शब्द समर

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15.7.14

उद्धार की योजना

अरे!
हमने तो सोचा
तुम हो बहुत ही शक्तिशाली
और धैर्यवान व्यक्तित्व
किन्तु यथार्थ को देखते ही
आपादमस्तक तुम हो गये जलमग्न
जैसे हो गई हो मूसलाधार बारिश
तुम्हारे अनंत विश्राम पर
और भाग गये छोड़कर मैदान ही|

अब आया समझ में
कि दो रोटी की जुगाड़ के लिए
कितना बेलते हैं पापड़ हम लोग?
ये जो तुम्हारा सूट-बूट और टाई है न
इसमें छीटे हैं मेरे रक्त की,
झलकियाँ हैं मेरे बच्चों के गाड़ दिए गये
स्वप्न के,
चपलता है सिन्दूर विहीन माँग
मेरी अर्दंगिनी की
और हैं चूड़ियों के टुकड़े|

मेरे लिए कार्य करना,
नहीं तुम्हारे बूते का|
बाबू तुम भाग जाओ|
जाओ बनाओ किसी वातानुकूलित घर में
योजना मेरे उद्धार की|

12.7.14

अजनबी शहर में मर जाना

किसी अजनबी शहर में मर जाना|
मर जाना किसी ऐसी जगह पर
जहाँ नहीं हो कोई अपना|
मर जाना किसी ऐसी जगह पर
जहाँ जिंदगी से ज़्यादा क़ीमती हो अपना सपना|
मर जाना ऐसी जगह पर
जहाँ नहीं हो मयस्सर एक बूँद पानी सूखते होठों के लिए|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ चंद सिक्के हों ज़रूरी चमकते बूटों के लिए|

मर जाना ऐसी जगह
जहाँ से माँ न देख पाए राख भी|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ बीवी को भी न हो पाए एहसास भी|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ के लिए बच्चे केवल इंतज़ारी हों|
मर जाना ऐसी जगह
जिसके लिए पिता का कंधा अभी भी भारी हो|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ केवल मिलती हो दमघोटू साँसें|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ बिकती हो रूहें और सजती हों बारातें|

मर जाना एक चार बटे चार के कमरे में
जहाँ मौत से भी बुरी हो जिंदगी|
मर जाना है ऐसी जगह
जहाँ मौत की वजह ही हो बंदगी|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ लोगों को पता चले सड़ांध मार रही हो जब लाश|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ के लानतें ही नसीब होती हों पास|
मर जाना ऐसी जगह पर
जहाँ किसी को न हो पता
कि कौन है वारिस इस लाश का|
मर जाना ऐसी जगह
जहाँ कितने ही कुंठित मर रहे हैं
और मर रहा है हर एक सपना पाश का|

राज के कपूत

बीते पाँच साल, हुए तुम मालामाल,
किया कोई ना ख़याल पड़े हम किस हाल में.
चले बनने मेरे दूत, करने कुर्सी मजबूत,
मेरे राज के कपूत, राज करोगे भोपाल में.
कि हम रहेंगे बेहाल, तेरी महकेगी थाल,
बढ़ाके मेरा जंजाल, माल काटोगे तुम माल में
सुनो 'विद्यार्थी' का जवाब, अब करेंगे हिसाब,
मत देंगे, पर नहीं तुम्हें किसी हाल में.

असमंजस

धरा-व्योम,
जल-वायु,
अग्नि
हे मेरे निर्माता!
तुम पाँचों में से कौन प्रमुख है 
जो मेरे काया का शासक है? 

शशि-दिनकर
मेरे पथ प्रदर्शक!
किसके कहे चलूँ
तो लक्ष्य हो संधानित?

खनिज-अन्न,
अर्थ-अभाव,
मेरे पालक!
किस दिशा में हैं निवास तुम्हारा?

पर्दे के पीछे

मूछों के नीचे मैं हिन्दू
दाढ़ी के नीचे तुम मुसलमान,
फिर तो हो चूका भारत निर्माण
बन चुका हिन्दुस्तान|

तलवारों से मैं नरबलि करता,
तुम करते हो मानव हलाल
फिर कर चुका मैं भाई-चारा
तुम मिटा चुके बवाल|

वेदों में मैं हिंसा ढूढूँ
तुम मार-काट कुरआन में
फिर बन चुका मैं विश्वगुरु
तुम तालीम याफ़्ता जहान में|

लिखूँ तो किस पर?

कई प्रदेशों गरमाए सियासी माहौल पर 
या किसी के प्यार के उड़ रहे माखौल पर, 
दस्तक दे रही गुलाबी ठण्ड पर 
या प्रकृति द्वारा मिल रहे दूसरों के दंड पर, 
किसी अच्छे कार्य के लिए अपने मुंह मिया मिट्ठू बनूं 
या गिरती जा रही मीडिया साख पर सिर धुनू,
दोस्तों की बेवफ़ाई पर
या अपनी जग हंसाई पर,
जीवन जीने की प्रबल इच्छा पर
या मृत्यु को वरण करने की परीक्षा पर,
ग़रीबी से तड़पकर मर रहे लोगों पर
या अमीरों की फ़िज़ूल खर्ची और भोगों पर,
राष्ट्र में बढ़ रहे विभिन्न विवादों पर
या न्यायालय में दीमक द्वारा खाए जा रहे फरियादों पर,
दीवाली और मोहर्रम के पटाखों पर
या बालदिवस पर रो रही नन्हीं आखों पर,
अनायस ही ताज़ा हो रही कुछ पुरानी यादों पर
या पिछले दस दिनों के अकेलेपन में खुद के संवादों पर.

मैं और मेरा असमंजस दोनों ही 

आपस में जूझ रहे हैं. 
लिखूं तो किस पर?

विरोधी शब्द

शब्दाभाव और विषयहीन होते हुए भी 
होती है लेखन की इच्छा 
और 
कभी-कभी लिख देता हूँ. 

कुछ सरस, कुछ नीरस, 
कुछ समग्रता, कुछ अभाव,
कुछ आधार, कुछ निराधार,
कुछ समुद्र, कुछ पहाड़,
कुछ नदी, कुछ नलिका,
कुछ पुष्प, कुछ कलिका,
कुछ जीवन, कुछ मृत्यु,
कुछ तर्क, कुछ कुतर्क,
कुछ भाव, कुछ विरक्ति,
कुछ सघन, कुछ विरल,
मुछ बंधन, कुछ मुक्ति,
कुछ निबंध, कुछ सूक्ति,
कुछ अंध, कुछ आलोक,
कुछ देव, कुछ दैत्य,
कुछ प्रसन्न, कुछ दैन्य,
कुछ समतल, कुछ उत्ताल,
कुछ मध्यम, कुछ वेग,
कुछ शून्य, कुछ अनंत.

ये शब्द जो सबको हैं विदित
इस संसार में,
ये शब्द जो हैं धुर विरोधी
एक-दूसरे के.

रात

रात दर्द है लुटते हुए श्रृंगारों का, 
रात प्रमाण है ख़ूनी तलवारों का, 
रात साथी है भूखे सेंधमारों का, 
रात आवाज़ है दिन में घुटी हुई पुकारों का. 

रात एक जज़्बात है, 
रात एक सौगात है, 
कवियों की कलम-दवात है,
रात सुकून से मुलाक़ात है.

रात प्यास है,
रात आस है,
रात लिबास है,
रात अट्टाहास है,

रात प्यार है,
रात दीवार है,
रात अंगार है,
किसी की संसार है

अनंत की यात्रा पर

मैं एक यात्रा पर हूँ.
जीवन रथ पर सवार 
चल पड़ा हूँ अपनी प्रियतमा
अनंत की ओर,
संवेदना सारथी और 
पीड़ा सहयात्री है.
मृत्यु मेरा मित्र,
श्मशान मेरी ससुराल है.

प्रेमिका मेरी प्रतीक्षा में है
किन्तु
पहले मैं मिलूँगा मित्र से.
मेरी प्रिया से तो वह स्वतः ही मिला देगा.
लेकर जाएगा मेरी बारात
उसके द्वार तक
बाजे-गाजे के साथ.

अग्नि से मेरा साक्षत्कार कराएगा
मेरा ब्याह रचाएगा
श्मशान में,
और मैं समा जाऊँगा
सदैव के लिए
अपनी प्रियंवदा के आलिंगन में.

तमन्ना

'तमन्ना'
आज मुझे फिर मिली
पर मैंने उससे बात नहीं की.
वह मुझे हर रोज़ मिलती है
हर रोज़ कहती है मुझे अपने दिल में बसा लो
मैं हर रोज़ उसे झिड़क देता हूँ
क्योंकि मुझे पता है
मैं एक दिन उसे अपने दिल में जगह दूंगा
तो वह मुझे कंगाल कर देगी,
मुझे पता नहीं कितनों से लड़ा डालेगी.
एक दिन मैंने उससे कहा
भई देख मैं किसी और से प्रेम करता हूँ
तू मेरा पीछा छोड़ दे
पर बड़ी ढीठ है
सबके सामने मुझसे चिपक जाती है
और कहती है
देख बिना मेरे तेरा गुज़ारा होने वाला नहीं है
तू जिससे प्यार करता है
वह तुझे घास नहीं डालती.
मैं चौबीसों घंटे तेरे लिए तड़पती हूँ
तो तू मुझे डांटता है?
 मैंने उससे कहा तू अपनी बेशर्मी से बाज आ
मुझे छोड़ दे
दुनिया में और भी बहुत हैं
तू जिनके पास जायेगी
तेरी ख़ूबसूरती को वे हाथों-हाथ लेंगे
पर मेरे पास मेरी झिड़की के अलावा
तुझे कुछ न मिलेगा.
एक बात तुझे मैं और बता दूं
तू अगर मर जायेगी
तो मैं और अधिक खुश ही होऊंगा.

मेरी परवरिश ही ऐसे हुई है
कि ज़िंदगी में मुझे तेरी कभी
ज़रूरत ना पड़े.
मेरे माता-पिता ने बचपन में ही
मेरा ब्याह तय कर दिया है.
तब से मैं बस एक को ही जानता हूँ
वही मेरी प्रेयसी है
उसी में है मेरी श्रद्धा भी
वही मेरी अर्धांगिनी भी बनेगी
जिसका नाम है
'संतुष्टि'