12.12

मैं अहंकारी


इतना बड़ा ब्रह्माण्ड,
जिसमें कई आकाश गंगाएं करती काण्ड।
उनमें से एक हमने चुनी,
नाम उसका 'मंदाकिनी'।

घूम रहे जिसमें अगनित तारे,
फैला रहे जगत में जो उजियारे।
तारा अपना है 'दिवाकर',
हर्षित हैं हम इसको पाकर।

यह है राजा नौ हैं इसके चेरे,
प्रतिदिन-प्रतिपल लगाते इसके फेरे।
इनमें से एक 'वसुन्धरा',
जिसने इतना बोझ धरा।

इसको बांटा सागर और सीप में,
सात महाद्वीप में।
'एशिया' है जो खड़ा,
विश्व में सबसे बड़ा।

इसमें ही हैं कई देश,
एक-दूसरे का हरते क्लेश।
उन सब में है देश हमारा,
'भारत' नाम विदित संसारा।

चलाने के लिए काज,
उन्तीस बांटे इसमें राज।
हृदय जिसे कहते गुणी,
'मध्यप्रदेश' अग्रणी।

इसके भी हुए भाग,
नौ बने इसमें संभाग।
'रीवा' है सबका सरताज,
बघेलों का था जिसमें राज।

इनसे आकर कोई मिले,
इसमें बने हैं चार ज़िले।
नहीं फैलाता कोई झोली,
नाम है इसका 'सिंगरौली,।

काम चलाने को बने हथकण्ड,
और बांटे विकासखण्ड।
सब वर्गों की है ये संगी,
नाम है इसका 'चितरंगी'।

उठाया कागज़ लगाया सील,
और बनाया है तहसील।
'देवसर' जिसका नाम सादर,
हर मानव का जिसमें आदर।

चोरों के लिए लगाया बाना,
इसलिए बनाये गए हैं थाना।
सिपाही करते जहां मेहनत से काम,
'बरगवां' है उसका नाम।

पहुंचाने को पत्र हर घर,
बना दिया है डाक का घर।
मेहनतकश मजदूरों वाली,
नाम है इसका 'गोंदवाली'।

झगड़ा निपटाने-मिटाने कलह,
ग्राम पंचायत में करे सुलह।
सादगी का ओढ़े चादर,
सबको प्यारा लगता 'दादर'।

जंगलों में न लगता ठांव,
क्योंकि बने हुए हैं गांव।
राम से शुरू होता जहां का नाम,
'रमपुरवा' है उसका नाम।

इस गांव में हैं बहुत भवन,
पूजा-पाठ रोज होता हवन।
इनमें है एक घर 'हमारा',
हम सबको ये जान से प्यारा।

घर में न होता कोई पाप,
क्योंकि मुखिया मेरे बाप।
सबसे प्रेम से काम इनका,
श्री 'सुग्रीव देव' नाम जिनका।

आदमी हैं ये बहुत ही सच्चे,
इनके हैं दस बच्चे।
इन सबमें सबसे छोटा,
'विद्यार्थी' मैं सबसे खोटा।

घमण्ड और अहंकार वाला,
इतने बड़े संसार वाला।
जिसका न कोई पार पाये,
आजीवन चाहे घूमता रह जाए।

घर में भी छोटा-संसार में भी तुच्छ,
लिये फिर भी अहंकार का गुच्छ।
अत्यन्त छोटे कद वाला,
लोभ से गद्गद वाला।

पाप को करता हुआ,
सबका श्राप भरता हुआ।
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता,
दूसरों की प्रगति से मैं जलता।

समझता नहीं संसार को,
बकता रहता बेकार को।
यही बना है काम मेरा,
सेचता होगा नाम मेरा।

अगर ऐसे ही होता रहा काण्ड,
तो मिट जाएगा ब्रह्माण्ड।
आखि़र ऐसा क्यों होता है संसार में,
क्यों बड़े होने का भाव है अहंकार में।

जो भी इसका हल बताए,
वही तो संभल जाए।

यह मेरी पहली रचना जिसमें मैंने अपना पूरा परिचय दे रखा है तथा सर्भौमिक मानवीय प्रवृत्ति को भी. यह रचना जब मैं बारहवीं कक्षा में पढता था तब मैंने रात में तीन बजे लिखी थी वह समय मेरे लिए ऐतिहासिक समय था. इसी कविता ने ही जितेन्द्र देव पाण्डेय के साथ 'विद्यार्थी' को जन्म दिया है. इसमें जिले के नाम में परिवर्तन के अतिरिक्त उस नादान कवि की कृति में आज के कवि को मैंने फटकने तक नहीं दिया है. अभी आप सब तक प्रेषित करने में मुझे उतनी ही प्रसन्नता हो रही है जितनी इसे लिखने के पश्चात् हुई थी. आशा है आप सुधीजनों को मेरा प्रथम प्रयास अच्छा लगेगा.

चुनावी पहल

हुआ विधानसभा भंग
आया चुनावी पहल
किसका चमकेगा भाग्य
किसका होगा राज महल?

कौन करेगा राज देश पर?

किसकी होगी कुर्सी शाही?
कौन बनेगा अगला मंत्री?
कौन करेगा तानाशाही?
मिले गद्दी नेता जी को
कर रहे दिन-रात टहल
आया चुनावी पहल

नेता जी चले गाडी से

करने को अपना प्रचार
मैं भी आपका, दल भी आपका
कहने लगे ये बारम्बार
नेता जी की बातों से
सब सोचें होगा कुशल
आया चुनावी पहल

पिछले मंत्री जी आये

पिछली करतूति बताए
जो कुछ वे न कर सके थे
विपक्षी पर दोष मढ़ाए
'विद्यार्थी' जो भी कर सके थे
उसको गाते हर पल
आया चुनावी पहल

मत हमको दीजिये

काम हमसे लीजिये
हाथ जोड़ विनती कर कहते
हमको शरण में लीजिये
आपकी कुटिया हटाकर
बनवाऊंगा उसे महल
आया चुनावी पहल

हमारा यह देश

बन जायेगा स्वर्ग
सब को दूंगा सामान अधिकार
चाहे हो कोई वर्ग
कमी न होगी पानी की
बहाऊंगा सबतर 'गंगाजल'
आया चुनावी पहल

नेता जी ओझल हुए ऐसे

जैसे गधा के सर से सींग
फिर हिली कुर्सी
फिर आये हांकने डींग
इन दोगलों की बातों को
अब कर देंगे बेदखल
आया चुनावी पहल


यह कविता लगभग नौ वर्ष पुरानी है जब मध्यप्रदेश में चुनाव होने वाले थे तथा उसी समय मैंने कविता लिखने की शुरुआत की थी यह संभवतः मेरी तीसरी या चौथी रचना होगी.. छुट्टी होने के कारण सफाई करने की सोच रहा था उसी दौरान यह मिली. गुजरात में चुनाव हो रहे हैं मुद्दा ताज़ा दिखा इसलिए आप सबके समक्ष प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ. संतुष्ट तो नहीं कर सकता किन्तु थोड़ी सी सार्थकता देने का प्रयास है.