शब्द समर

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31.3.15

रुपयों की उड़ान


महीना पूरा होते ही मेरा ATM कार्ड हो जाता है
बहुत ही वज़नी|
 
लगता है जेब से फिसलने|
जैसे ही उसे डालता हूँ मशीन में
लपलपाती, चमचमाती  लाल, पीली, हरी
उगलने लगती है मशीन|

आँखे भी पैदा करने लगती हैं,
बिजली की चमक|
जेब अभी भी भारी ही लगती है
लेकिन उसमें एक अजीब से कुलबुलाहट होने लगती है|
माजरा समझने की कोशिश की
तो पता चला पैसे पास में आते ही
उनके पंख लग गये हैं|
वे कहते हैं,
"
अरे पगले मैं कब तेरा था जो आज रहूँगा?"
और शुरू हो जाती है उनकी उड़ान|
मैं उनके पीछे-पीछे चाहत भरी नज़र लिए
दौड़ने लगता हूँ|
मेरे जेब रूपी कोटर से निकलकर
कुछ उड़ चलते हैं
पड़ोसी अकाउंटटेंट दूकानदार के पास
महीने भर का सारा खाया-पिया हज़म करने के लिए|
सादा पी कर सेहत बनाई
और चाय के निकोटीन से गैस की बीमारी पाई
लेकिन भैंस घास खा कर तो दूध नहीं देगी न?
उसके पैसे तो देने ही पड़ेंगे?
भाई साहब फल-फ्रूट भी तो खाए हो
तोंद निकल आई उसकी क़ीमत
क्या प्रधानमन्त्री चुकाएँगे?
अरे घर में शौचालय बन रहा है
कल पिता जी का फ़ोन आया था|

हेलो भैया/दीदी?
मुझे कहते भी शर्म आ रही है
पर क्या करूँ ज़रूरत ही ऐसी है
कुछ रुपए चाहिए थे,
मैं अगले महीने लौटा दूँगी|
कभी पड़ोसी, कभी मित्र, रिश्तेदार,
कभी रिश्तेदार के रिश्तेदार
आखिर रिश्ते बनते ही इसलिए हैं का वास्ता देकर|

22 तारीख़ तक वह स्वर्णिम दिन आ ही जाता है
जब ATM कार्ड चुपचाप पर्स में सो जाता है|
और पर्सधारक पहुँचते हैं
किसी मित्र के पास बड़े ही मधुर स्वर में कहते हैं,
"
भाई मैं आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ
पर क्या आपके पास 10 रुपए होंगे?
मेरे मुँह में छाले पड़ गए हैं दवा लेनी है?"
फिर प्रवचनों के साथ फिर पर्स को
थोड़ा सा वज़न मिलता है और
दुकान पर पहुँच कर वह
सुस्ताते हुए सोचने लगता है दवा लूँ
या बहुत दिन हो गये पानी-पूरी खाए?


23.3.15

अलौकिक प्रेम

कल
मिली मुझे
एक सुनहरे केशों,
उत्ताल तरंगी नयनों वाली,
हिमरंगी, बासंती वस्त्रों से सजी हुई
एक अद्भुत कन्या|
 
देखते ही
विस्मृत नेत्रों से
हो गया प्रेम प्राकट्य मेरा|
हृदय को सहना पड़ा
तिरस्कार उसका
उसी क्षण
उसके असहज नेत्रों
और कम्पित
सितारी स्वरों से|

मैंने पुनः की चेष्टा
स्थापित करने को
अपनी प्रेमिच्छा
"मैं नहीं कह सकता यह
न होगा कोई श्रेष्ठ मुझसे
इस संसार में
किन्तु
इतना अवश्य
कह सकता हूँ
कि
हूँ श्रेष्ठतर मैं भी कईयों से|"

इतना सुनते ही
उसके हाथ हुए अग्रसर
पिपासी
अधर
मुड़े थे मेरी ओर,
और होने ही को था
आलिंगित उससे
तभी
बार-बार गूँजने लगा एक स्वर,
उठो कविराज!
क्या इतनी भोर
शैय्या पर ही काव्यपाठ करोगे?
और अलौकिक संसार से
लौकिकता में आ गया मैं|