शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
चोरी पाए जाने पर दंडात्मक कारवाई की जाएगी|
अतः पाठक जन अनुरोध है कि बिना रचनाकार के अनुमति के रचना का उपयोग न करें, या करें, तो उसमें रचनाकार का नाम अवश्य दें|

30.12.17

मैं कुत्ता हूँ

मैं कुत्ता हूँ,
मैं हर उस पर भौंकूँगा,
जो लगेगा सन्देहास्पद मुझे।
जिसमें मिलेगी गन्ध,
मेरे स्वामी से घात की।
मुझे मेरे प्राण नहीं उतने प्रिय,
जितना कि निष्ठा और स्वामिभक्ति।

मैं करता हूँ वाष्पोत्सर्जीत ताप देह से
लपलपा कर जिह्वा अपनी,
परन्तु यही कर्म करने वाले मनुष्य
होते हैं अप्रत्यक्ष घातक मेरे
देव के हित।
अतः
सभाओं में पूँछ हिलाने का कार्य
मैं तुम्हें नहीं करने दूँगा।

यदि तुममें है सामर्थ्य तो
स्वीकारो बिरादरी मेरी,
चलो कुछ राष्ट्रहित भौंका जाय,
वह भी पूरी निष्ठा से।
यदि कर सकते हो,

तो आमन्त्रण स्वीकार करो।

8.12.17

मेरी ज़िन्दगी?

मेरी ज़िन्दगी?
मेरी तो ज़िन्दगी बिखरी पड़ी है;
उसे एक ही जगह से उठा पाना,
ज़रा मुश्किल होगा|
बीनना पड़ेगा उसे,
टुकड़े-टुकड़े, तिनके-तिनके में|

सबसे पहले जाओ मेरे कमरे में;
वहाँ
थोड़ी-सी छिटकी होगी फर्श पर
धूल के कणों में,
तो कुछ पड़ी होगी अस्त-व्यस्त, बेतरतीब-सी
अलमारी के खानों में|
तनिक झाँक लेना,
कुछ अंश दराज़ में भी होंगे,
तो कुछ चिपके होंगे,
कुर्सी, टेबल और खाट के पायों में
मकड़ी के जाले, और धब्बे बनकर|
किताबों में तो गुच्छे-में ही मिल जाएगी,
जब-तब पाते-ही फ़ुर्सत
ताकती रहती थी टकटकी लगाए
पन्ने-दर-पन्ने;
बहुत कुछ समेटा है,
उन काग़ज़ों से|
बहुत-सारी मिलेगी फैली हुई
स्याही बन कई सादे काग़ज़ों में,
जिसमें उकेरे हैं इसने कई हर्फ़
अपने और कईयों की जिन्दगियों के,
कुछ नज़्मों और कविताएँ बनाकर|

पड़े-पड़े बिस्तर पर
कभी-कभी लगाने लगती थी
चक्कर पंखे की तीलियों के साथ,
तो कभी शुरू कर देती नैन-मटक्का,
बल्ब की रौशनी से|
ज़रा गहराई से देखना,
थोड़ी-बहुत मिल जाएगी छितराई हुई,
दीवारों में भी;
जो ख़ूब सुना करती थी कान लगाकर
बातें उसके एकान्त की,
और साथ ही कभी रस लिया है गीत-कविताओं का,
तो कभी झेला है, निजी बकवास को|
एक बार गले से लगाना तकिया को,
बूँद-बूँद मिल जाएगी बहती हुई,
उसके रेशे-रेशे में|
बहुत पिया है खारापन इसका
और बना लिया रंग अपना मटमैला भी|
पर्दे? नहीं,
कभी पर्दा किया ही नहीं,
और पर्दा करती भी तो किससे?
था ही क्या
जिसे छुपाया जाता?
हाँ पूछोगे, तो कपड़े ज़रूर बताएँगे,
जिनमें उग आते थे चिल्लर कभी-कभी
कि इसको छुपके रहने की कभी आदत ही नहीं थी|

जा ही रहे हो, तो जाना ज़रूर
स्नानागार और शौंचालय में,
वहाँ पड़ी हुई बाल्टी, मग, और कमोड भी,
सभी सुनाएँगे कहानी
सारी कविताओं, गीतों, कहानियों,
और रचनात्मकताओं के सृष्टि की

अब निकलना होगा बाहर तुम्हें
तब कुछ हिस्सा मिलेगा
दोस्तों के पास,
और बहुत-सारा विरोधियों की ज़बान पर|
एक छोटा-सा कण प्रेमिका ने भी रखा होगा,
और एकाध रवा उन लड़कियों ने भी
जिन्होंने चुपके से इसे अपना बना लिया,
और हो किसी और की गईं,
पर इसे ख़बर तक नहीं दी|

फिर ज़रा रुख करना
उस ओर जहाँ इसे जीने में मिलता था,
सबसे बड़ा सुख|
हाँ प्रकृति के पास|
क़ुदरत की गोद में,
अपने कई हसीन पल बिताए हैं इसने|
एक-एक अंश इसका
मिला हुआ दिखेगा, प्रकृति के एक-एक कण में|
कहीं लहलहाती दिखेगी हरी पत्तियों में,
तो कहीं शाख से अलग कर दी गई सूखी टहनियों में|
चिल्लाना तुम बनकर आवाज़
उसी टूटी हुई डाली की,
और सुनना उसका दर्द पहाड़ों की गूँज में|
बढ़ाना अपने क़दम नदियों की ओर
पूछना उससे,
वह बताएगी
लहरों से सराबोर उसकी काया का,
रेतीले होने के दर्दीले सफ़र के बारे में|
पानी की एक-एक बूँद से
बालू के हर एक कण में मिलेगी मेरी ज़िन्दगी|
थोड़ी-बहुत मिल जाएगी
चट्टानों की खुरदराहट में भी|
और मिलेगी सूखे से छाती फाड़ती धरती के
एक-एक दरारों में|
मैंने ये तो बताया ही नहीं
कि घुप अँधेरी रात में
तारों से बतियाना न भूलना,
और न ही भूलना
क्षितिज की गोद से निकल,
उसकी आँचल में समाते
सूर्य की यात्रा में सम्मिलित होना,
नहीं तो छूट जायेगा,
मेरी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा|

अब इतना घूम ही लिया है,
तो थोड़ा चले जाना
खेतों में भी|
मिल लेना किसानों से,
पूछना तेज़ धूप में जलती उनकी चमड़ियों से,
वे भी कहेंगी कुछ अहवाल मेरी ज़िन्दगी का|

पूरा चाहिए?
एक बार में ही?

तब तो जाना पड़ेगा मेरे गाँव,
मेरे घर, मेरे परिजनों के पास,
ख़ासकर;
मिलना होगा मेरे माँ-बाप से|
मेरी ज़िन्दगी दुबकी पड़ी है
उन्हीं के कलेजे में,
जैसे माँ की कहानियों के राजकुमार
की ज़िन्दगी
छुपी होती थी;
किसी तोते में|

27.11.17

सुख-दुःख और क्रोध

कभी-कभी लगता है फूट पडूँ|
फूट पडूँ,
सुख में मक्के के लावा जैसे,
दुःख में बंजर भूमि
और
क्रोध में ज्वालामुखी की तरह|

कभी-कभी लगता है घूँट लूँ|
घूँट लूँ,
सुख को सफ़ेद बादलों के जैसे,
दुःख को लहरों
और
क्रोध को बर्फ़ की तरह|

कभी-कभी लगता है पीस दूँ
पीस दूँ
सुख को खदान के पत्थरों जैसे,
दुःख को ईख
और
क्रोध को अन्न की तरह|

ये सुख-दुःख और क्रोध ही तो हैं,
जो भरमाए रहते हैं हर समय|

25.11.17

NEVER SAY NEVER

Never say never,
Because,
Problems are the parents of solutions,
Challenges are the way of re-solutions,
Questions are home of answers
Damages are scope of the creations.

Be involve deeply
Go very happily,
Will get a right path,
This is telling absolutely.

Mother never think about her pain,
Father never be bother, how money gain,
Earth never be sad with infinite weight,
Labourer never asks question why and when.

When said never,
Took step back ever,
Have locked possibilities of possibilities,
Ended up life forever.
So,
Never say never.

24.11.17

SUCCESSOR'S WELCOME

Photo credit- To Google 
With the piece of light,
You are welcome,
In this universe.

Look!
Look at around to you,
You are near to your beloveds,
And you are star of all.
You are a nappy-child now,
And crying in the lap,
But one day you will become
Tear wiper of millions.

O! Love!
Open your little eyes
And see
People are dancing and celebrating this day
As their successor’s arrival day,
It might be a festival
In the future.

Wake-up my champ!
And hear beautiful songs
In your welcome,
Welcome of theirs’ future star.

No matter
How would you
Appear in the world,
As a player, scientist, politician, a warrior
Or a simple Human,
But it matters you will arise;
And will enlighten the dark world
With the peace and your lights,
Which you had found
From your mother
Before you were opened your eyes first.

21.11.17

जो आग तेरे दिल में सुलगी

जो आग तेरे दिल में सुलगी,
उस आग को अब जल जाने दे
अरमानों की इस भट्ठी में,
एक चिंगारी पल जाने दे

तेरी हर चाहत की लकड़ी में,
ख्वाबों की लाशें सोई हैं
कर बन्द हवा को मुट्ठी में,
इसे बुझने का बल जाने दे
एक चिंगारी पल जाने दे

बे-मौत तेरे हर सपने को,
मरना ही लिखा है कुदरत ने
ले छीन खुदाया से अपनी,
तकदीर को अब खुल जाने दे
एक चिंगारी पल जाने दे

तमन्नाओं का हर एक धुआँ,
ढूँढेगा आसमाँ में ख़ुद को
तू खोल दिशाओं की राहें,
इसे अपने मन चल जाने दे
एक चिंगारी पल जाने दे

हर आँसू अपनी आँखों का,
जलता है बनकर तेल यहाँ
फानूस बन महफूज़ कर,
बन रूई उसे जल जाने दे.
एक चिंगारी पल जाने दे

19.11.17

बचपन

चित्र-साभार-गूगल 
बचपन,
एक बिखरी हुई,
लेकिन सिमटी ज़िन्दगी,
जिसे नहीं है चिन्ता,
उड़ने की,
न ही है परवाह,
गिर जाने की।

हर मंज़रों में
बे-ख़ौफ़ मैराथन करने वाले खिलाड़ी,
जिसे न जीतने का गुमान है,
न हार जाने का शोक,
इसी के रास्ते में मिलते हैं।

बचपन
एक ऐसा खेल का मैदान,
जिसमें मदमस्त हाथी,
चंचल हिरण,
खूँखार बाघ,
चालक लोमड़ी,
निरीह मेमना,
सब एक साथ मिल जाते हैं,
उछलते-कूदते।

बचपन,
एक ऐसा आँगन,
जिसमें चन्दा को पाने की ज़िद,
ख़ुद में खो जाने की प्रवृत्ति,
सब कुछ लुटा देने का हुनर,
सूरज को ललकारने की ताक़त
एक ही देहली पर होते हैं,
विराजमान।

आओ घूम आएँ
एक बार, उसी दुनिया में,
जिसे अब हम जी नहीं सकते,
बस तरस सकते हैं,
भरते हुए एक आह,
और यही सोचते रहेते हैं,
काश! समय का पहिया एक बार उल्टा घूम जाता।

16.11.17

बुढ़ापे का साथी

कवि जब लिखता है,
तो शब्द अपने आप बँटवारा कर लेते हैं|
कोई अपने हिस्से चुनता है सुकूँ,
तो कोई बेचैनी को ही रख लेता है|
कोई खुशियों को छुपा लेना चाहता है,
अपनी तिजोरी में,
तो कोई छलक पड़ता है बनके दर्द|

दर्द!
दर्द, सबसे छोटा,
और सबसे कम उम्र का होता है,
जो लेता है जिम्मा
कवि के अन्तिम समय तक साथ रहने का|
माँ-बाप के साथ भी दर्द ही रह जाता है,
उनके अन्तिम समय तक
साथ देने को|

15.11.17

सो गया वह

चित्र-साभार-गूगल 
सो गया वह,
आँखों में जीते हुए एक सपना,
जो रेगिस्तान की तरह था चमकीला
किन्तु
नहीं ला सका मुस्कुराहट
उसके होंठों पर|

सो गया वह,
एक ऐसी गाँठ को सुलझाते हुए,
जो उसकी ज़िन्दगी से भी थी अधिक मजबूत,
और बन गई फन्दा छटक कर उसके हाथों से|

सो गया वह,
एक ऐसी दरार में
जो उसकी ख्वाहिशों से भी थी अधिक गहरी,
जिसमें समा गया वह
अपनी पत्नी और बेटी की उमंगों की लाश लेकर|

सो गया वह,
ऐसे समन्दर में
जहाँ
मछलियाँ ही थीं, मछलियों की दुश्मन,
जैसे आदमी है आदमी के ही खून का प्यासा|

सो गया वह,
बिना तकिया,
बिना बिस्तर
बिना कन्धा
बस पेट में बाँध के गमछा,
डरते हुए समाज से,
लड़ते हुए भूख से|

सो गया वह,
फँस कर असीम इच्छाओं के भँवरजाल
और न जगने वाली नींद के आगोश में
सो गया वह,

न आने वाले कभी होश में|

14.11.17

तुम्हारी अलिखित अमिट कहानी मैं

चित्र-साभार-गूगल 
जब तुम लिख रहे थे स्वयं को,
बुन रहे थे ताना-बाना अपने जीवन का,
कर रहे थे सुखमय वर्णन अपनी जीवन-यात्राओं का|

ठीक उसी समय
तुमने किया होगा स्मरण मुझे भी,
मेरा चित्र बार-बार मूँद देता होगा 
नेत्र तुम्हारे|
मैं आई होऊँगी तुम्हारे मन के द्वारा पर,
खटखटाया भी होगा किवाड़ को थाप दे-देकर|

तब
तुम हुए होगे हिंसक,
किया होगा प्रहार अपनी स्मृतियों पर,
चलाया होगा घातक अस्त्र मेरी सह-अनुभूतियों पर,
की होगी नृशंस हत्या मेरे साथ के समय की,
और फिर
तुम अपने लेखन में
स्वयं अकेले ही दिखने लगे होगे,
प्रत्येक स्थान पर,
जबकि
तुम्हें है पता
तुम्हारे हर उस समय की सहवासी हूँ मैं|

जिस जीवन को आज तुमने उकेरा है इन पन्नों पर,
ये पन्ने तुम्हें चिढ़ाते भी होंगे,
परन्तु अब तो तुम निर्लज्ज बन चुके हो,
तुम्हें नहीं पड़ता होगा अन्तर कोई,
किन्तु ध्यान रखना,
मैं भले ही तुमसे हो चुकी हूँ दूर भौतिक रूप से,
पर तुम्हारा मन चाहकर भी
कभी भी मुझे तुमसे विलग न होने देगा,
क्योंकि जब भी तुम अपने जीवन के इन पन्नों को पलटोगे,
सबसे पहले मेरा ही मुख दिखेगा,
प्रत्येक शब्दों में|

मेरा नाम लिखने की आवश्यकता भी नहीं,
क्योंकि
तुम मुझसे विच्छिन्न हुए हो,
अपने जीवन से नहीं,
मेरा नाम तुम्हारे जीवन के साथ ही जुड़ा हुआ है,
तनिक एक बार स्वयं का नाम लो,
उसके बाद मेरा नाम स्वयमेव ही बोल दोगे|
भले ही मुझे छलकर
तुम हो गये परे मुझसे,
चुन लिया नया पथिक साथी
परन्तु
मैं तुम्हारे जीवन-यात्रा की
अलिखित, अमिट कहानी हूँ|  

6.11.17

नीरो अभी भी जीवित है

मिट्टी के घरौंदे में,
कपास की देह पहने,
तेल जैसे विषाक्त हवा को अवशोषित कर,
लपटें ऐसे किरणें फैलाती हैं,
जैसे वृक्ष कोई प्राणवायु।
जितना ही भरता जाता है तेल,
उतना ही,
रोम-रोम जलता है दीया,
रोम की तरह।
मनुष्य नाचता है, गाता है,
करता है सहस्रों कर्म,
और बजाता रहता है बंशी,
इसी के प्रकाश में।

सम्भवतः नीरो अभी भी जीवित है।

10.10.17

रेगिस्तानी पलकें

दुःख में हर बार मूँद लेता है वह,
अपनी पलकें|
जब भरने लगती हैं आँखें,
तो सूख जाता है उसका पानी|
बहुत तपाया है ज़िन्दगी की धूप ने उसे|
अब उसकी आँखों में समन्दर नहीं,
रेगिस्तान बसता है|

9.10.17

मैं शव वाहक हूँ...

चित्र-साभार गूगल 
हाँ! मैं शव वाहक हूँ।
मेरे कंधों ने उठाए हैं,
एक नहीं, अनगिनत शव,
अपने इन्हीं कन्धों पर।

मैंने तब भी उठाया था शव,
जब जल बिन मछली की भाँति,
बिने रोटी के तड़प गई थी,
मेरी पाँच वर्षीय बेटी,
और मैंने गाड़ दिया था उसे,
एक पेड़ के नीचे।

मैंने उठाया था शव,
जब पैंसठ वर्ष की आयु में ही,
खून ओछरते (उल्टी करते)
मेरे पिता ने,
उठाया था हाथ मेरे सर से।

ईश्वर ने संभवतः मुझे भेजा है,
बनाकर शव वाहक ही,
तभी तो,
मैंने पुनः उठाया शव,
मोतियाबिंद ग्रसित अपनी माँ का,
जो रात में बाहर जाते हुए,
जीवनेच्छा होते हुए भी,
गिर पड़ी किसी खोह में,
और कुछ देर पूर्व मुझे आँचल से ढँक,
मेरा दुःख दूर करने वाला शरीर,
हो गया परिवर्तित, एक शव में।

मुझे कन्धा देने वाला मेरा बेटा,
जिसे मैं कहता था,
अपना स्वप्न,
अपने बुढ़ापे की लाठी।
जो चाहता था बनना
बड़ा अधिकारी।
वह भी तो उठा खाकर ही लाठी,
बखरी के मालिक की।
मेरे कन्धे का भार हल्का करने वाला भी,
उठाया गया मेरे ही कन्धों पर।

उधार तो मैंने नहीं चुकाए थे,
किन्तु दण्डित हुई वह,
बन वासना उनकी,
जो बने थे भगवान मेरे।
उन्होंने ही मेरी प्रतिष्ठा को तार-तार कर
उठवा दिया मेरे कन्धों पर,
शव मेरी पत्नी का।

मैंने उठाया था तब भी शव,
जब अपने अधिकारों की माँग करते हुए
खाई थी गोलियाँ मेरे पड़ोसी ने।

मैंने तब भी उठाया था शव
जब पुल टूटने से,
एक साथ दबे थे चार लोग,
एक ही घर के।

मैंने तब भी उठाया था शव,
जब चली थीं दनादन लाठियाँ,
पानी भरने की होड़ में।

मैंने तब भी उठाया था शव,
जब धर्मों ने धारण किया,
अपना वीभत्स-पैशाचिक रूप,
और लूटा-काटा अनगिनत
शान्ति प्रेमियों को।

मेरे कन्धों को अब,
नहीं होती पीड़ा,
उठाने में भारी-से-भारी बोझ भी।
क्योंकि प्रियजनों के शवों से अधिक भारी,
और कोई बोझ होता है क्या?
यद्यपि मैं नहीं हूँ,
पारम्परिक व्यवसायी शव-वाहन का,
मेरे पिता-पितामह ने भी नहीं उठाया होगा,
ही अब कोई और उठाएगा,
मेरे नृवंशी परिवार में।
परन्तु मुझ अभागे के कन्धों को,
तो ईश्वर ने बना ही गया एक शव वाहक।

पहले तो आँखें भी लगती थीं झरने,
मन पड़ता था चीत्कार,
गला करता था हृदय-भेदी क्रन्दन,
परन्तु अब,
आँखों में भी सूखा पड़ गया है,
मन चला गया सुशुप्तावस्था में,
और गला हो गया है अवरुद्ध।
अतः अब
कोई बताए मार्ग कहीं का भी,
वे जा पहुँचते हैं,
शव-सागर में ही।
पैरों का भी स्वभाव,
और अभ्यास ही हो चला है,
हर बार एक ही रास्ते पर जाने का।

ऋण है ऐसा मंद-विष
जो होता है सदैव कारक मृत्यु का ही।
चाहे वह सरकार से हो,
या अपने मालिक से लिया हुआ।

अबकी भी नहीं हुई है वर्षा।
ही चुका पाया हूँ ऋण ही।
परन्तु मुझे है आशा,
कि या तो मालिक लेंगे ऋण अपना वापस,
या ईश्वर दे देगा कोई रोग, 
या आपदा बड़ी,
या सरकार ही ले लेगी कोई जनघाती निर्णय।

बस चाहते हुए भी
दूसरों के शवों को,
अपने कन्धे पर उठाने वाला मैं एक शव वाहक,
या उठ जाऊँगाकिसी और के कन्धे पर,
या पा जाऊँगा सद्गति चील-कुत्तों से।
हाँ मैं ही शव वाहक हूँ।