शब्द समर

विशेषाधिकार

भारतीय दंड संहिता के कॉपी राईट एक्ट (1957) के अंतर्गत सर्वाधिकार रचनाकार के पास सुरक्षित है|
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18.12.10

मै नितांत अकेला

बचा हूँ
मै नितांत अकेला,
क्योंकि मैनें लड़ी थी
लड़ाई बर्चस्व की.
मैं,
पीछे नहीं हटा
रचने में षड़यंत्र उनके विरुद्ध
जो रहते थे शेष नाग की तरह
छत्र किये हुए
मेरे सर पर.
मैं पीछे नहीं हटा
प्रयोग करने में चारों नीतियां
(साम, दाम, दंड, भेद)
जो वास्तव में होती हैं शत्रु के लिए.
मैनें अपनाई आंग्लनीति
तोड़ने को उनका घर
जो थे मेरे मध्य रात्रि के भी
दुखानुगामी
मैं करना चाहा विनाश
अपने ही परिजनों का
क्योंकि मैं चाहता था
स्थापित करना स्वयं को सबके बीच.
मैनें चलाए तलवार से भी घातक
शब्दबाण,
कर दिया उनका सर
धड से अलग
और तड़पने को छोड़ दिया उन्हें
सूखे बरगद की तरह.
उनके सहचरों को बनाया अपना मित्र,
उनका शत्रु,
तोड़ दिया उनकी ही कमर
जिनके रीढ़ के सहारे
मै खुद खड़ा था.
मेरे इस चाल को समझ गये मेरे
कृत्रिम हितैषी.
वे समझ गये,
कल हमसे भी करेगा यही-
छल, कपट, धोखा, फरेब, जालसाजी,
धकेल देगा हमें भी
विषैले कुएं में
मीठे पानी का लालच देकर.
वे समझ गये,
सहज प्रवृत्ति मानव की
जो करता है किसी एक से
कुटिलता निज स्वार्थ हेतु
वह नहीं छोड़ता किसी को भी
अपने चक्रव्युहू से.
सब कर गये मुझसे किनारा
मैं
अब बचा हूँ बे सहारा.
मेरे हाथ-पांव अब ढीले हो गये हैं,
मेरी विषैली वाणी
अब घी उडेलना चाहती है,
किन्तु नहीं है कोई सुनने वाला.
मेरी दसों उंगलियाँ एकत्र होकर
गिडगिडाना चाहती हैं,
पर कोई अब मुझे दुत्कारता भी नहीं
लोग अब मुझे अब ताकते तक नहीं
जबकि मैं पुनः बैठना चाहता हूँ
उन्ही के बीच
जिन्हें मैंने बना लिया था अपना अनुगामी
कुटिलता से.
लेकिन मैं समझ गया
नहीं देखेंगे वे मेरी तरफ
क्योंकि
मैं
हूँ
स्वार्थी, कपटी, छली, विश्वासघाती,
आस्तीन का सांप, पाखंडी, घमंडी,
अनंत दुर्गुणों का आलय.
और न जानें क्या-क्या........
मुझे
नहीं था पता,
मेरे दुष्कर्मों की सजा
मेरे देखते यहीं मिल जाएगी.
अब मैं क्या करूँ
मैं
हो गया हूँ
असहाय,
नितांत अकेला.

1.12.10

कवि की बात कांटे सी

क्षमा करना मित्रों,
आपको खलती है मेरी बात.
क्योंकि मै कहता हूँ
सत्य.
सत्य, जिसमें होता है स्वाद नीम-करेले का.
सत्य, जो देता है पीड़ा तीव्र ह्रदय गति के धौकनी सा.
हमारी जाति ही ऐसी है
जो कहती है खरी बात.
हमारा एक शब्द होता है जन्मदाता
कई अर्थों का.
तभी तो 'बिहारी' बने 'गागर के सागर '
आप हमारे पाठक
करते हैं
हमारी पंक्तियों का विश्लेषण
अपने ढंग से
और ढाल लेते हैं अपनी परिस्थिति में.
कई बार जब हम याद दिलाते
किसी दुसरे की औकात
तब आप बजाते हैं तालियाँ
दुदुंभी की तरह,
और कई बार आपको होती है पीड़ा
असहनीय.
क्योंकि समझ लेते हैं आप उसे
अपना मान-मर्दन.
खैर,
इसमें नहीं है कोई दोष
आपका या हमारा
इसका दोषी है समय
जो गढ़ता है ऐसे वातावरण
और उस वातावरण के रचनाकार होते हैं
आप,
स्वयं.

कीचड में कमल

मैनें देखा एक तालाब,
उसमें खिले थे कई कमल.
बेहिचक कर गया प्रवेश मैं उस सरोवर में,
तोड़ने एक फूल.
लेकिन ये क्या?
इसमें तो कीचड़ ही कीचड़ है.
मन ने मुझे समझाया,
बेटा!
कमल कीचड़ में ही खिलते हैं.
थोड़ा आत्मविश्वास जगा,
सोचा एक डुबकी लगा लूँ
फिर बढ़ाऊं कदम अष्टदल की ओर.
लेकिन जैसे ही डुबकी लगाया
तो समझ में आया
यहाँ एक नहीं लगभग कई मछलियाँ मरकर सड़ चुकी हैं
जिनसे फैली है सड़ांध पूरे सरोवर में.
ओ हो! मेरा तो नाक की फटा जा रहा है इस दुर्गन्ध से.
कीच का कमल तो सुंगंधित होता है
किन्तु क्या सड़ी हुई मछलियों के बीच का भी
कमल होगा सुंगंधित ?
कभी नहीं.
तो?
अब
करूँगा पानी में रहके मगर से वैर,
फेकुंगा बहार सारी सड़ी मछलियों को,
करूँगा परिमार्जित इस सर जल को.
तब पुनः अरविन्द बिखेरेगा अपना सौरभ
और करेगा आकर्षित जन-जन को अपनी ओर
तब केवल मेरे ही नहीं
कईयों के कदम बढ़ेंगे कमल की तरफ
जो खिलता है कीचड़ में
किन्तु महकता है,
अनंत गगन में.

30.11.10

जो ग़लत है वो ग़लत है...

मैं जाति का कवि. अभी दो-चार दिन पूर्व कुछ घटनाओं को देखकर एक कविता लिख  डाली. लिखा ही नहीं वरन वर्तमान संचार साधनों का उपयोग करते हुए अपने पाठकों को मेल पर भेज भी दिया. इस पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए मेरे एक शुभचिंतक ने मुझे सदबुद्धि का पाठ पढ़ा डाला. ज़रा उनके शब्द भी पढ़ लें, "आप ग़लत को ग़लत नहीं कह पाते, भगवान आपको सदबुद्धि दे." इस बात से मै आहत तो नहीं हुआ किन्तु अपने आप को लेकर चिंतित अवश्य हुआ. आजकल लोग अपने विरोधियों के लिए करते हैं, मैनें  स्वयं  लिए ही सदबुद्धि यज्ञ कर डाली. यज्ञ से प्रसन्न हो मेरी आराध्य देवी माँ सरस्वती एवं कर्मयोगी भगवान  लीला बिहारी श्री कृष्ण प्रकट हो गये.
मै उनसे बोला, मैंने मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फसाद जैसे अनैतिक कार्य छोड़ दिए हैं इसलिए लोग मुझे कोस रहे हैं. लोग कहते हैं की मै बुजदिल हूँ, डरपोक हूँ, ग़लत को ग़लत नहीं कह पाता. मुझे संदेह है कही मेरा पुरुषत्व क्षीण तो नहीं हो गया? यदि मारपीट, लड़ाई-झगड़ा दंगा-फसाद जैसे अनैतिक और निर्दयतापूर्ण कार्य ही ग़लत को ग़लत कहने और निर्णय का उचित तरीका है तो मेरा ह्रदय परिवर्तन क्यों?
इस पर दोनों के चहरे पर मुस्कान दौड़ गई. फिर श्री कृष्ण ने कहा- तुम्हारा मात्र ह्रदय परिवर्तन किया गया है, न कि तुम्हारी शक्तियां छीनी गई हैं. तुम स्वतः सोचो कि आज हर एक व्यक्ति आपस में ही दुश्मन हो गया है. अपने ही लोगों से छल-कपट करने लगे हैं. अपने ही परिजन कब अपने निकतम के लिए गड्ढा खोद दें मुझे भी पाता नहीं चलता. लोग मिलते तो हैं प्रसन्नता से किन्तु इतने शातिर होते हैं कि अगले ही पल एक-दुसरे के खिलाफ ऐसे तलवार उठा लेते हैं जैसे जन्म-जन्मान्तर के धुर विरोधी हों. लोग हमें भूलते जा रहे हैं. अगर तुम भी इन कुटिल और अनाचारियों के क्रम में खड़े हो गये तो हमारा अस्तित्व कौन बचाएगा?
फिर माँ सरस्वती बोलीं- तुम्हारी शारीरिक शक्ति अभी भी यथावत हैं, बल्कि हमने तो तुम्हे एक अतिरिक्त शक्ति दी है, तुम्हारी कलम. मारपीट तो लोग भूल जायेंगे किन्तु कलम कि मार कभी नहीं भूल पाएंगे. तुम किसी बात कि प्रमाणिकता बोल के नहीं बल्कि लिख कर करोगे. क्या भूल गये 'दिनकर ' की बात कि "कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, दिल ही नहीं, दिमागों में भी आग लगाने वाली." तुम अपने इस लेखनी से अनैतिक को अनैतिक कह कर अपने बुद्धिमत्ता का परिचय दोगे. ये मान लो कि अब तुम्हारा काम बोलना नहीं, अब तुम्हारा काम लिखना है. लोग तुम्हे डरपोक कह कर उकसाते हैं ताकि तुम फिर पथभ्रष्ट हो जाओ. इतना कह कर वे अंतर्ध्यान हो गये.
मैं धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ एवं आभारी हूँ उस शुभचिंतक का  जिन्होंने मेरे आराध्यों से मेरा साक्षात्कार कराया. अगर दो लोग आपस में मिलकर सदभाव से कोई कार्य नहीं करते, दूसरों से द्वेष करते हैं और हर बात पर झगड़ते हैं, तो ये ग़लत है. और जो ग़लत है वो ग़लत है. ग़लत है, ग़लत है और ग़लत है. मै ग़लत को ग़लत कहता हूँ किन्तु गला फाड़ के चिल्लाकर नहीं बल्कि अपने कलम से क्योकि मै राजनीतिज्ञ नहीं एक कवि हूँ.

27.11.10

जीवन की तलाश में...

चल पड़ा था जीवन की तलाश में.
प्यास लगी.
संयोग से एक कुआँ दिखा.
पानी पीने चला आया,
बिना सोचे-समझे.
कुआँ गहरा है ये तो पता था,
किन्तु इतना गन्दा है, ये कभी मालूम न था.
खैर आ ही गया हूँ
तो गगरी भी डालूँगा,
पानी भी निकालूँगा,
चाहे हलाहल विष ही क्यों न हो
पर दो घूँट पियूँगा ज़रूर.

11.11.10

बारह बरिस की तरुणाई

बारह बरिस की तरुणाई आइ कपार पै नाचन लगी है,
आँखन में एक सुन्दर कन्या आइ चिकोटि काटन लगी है,
करवट लेइ-लेइ रात बितायउँ, कैसन नींद उचाटन लगी है,
बारह बरिस की तरुणाई आइ कपार पै नाचन लगी है,

रोंकी न पायउँ पैरन का इ अपनेन मन से डोलि रहे हैं,
गुटखा-पकरा स्वादिष्ट लागइ जीवन मा विष घोलि रहे हैं,
बड़ेन क बात नीक न लागइ सोची थे ई का बोलि रहे हैं,
रोकी न पायउँ पैरन का इ अपनेन मन से डोलि रहे हैं.

दउडऩ लागें इहाँ से उहाँ मन कैसन होइ गये हैं चंचल,
गोरी दु़पट्टा देखि लहराई, नीक न लागइ माता के आँचल,
बाप के बोली गोली अस बाजइ, गुस्सा से घर मा होइ जाथी हलचल,
दउडऩ लागें इहाँ से उहाँ मन कैसन होइ गये हैं चंचल.


घर के सगलउ टाठी-खोरिया अउ बाप के पैसा उड़ावन लगे हैं,
संझा ·की बेला चकला मा जाइके रोज नई नारी नचावन लगे हैं,
समाज के कउनउ फिकिर न ·किन्हेन अपनेन काज रचावन लगे हैं.
घर के सगलउ टाठी-खोरिया अउ बाप के पैसा उड़ावन लगे हैं.

अपने पड़ोसी भैया का देखि ब्याह के फिकिर सतावन लगी है,
प्यारी सी गोरी सी सपने मा आइके 'विद्यार्थी'· के सेज सजावन लगी है,
एक झलक देखाइ के हमका उ पाछे अपने दउड़ावन लगी है,
अपने पड़ोसी भैया का देखि ब्याह के फिकिर सतावन लगी है.

पोथी-किताब मने न भावइ पिक्चर सनीमा लागई सुहावन,
मन्दिर, स्कूल के डेहरी गन्धाथी कोठा के कमरा लागथइ पावन,
दुर्गा अउ काली के नाम न सोहइ श्री देवी का लागन मनावन,
पोथी-किताब मने न भावइ पिक्चर सनीमा लागइ सुहावन.

2.11.10

हार की जीत

धैर्य नहीं तुम खोना मीत
क्योंकि यही है दुनिया की रीत,
पहले शिकस्त होती है
फिर हार के बाद होती है जीत.
धैर्य नहीं तुम खोना मीत

कितनी भी मुसीबतें आएं
सर पर चढ़ कर गाएँ
अपना मनोबल ऐसा रखो
की डर कर तुमसे भाग जाएँ
ऐसी रचो कहानी
बन जाओ सबके मन मीत
धैर्य नहीं तुम खों मीत

नहीं पकड़ना ऐसी राह
कभी लगे गरीबों की आह
अगर कोई गिर भी जाये
उठाना उसको पकड़कर बांह
बिछड़े ना कोई तुमसे
रखो सबसे ऐसी प्रीत
धैर्य नहीं तुम खोना मीत

करो सदा ईमानदारी
गाएगी तुमको दुनिया सारी
मन में सदा धीरज रखो
होगी एक दिन विजय तुम्हारी
तुम्हारे सच्चे कर्म यही
बन जायेंगे एक दिन गीत
धैर्य नहीं तुम खोना मीत

खुलेंगे बंद दरवाज़े
बजेंगे घर में विजयी बाजे
'विद्यार्थी' पूजे संसार में तुम
आएँगे लोग पूजा की थाली साजे
वर्षों मात खाने पर
होगी एक दिन 'हार की जीत'
धैर्य नहीं तुम खोना मीत

वक्त की आवाज़

मैं नहीं रुकता एक पल
विद्युत् सी है गति मेरी
चलना है तो चल मेरे संग
ओ मनुज क्यों करता देरी?
मैं नहीं रुकता एक पल

व्यर्थ मत गवां मुझे
उपयोग उचित कर मुझे
कल को क्या करना है
अभी सोचना है तुझे
चलता रहता मैं सदा
जैसे बहता नदी का जल
मैं नहीं रुकता एक पल

मस्तिष्क को बड़ा कर
ख़ुद को अपने पैरों पर खड़ा कर
पकड़ ले मुझे ज़ल्दी से
और मुझ संग चला कर
थोडा भी जो छूटा संग मेरा
तो हो जाऊंगा बीता कल
मैं नहीं रुकता एक पल

जो तू मुझको खोएगा
तो बहुत ही रोयेगा
फिर न मिलूँगा तुझको
कितना भी संजोयेगा
सुन ले मुझ 'वक्त की आवाज़'
ओ 'विद्यार्थी' के मस्तिष्क कल
मैं नहीं रुकता एक पल

20.10.10

प्रगति पथ पर बढ़ता भारत

एक रात मैं सोया। रात करीब एक बजे आँख लगी तो मैंने अपने आपको एक चौड़ी-चमकदार सड़क पर पाया, पहले तो मैं अचंभित हुआ पर बाद में घर का पता ढूढने के लिए आगे बढ़ गया।

देखता हूँ कि रास्ते में दो महिलाएं गहनों से सधी-धजी हाथ में पूजा की थाली लिए चली जा रही हैं। अचानक बाइक सवार दो युवकों ने उनके गले में हाथ डाला और चेन गायब। औरतें चिल्ला रही हैं पर उनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है। इसके पहले वे मुझसे गुहार लगतीं मैं भी धीरे से वहां से सरक गया।

आगे बढ़ा किसी के घर से एक युवती की चीख़ सुनाई पड़ी समझते देर नहीं लगी की कोई दुश्शासन किसी द्रौपदी का चीरहरण कर रहा है। मैंने नज़र दौड़ाई की कोई पांडव या पितामह दीख जाएँ किन्तु कोई नहीं था, यहाँ तक कि लाज बचाने वाला कृष्ण भी नहीं. तो मैं भी नौ दो ग्यारह हो गया। घर बहुत दूर समझ आ रहा था।

बहरहाल आगे बढ़ा। किसी की बीवी, किसी का नौकर, किसी का मालिक, किसी का प्रेमी, तो कोई राह चलते अनेक हत्याओं को अंजाम दे रहे हैं। एक जगह भीड़ लगी थी। मैं रुक गया। एक आदमी की लाश पड़ी थी। पूछने पर पता चला की दो गैंगों की मुठभेड़ में मारा गया है। किसने मारा ये बताने को कोई तैयार नहीं था। ऐसा न हो की मुझे सरकारी गवाह बनना पड़े मैं वहां से भी चम्पत हो गया।

फिर आगे बढ़ा तो देखता हूँ एक बड़ा सा मैदान है जिसमें अनगिनत लोग खड़े हैं.उन सबके हाथ में कागज़ की तख्तियां हैं जिनपर कुछ नारे लिखे हुए हैं. सभी लोग मिलकर खूब शोर मचा रहे हैं. आरक्षण ख़त्म करो. हमारी मांगें पूरी करो. हमें विशिष्ट दर्जा दो इत्यादि. सामने पुलिस वाले कुछ लोगों को पीट भी रहे हैं.

कुछ दूर ही चला होऊंगा की देखता हूँ एक विदेशी कहीं जाने के लिए रास्ता पूछ रहा है और बताने वाला उसे गुमराह कर रहा है। जब गुमराह करने का कारण जानना चाहा तो उस व्यक्ति ने बताया कि बाद में वह लौट कर उसी के पास आएगा जिससे उसे हो फायदा होगा.

और आगे बढ़ा क्योंकि घर तो जाना ही था। ये क्या एक कार हवा की गति से चली आ रही थी और सड़क के किनारे चल रहे दो-तीन आदमियों को अपने पहिये तले रौंदती चली जा रही थी। मैंने स्पीड बोर्ड कि तरफ देखा वहां गति सीमा ४०-५० कि मी प्रति घंटा। मैंने नज़र दौड़ाई स्ट्रीट पुलिस नदारद। या रही भी हो तो भी छुप गयी हो।

मेरे हाथ में रेडियो था उस पर समाचार आ रहा था कि दो अज्ञात लुटेरों ने एक बैंक से करोड़ों रूपए छीन लिए। अगली खबर थी कि दो गुटों के बीच खुनी संघर्ष के कारन इलाके में कर्फ्यू लग गया। उससे भी बड़ी खबर यह आ रही थी कि किसी स्थान पर कुछ चरमपंथियों ने ट्रेन में आग लगा दी जिससे कई निर्दोष मारे गये उसके बदले में उस राज्य के मुख्य मंत्री ने अपने गुंडों को आदेश दिया है कि तीन दिन के भीतर उन चरमपंथियों के निर्दोष घर वालों को या उन धर्मावलम्बियों की जितनी संख्या कम कर सको कर डालो. दोषियों के दोष के बदले निर्दोषों का खूब खून बहाया जा रहा है.

आगे समचार था कोई वाम संगठन है जो शासन के खिलाफ लड़ाई में निर्दोष, असहाय ग्रामीण जनों की बस्ती उजाड़ रहे हैं तथा उनकी निर्मम हत्या भी कर रहे हैं. अपना हक मांगने का यह खतरनाक तरीका सुकर तो मेरे हाथ-पाँव सुन्न हो गये.

थोड़ा आगे बढ़ा तो एक बड़ा सा भवन देखा. अन्दर गया तो वहां सफ़ेद कुर्तों वाले लोग बैठे हुए थे. वे एक-दुसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे थे. इसी दौरान किसी बात पर एक व्यक्ति नाराज़ हुआ और उसने सामने वाले को माँ की....बोल पड़ा. उसके सामने वाला भी कुछ कम नहीं दिखा उसने उसको बहन की....बोल दिया फिर क्या था पूरे भवन में लोग कुर्सियां उठा-उठा के एक-दूसरे को मरने का प्रयास कर रहे हैं. मैं तो दंग रहा गया. वहीँ कुछ कैमरे धारी लोग इस घटना को क़ैद कर रहे थे. उनसे मैंने पूछा यह कौन सी जगह है तो उन्होंने बताया यह राष्ट्र का सर्वोच्च भवन है और ये जो कुत्तों की तरह आपस में लड़ रहे हैं ये इस राष्ट्र के करता-धर्ता नेता हैं.

अंततः चलते-चलते मैं थक गया तो एक पुलिस स्टेशन पर गया। वहां बड़ी-बड़ी मूंछों वाले एक साहब को सारा किस्सा सुनाया तथा उनसे पूछा- मैं कहाँ हूँ, तथा ये माज़रा क्या था?

साहब ने बताया कि श्रीमान आप अभी विश्व के सबसे बड़े जनसँख्या वाले तथा सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में हैं। आपने जो कुछ देखा वह लोकतंत्र का सदुपयोग था। विकासशील राष्ट्र विकसित होने के मार्ग पर है। भारत प्रगति पथ पर बढ़ रहा है। बस मेरी नींद ही उड़ गई ......

5.10.10

भीड़


यहाँवहांजहाँतहां,
सब जगह लोगों का हुजूम है।
सड़क परखलिहान में,
सागर मेंरेगिस्तान मेंजाने मेंअनजान में,
जमा हैं कई लोंग समूह बनाकर।

घरबाहरसर्वत्रकिसी न किसी बहाने एकत्र,
कहीं भी कोई भी स्थान नहीं है ख़ाली।
पटा हुआ है पृथ्वी का एक -एक कोना भीड़ से।
रोज लाखों जन्मते हैं अस्पतालों मेंघरों में,
कई तो कहीं भी ।

कई अंकुरित होते हैं
भारतीय संस्कृति में पाप बनकर....
या तो जन्मते ही नहीं या मार दिये जाते हैं
आँख खोने के पहले,
नहीं तो शासन ने कर दिया है उपकार
खोलकर अनाथालय।

इन्हें दूसरों का पाप भी कहा जाता है
जिन्हेंमाना जाता है वासना का प्रतिफल,
दिन-रात जलती रहती है हर श्मशान कि धरती,
मरते हैं करोड़ों किसी न किसी बहाने
जिन्हें कर दिया जाता है आग के हवाले या
ज़मीदोज़ हो जाते हैं साढ़े तीन फिट ज़मीन के नीचे।

बंदूकों सेतलवारों सेआत्मदाह से अत्यचारों से ,
कईयों के तो प्राण निकल जाते हैं
रोटी कि बाट जोहते
पंचतत्व रोज बाँटते हैं और
रोज पा जाते हैं अपने अंश वापस ।

अस्पतालों के हर वार्ड में कराहते,
सिसकते मिल जाते हैं
कई लोग,
किसी को सरदर्द तो किसी को बुखार की,
हृदयरोगशर्करा की अधिकता,
से लेकर हर प्रकार के मरीज।

सरकारी अस्पतालों में तो ऐसा भी है
कि खाली नहीं मिलते बिस्तर मरीजों को।
किसी को उलटी-दस्त,
कोई डायरिया से त्रस्त ,
कोई मिर्गी से खाया गस्त,
लेकर तबियत पस्त,
पहुँचते हैं अस्पताल में प्रतिदिन।

बस मेंट्रेन मेंप्लेन मेंकार में,
साइकिल मेंकरते हैं सफ़र प्रतिदिन
कुछ ही लोग जितने थे एक दिन पहले।
तिथि मेंत्यौहार मेंमेले मेंबाज़ार में,
जंगल मेंउद्यान में,
शो रूम मेंदुकान में,
खड़े-बैठेहंसते-बोलतेमिल जाते हैं लोग।

लोग ही लोग।
तिराहे परचौराहे परतीर्थ मेंधर्मशाला
स्टेडियम मेंपाठशाला में,
हर जगह उतने ही लोग रहते हैं हर दिन।
शहरों के फुटपाथ पर ओढ़े हुए कम्बल
या नंगे बदन
सहन करते हैं कई लोग,
चमड़ी को जला देने वाली कड़ी धुप ,
मूसलाधार बारिश ओला और पला।

यह प्रकृति का दो रूप ही है कि
वी आई पी वातानुकूलित भवनों में बैठ कर भी
तड़पता है
और ये नंगा
खुले आसमान तले भी मस्ती में रहता है।

सब मानव भीड़ है,
कोई भी नहीं कह सकता
अपने को अकेला
क्योंकि वह भी किसी न किसी जगह
बन जाता है भीड़ का हिस्सा।

यह सिलसिला नहीं होगा कभी ख़त्म
क्योंकि यह प्रकृति का नियम है,
सृष्टि में संसार,
संसार में मानव।
मानव हर रोज उपजता है और
नष्ट होता है कीड़ों कि तरह ।
रोजहर रोजदिन प्रतिदिन । 

15.3.10

ज़िन्दगी के अंतिम मुकाम पर



मैं तेरा नाम छोड़ जाऊँगा
तेरी नज़रें बस मुझको देखेंगी
मैं ऐसी शाम छोड़ जाऊँगा

तुझपे अक्सर सुरूर मेरा हो
मैं ऐसा जाम छोड़ जाऊँगा

इसके पहले कि दाग तुझको लगे
खुद को बदनाम छोड़ जाऊँगा

दुनिया तुझमे ही मुझको देखेगी
खुद को गुमनाम छोड़ जाऊँगा

ज़िन्दगी होगी जब अन्तिम मुकाम पर
खुद पे इलज़ाम छोड़ जाऊँगा