शब्द समर

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10.3.17

वियोग-व्यथा

प्रति दिवस,
झुरमुटों के पास,
प्रेयसी की प्रतीक्षा।

न मिल पाने पर,
भीगे शब्द बन
एक नम पृष्ठ पर
उसका ढुलक जाना।

वियोग-व्यथा की
यह पुरानी रीत,
आज भी
कितने चन्द्र-चकोरों
को तड़पा रही है।

9.3.17

ऋतु श्रेष्ठ

चित्र-साभार-गूगल 


ऋतु श्रेष्ठ!
तुम्हीं हो एक ऐसे शासक,
जिसे नहीं होता भय,
छिन जाने का सिंहासन|

है तुम्हें भान यह 
कि 
तुम्हारे पाँच और साथी,
नहीं करेंगे अतिक्रमण तुम्हारी गद्दी पर,
क्योंकि
भिज्ञ है ग्रीष्म को अपनी कमी
कि उसके लू-ताप से
जलती हुई धरा,
दौड़कर फैलाती है झोली,
शीतमय सुख की|

वर्षा देती तो है
आराम ग्रीष्म-ताप से,
किन्तु वह जानती है,
अपना वेग,
अपनी गति
कि जब होती है कभी क्रुद्ध
तो बहा डालती है, गाँव-के-गाँव|

तब शरद
होता है, थोड़ा सुखकारक
किन्तु
वह श्वेत ऋतु
धरणी-पुत्रों में
बढ़ा देता है कृषि-चिंता
अल्प, या अति-वृष्टि से|
साथ ही बनता है
कारक अवसाद का भी
कई युवाओं में|

हेमन्तागमन दिखाता है दिवास्वप्न,
किन्तु वर्षा और शरद द्वारा
किये गये कार्यों के स्थगन को
पुनर्स्थापित कार्यों की
बढ़ा देता है व्यस्तता,
और धरती में भर जाती है अथाह थकन|

उसी थकन भरे जीवन में
ग्रीष्म के ठीक उलट
समूचे वातावरण में
शिशिर आता है,
धारण किये अपना दौद्र रूप|
स्तर-प्रति-स्तर
वस्त्रों के भीतर भी कर
जाता है प्रवेश बलात ही
और ठिठुरा देता है समूचे धरा को|

इन सबसे त्रसित और चिंतित
प्रकृति का जब लगता है होने
केश-पतन,
दिखने लगती है, चहुँ ओर
निर्जनता,
तब अपने पीत सुगन्धों से
भरा हुआ
अमृत-घट लेकर होते हो तुम अवतरित|

अपने संजीवनी से
भर देते हो, जनमानस में प्राण|
गूँजने लगती हैं किलकारियाँ,
नव-कोपलों की|
नर्तन करते हुए युवा पल्लव,
करते हैं तुम्हरा स्वागत,
भ्रामर-कोकिल युगलबंदी से
रंगरंजित हो जाता है वातावरण|
तब तुम्हारे पाँचों साथी,
भी बन जाते हैं, तुम्हारे ही अनुयायी|

बिना किसी राजनीति के,
तुम रख लेते हो अपनी प्रजा को प्रसन्न,
इसीलिए तुम हो निर्विरोध सम्राट
सस्म्त ऋतुओं के|
ऐसे ही बने रहो,
चमकता रहे स्वर्ण मुकुट तुम्हारा,
हर परिस्थिति में|

8.3.17

स्त्री


विश्व स्त्री दिवस पर विशेष| यह कविता समर्पित है, उन सभी स्त्रियों को, जो छले जाने के पश्चात् भी छलिया पर से अपना स्नेह कभी नहीं हटातीं 





चित्र-साभार-गूगल



हे पुरुष!
तुमने छला मुझे,
एक नहीं, सहस्रों बार|

मेरे स्वप्न निर्झर बन
मेरी कोमलता पर,
किया अनल-प्रहार,
किया भंग मेरा यौवन-व्रत|

सुख-सागर में सराबोर मैं,
हुई सहचरी तुम्हारी क्रीड़ाओं में,
भरी सिसकियाँ
तुम्हारी व्यथाओं के साथ|
तुम्हारी वर्जनाओं को ही मान विधान,
सीमित की अपनी सीमाएँ,
और तुम्हें ही घोषित कर दिया अपना संविधान|
तुम्हारी उलाहना को ही सत्य मान,
स्वीकारा अपराध,
और दण्डित किया स्वयं को भी|

मैंने त्यागा अन्न-जल
किये कठिन तप,
तीज-चौथ-अमावस  
पश्चात् इसके भी
हे निर्लज्ज!
तुम हुए परगामी|
किन्तु आज भी मेरी माँग,
और चूड़ी
जोहती हैं बाट तुम्हारी कुशलता की|