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22.10.15

रेगिस्तानी बर्फ़


नौ....रा... नौ....रा... नौ....रा...
चित्र-साभार-गूगल

अधेंरे रेगिस्तान बैठे उसके होठ अनायास ही माला जप रहे हैं| आँखे ऐसे धस गई हैं जैसे कोई गहरी खाई| इस उम्र में भी चेहरा झुर्रियों में बदल गया है| उसने अभी से अन्तिम बार नहाया कब था यह तो उसे भी याद नहीं है| न चाहते हुए भी होठों ने एक ही काम ले रखा है, वह है "नौ....रा... नौ....रा... नौ....रा..." की रट| गर्दन ऐसे झुकी हुई है जैसे अभी भी नौरा उसकी बाहों में झूल रही हो| उसकी आँखों में बार-बार नौरा का दमकता फिर नीला पड़ता चेहरा कौंधता रहता है|

उसके काले-धूसर, स्याह जीवन में यह नया उजाला कौन कर रहा है? नौरा तो कब की ज़मींदोज़ हो चुकी है|
नौशन! नौशन!
किसकी आवाज़ यह? क्या मैंने पहले इसे सुना है? दिमाग चक्रवात की तरह घूमने लगा| मन में बिजली कौंधने लगी| अचानक दरवाज़ा खुला| एक आवाज़ और 
नौशन! मेरे प्यार!
ओह! यह आवाज़? नहीं यह आवाज़ मुझे बिलकुल भी नहीं सुहाती| फिर जानते हुए भी क्यों यह मेरे कानों से टकरा रही है? पलकें उस आवाज़ को जलाने के लिए उठती हैं| 
यह सूरत? यह तो ठुकराई हुई सूरत है! यह यहाँ क्यों आई है? क्या इसे पता नहीं कि मैंने अपने जीवन के साँचे से इसे कब का उतार दिया है? अब इसमें कोई और चित्र नहीं लग सकता? 
उठो नौशन| मैं आई हूँ| अस्थि बनने से पहले तुम्हारे बदन पर मांस चढ़ाने| देखो तो तुम्हारी साँवली हड्डियाँ कितनी आसानी से गिनी जा सकती हैं| पूरी दो सौ सात हड्डियाँ हैं तुम्हारे इस कंकाल में|
दो सौ सात? मगर...?
दो सौ छः शरीर की और एक तुम्हारे गले की हड्डी| तुम्हारी नौरा| उसे कौन गिनेगा?
ख़ामोश| अगर नौरा के ख़िलाफ़ एक लफ्ज़ भी निकाला तो|
लो नहीं बोलती| लेकिन वो है कहाँ?
वो मेरी यादों में है| मगर तुम यहाँ क्यों आई हो?
उन्हीं यादों के पिंजर में तोता पालने| ज़रा एक बार मेरी आँखों के आईने में झाँक कर देखो| तुम कैसे दिख रहे हो? नौशन! नौरा तुम्हारा एक भ्रम थी, एक क्षणिक सुख| जो अपनी मौत के साथ तुम्हें अपने साए से भी मरहूम कर गई| कभी-कभी थोड़ा सा सुख बहुत बड़ी पीड़ा का कारक हो जाता है| नौरा भी वही रही|
नौरा कभी मेरे दर्द का कारण नहीं है|
तो ये क्या है? पिछले कितने दिनों से इस अँधेरी खोह में पड़े हो? यह दर्द नहीं तो और क्या है?
यह मेरी ज़िन्दगी है|
ऐसी ज़िन्दगी? जिसे छोड़ने के लिए हर साँस तड़प रही है? जिसके खून का हर क़तरा सूख जाना चाहता है? जिसमें दिन का नामो निशान ही नहीं है? जिसकी हर रात अमावस है?
हाँ ऐसी ही ज़िन्दगी| तुम इस निर्वात में हवा क्यों बन रही हो? मेरी ज़िन्दगी अब किसी भी गुरुत्व के बहुत बाहर निकल चुकी है|
नौशन! क्या तुमने कभी सुना है कि बसंत एक साल आने के बाद फिर कभी नहीं आया?
नहीं|
क्या तुमने सुना है, ग्रहण के बाद सूर्य या चंद्रमा फिर कभी नहीं दिखते?
नहीं|
क्या तुमने सुना है एक बार रात होने के बाद आज तक कभी फिर सुबह नहीं हुई?
नहीं| मगर ये सब तुम मुझे क्यों सुना रही हो?
क्योंकि मैं उषा हूँ| संध्या जब दिन को निगल कर रात के खोह में डाल जाती है, जब सन्नाटा उसे चीरने लगता है, जब लगने लगती हैं आँसुओं की झड़ियाँ, जब विवशता फैला देती है अपना आँचल छोटे-छोटे कीटों के भी सामने, तब मैं आती हूँ, अपने सिन्दूरी बदन से सूर्य को आकर्षित करती हुई किरणों के तीर से करती हूँ चित्रकारी, रच देती हूँ तुम्हारा यह सुन्दर, सुघड़ मुखड़ा|
उसके रेगिस्तान की बर्फ़ पिघलने लगी और चट्टानों में हरियाली फैल गई|