शब्द समर

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3.1.12

प्रेम त्रिकोण-दोहरा जीवन

उसने आत्महत्या करली
और
पुनर्जीवित कर लिया स्वतः को।
 वह था अक्षम जीने में दोहरा जीवन।
एक,
जिस पर न्यौछावर करता था वह
अपना दिन, अपनी रातें,
अपने सूरज-चांद, सितारे,
हर श्वांस, हर बातें।
कितनी ही नज़्में, कविताएं लिख डाली थीं उस पर,
नहीं बची कोई भी उपमा उसके सामने।
अपना एक-एक क्षण बलिदान किया था उसने जिस पर

वह थी
उसकी अनुपमेय हृदयंगिनी प्रेयसी।
परन्तु आज तक नहीं कर सका
प्रकटीकरण उससे अपने प्रेम का।
क्योंकि डरता था उसके अपकार से।
जब कभी करता था उससे बातें, 
बतिया लेता था घन्टों आनन्द विभोर होकर
सारी दुनिया के बारे में,
किन्तु नहीं कह पाया कभी
जबकि
पूछा भी उसकी अनन्त कामिनी ने
कि
बताओ
कौन है जिस पर तुम करते हो बलिहार अपने प्राण?
जिसे तुम बनाना चाहते हो
अपने यौवन और जरा की सहचरी?
कभी नहीं बोल फूटे उससे
कि
हे स्वप्नचरी! तुम्हीं तो हो
जो मेरे हृदय की स्पंदन हो।
रग-रग में
रक्त बनकर संचरण कर रही हो
सिर से पांव तक।
तुम्हीं हो
जब मैं लिखता हूं कोई गीत या कविता
अनायास ही कलम उकेर देता है तुम्हारा चित्र
जबकि वहां होता है महज एक काग़ज़
न कि कोई चित्रफलक।
हे माधुरी!
तुमसे ही आस लगाए बैठा हूं
सघन बस्ती में भी निर्जन होकर।
ये शब्द भले ही वह मन में बोल जाये
लेकिन नहीं कह सका अपनी
स्वप्नलता से।
न ही की चेष्टा जानने की उससे
कि कौन बसता है उसके अष्टयामिनी के आलिंद में।
  
दूसरी,
उस पर ही जीवन अर्पण कर,
त्याग सर्वस्व,
जहां बितायी थी
अपना  बाल्यकैशोर्य और अब तक का यौवन।
करना चाहती है वरण उसे
आजीवन रहने को साथ।
वह थी,
इसके प्रति अनन्तिच्छित इसकी पत्नी।
यद्यपि कि इसने उसे समझाया भी

सुनो!
मेरा-तुम्हारा मिलन असंभव है धरा-गगन सा।
मैं प्रेम करता हूं चन्द्रवर्णी से
और उसी की चन्द्रिका में करता हूं स्नान प्रतिक्षण।

हे स्वप्नप्रिय!
बोल उठा नारित्व.....
मैं भी बिखेरुंगी हरियाली,
बहाउंगी पूर्वा मतवाली
और मेघ सदृश  तुम्हें बरसाउंगी अपने ऊपर।
तुम्हारी एक-एक बूंद की शीतलता मुझे तो प्राप्त होगी ही
साथ ही मिटेगी तृष्णा जन-जन की।
तुम चाहते हो ना
निर्मित करना ऐसा वातावरण
जिसमें मानव-मात्र हों समान?
तुम्हारी है प्रबल इच्छा
देने को संसार को नई दृष्टि-नई राह?
तुम्हें यह भी विदित है कि
कितना कष्टसाध्य है यह मार्ग?
तो सुनो
मेरे स्वप्न सर्जक!
मैं बनुंगी तुम्हारी अनुगामिनी
करुंगी सहन
शीत, ताप, तीक्ष्ण प्रहार बूंदों का।
कैकेई की तरह करुंगी तुम्हारी रक्षा
भीषण संग्राम में।
सीता ने किया था वनगमन चौदह वर्ष के लिए
उर्मिला ने की थी प्रतीक्षा उससे भी अधिक।
तो क्या मेरे प्रथम!
मैं यशोधरा से भी कम हूं
जिसने
विरहाग्नि में तपकर भी
व्यतीत कर दिया समूचा जीवन पति इच्छा पर?
 मैं भी तो नारी ही हूं,
मुझमें भी वही ओज है, दुर्गा सा,
यशोदा की ममता, अनुसुइया की पतिनिष्ठा।
हे मेरे अनन्त!
तुम्हीं मेरे आद्य हो,
तुम्हीं में होगा मेरा अन्त।
हे मेरे कान्त!
मैं नदी की शीतल धारा बन
कराउंगी सैर इस दुनिया की।
मैं बनुंगी तुम्हारी अनन्त अभिसारी,
तुम्हारी परिणींता।
हे मेरे आद्य!
मैंने त्याग दिया है अपना जीवनान्द,
मात्र तुम्हारे एक चीथड़ा सुख के लिए।
क्या इन चरणों की कृपा तब भी नहीं होगी मुझ पर।

तुम हो प्रतीक्षित जिस जलधि के,
विचारने लगा मानस.....
ज़रा सोचो,
क्या
घूंट पाओगे एक बूंद भी उसका खारा पानी?
तुम मात्र आनन्दित हो सकते हो
देखकर उसकी विशाल तरंगें,
डूब-उतरा सकते हो उसकी लहरों में।
वे तुम्हें ले तो जाएंगी अनन्त गहराई में
किन्तु पुनः लाकर छोड़ देंगी उसी किनारे पर।
अतः
कर लिया स्वीकार उसे।
भेज दिया उत्तर अपनी प्रमिका के प्रश्नों के।
सुनों मिल गई मुझे जीवन दायनी...।

मिल गई मुझे जीवनदायनी
यह सुनते ही
प्रेमिका के बहने लगे झरने।
कसक उठी प्रेमव्यथा...
मैंने पाल रखी थी अन्तहीन आशाएं तुमसे
किन्तु सबके सब जड़हीन हो गए।
हे मेरे अनंग!
तुमने मुझसे पहले क्यों नहीं कहा?
जबकि यही प्रश्न मेरा तुमसे मेरी रति?
जब मैं भूलकर समस्त को
उतारता था तुम्हें अपने नयनों में,
बिता देता था प्रहर दर प्रहर तुम्हारे वीणा झंकृत बोलों पर,
प्रतिदिन इसी आशा में
कि
आज रखोगी तुम अपना प्रेम प्रस्ताव
किन्तु वे सारे दिन एक से ही गए।
यदि तुम्हें याद हो, 
एक बार अप्रत्यक्ष मैंने बताया भी था तुम्हें
कि
घर में
अब मै ही रह गया हूं अकेला
हेतु विवाह के,
तब तो तुम्हें कहना ही था न?
मैं डरती थी इस कुत्सित समाज से।
कराह उठी वेदना...
वह समाज जो देखता है मात्र अपना सम्मान।
अपने हित के लिए किसी को भी चढ़ा सकता है सलीब पर।
मैं नहीं चाहती थी
कि लोग तुम पर भी मारें पत्थर मजनू सा।
किन्तु समाहित हैं मुझमें अभी भी
वही राधा, वही लैला, शिरी और हीर।
  
आह...!
यह कैसा पशोपेश है?
एक ओर वह जहां रहता हूं मैं सम्पूर्ण,
दूसरी ओर
जो निःस्वार्थ है मेरे लिए।
हे मेरे असमंजस!
तू  ही बता कहां रखूं पांव?
अगर प्रेयसी को करता हूं वरण
तो टूटता है मेरा वचन
जो मैंने दे दिया अनपेक्षित संस्कृति को
और अगर वरता हूं
अबला दीख रही इस सबला को
तो ढह जायेगा मेरा स्वप्नकिला।
दोनों को यदि करता हूं स्वीकार
तो कर पाउंगा पूर्ण इनके असीमित को
इसमें है संदेह मुझे
और
त्यागता हूं
तो
रह जाउंगा जूझता आजीवन।
हे मेरे अंतः!
तू ही बन मेरा माझी,
बैठा मुझे उस नाव पर
जो पहुंचा सके उस तट पर
जहां कर सकूं मैं जीवन का पूर्ण स्नान।

सुनो!
मत रखो दो नावों में पांव।
निकली अतः ध्वनि....
अन्यथा दोनों नावें खा जाएंगी पलटा
और उस भंवर में ऐसे फंसोगे तुम
कि
मिट जायेगा तुम्हारा अस्तित्व भी।
मेरी सुनो...!
कट जाती हैं दुविधा की बेड़ियाँ दृढ़ संकल्प से।
अतः कर लो निश्चय।
तुम अपनाओ उसे
जो है निर्भय,
जिसने कर दिया है समर्पित स्व को तुम्हारे आश्रय में।
जिसके लिए हो चुके हो तुम वचनबद्ध।
 जिसे नहीं है भय किसी का,
करने में सहयोग तुम्हारा।
जो उठा सकती है खड्ग काली बनकर
तुम्हारे संकटकाल में।
तुम्हारे माथे पर करेगी तिलक राजपुतानियों सा।
बनाएगी शक्तिमान तुम्हें लड़ने को हर चुनौती से।
किन्तु इसके लिए तुम्हें मरना होगा।
नाशना होगा उन कल्पनाओं को
जो खींचती हैं प्रियता की ओर तुम्हें।
इसीलिए उसने आत्महत्या कर लिया।

हर व्यक्ति मरता है
जब उसकी आत्मा पड़ जाती है विचार पाटों के मध्य
और पुनर्जीवित करता है,
संधि कर परिस्थितियों से।
उसने भी घोंट दिया गला उसका
जो होता था आकर्षित अपनी प्रियंवदा की ओर।
मार दिया
उन उंगलियों को
जो जपती थीं माला प्रेयसी के नाम की।
जीवित किया उसे
जिसने किया था वचनदान एक समर्पित सृष्टि को।
यह हत्या शरीर की नहीं थी
यह थी
उसी में विद्यमान दो में से एक स्व की।
जिसमें से
एक का कर दिया समूल नाश
दूसरे ने वरण कर लिया सौहार्द्रपूर्ण जीवन।

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