शब्द समर

विशेषाधिकार

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11.7.22

रास्ता

मैं चाँदनी को छोड़
पहुँचा थोड़ी ही दूर था
कि लगा जैसे,
रास्ता चला आ रहा है
पीछे-पीछे मेरे।


मैं फिर भी बढ़ आया,
आगे बहुत,
पर जब ठहरा,
तो देखा
रास्ता मेरे साथ ही था।


"तुम कहाँ तक चलोगे साथ मेरे?"
मैंने जब पूछा उससे,
"तुम्हारी ज़िन्दगी तक"
कहा उसने,
सहलाकर पैर मेरे।


माँ की कोख से मरघट तक
मैं ही तुम्हारा साथी हूँ,
तुम जहाँ भी देखोगे
मैं हर जगह दिखूँगा।
कभी गली बनकर,
तो कभी पगडण्डी,
कभी हवाओं में,
तो कभी चमचमाती
चौड़ी छाती की तरह।

तुम्हारे हर क़दम का
साथी हूँ मैं
क्योंकि
तुम राही हो,
मैं राह हूँ।

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