वो
मेरी प्रसन्नता को
बढ़ा
देती है कई गुना,
बेटी
की तरह,
पोंछ
देती है,
आँसू
मेरे,
माँ
बनकर।
अर्धांगिनी
बनकर
पी
जाती है सारे दुःख को,
और
सुझाती
है सही दिशा
भटके
हुए चौराहे पर
बहन
सरीखे।
उसमें
भाव है दायित्वों का
मेरे
पिता के रूप में,
सम्वेदनशील
है
भाई
के नाते,
आठों
याम हाथ थामें
चलती
हैं साथ
मित्रवत।
ये
पुस्तकें नहीं
जीवन
की वह साथी हैं,
जो
निर्जीव होकर भी
सजीव
सहेली होती हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें