धीरे-धीरे
व्यक्ति भूलने लगता है,
अपकार भी,
उपकार भी।
अपकार भूलता है,
तो कृतज्ञता वश,
लगता है देने
सम्मान उसी को,
जिसने किया होता
है,
कभी घोर तिरस्कार
और अपमान भी कभी।
और जब भूलता है,
उपकार किसी का,
तो होता है कृतघ्न
इस प्रकार
कि नहीं हिचकता
करने में
तिरस्कृत,
उपेक्षित या अपमानित उसे
भी,
जो उसकी डूबती
नौका का,
रहा था सहारा भी
कभी।
अपकार भूल जाना,
एक श्रेष्ठ गुण
भी है।
इससे व्यक्ति के
महान बनने के,
खुलते हैं मनः
एवं व्यक्तित्व द्वार,
परन्तु उपकार
भूलना...?
उपकार करना
जितना ही है
श्रेष्ठतम कार्य,
उसे भूलना
नीचता की
पराकाष्ठा है।
यह कृत्य,
व्यक्ति के
व्यक्तित्व को न मात्र
नाराधमता की ओर
खींच ले जाता है,
बल्कि उसके अधमपन
को
सर्वत्र प्रदर्शित
भी कर देता है|
अतः अपकार भूल,
यदि उपकार न भी
कर सकें,
तो न करें कोई
खेद मन में,
परन्तु उपकार भूलकर,
अपकार न करें
किसी का,
प्रयास करें यहाँ
तक
कि शत्रु का भी पीठ पीछे अहित न हो।
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