शब्द समर

विशेषाधिकार

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26.6.13

चलो चलो रे चलो रे



आएं उत्तर की हवाएं, दक्षिण को ले जाएं
छाएँ पूरब में घटाएं, जाके पश्चिम में बरसाएं
सभी दिशाओं से आकर, बस एक ही गीत हम गाएं
चलो चलो रे चलो रे, चलो चलो रे चलो रे

सूरज आया निकल क्षितिज से, फिर तुम क्यों हो सोए
महाबली हो तुम बलशाली, किस्मत पर क्यों रोए
देखो अपनी भुजाएं, चाहो जैसा कर जाएं
फ़ौलादों की शाखाएं, ये चाहें सागर लंघ जाएं.
सभी दिशाओं से मिलकर, बस एक ही गीत हम गाएं
चलो चलो रे चलो रे, चलो चलो रे चलो रे

एक धरा है, एक गगन है, एक हमारी मंज़िल
एक आदम की औलादें, हौव्वा के हैं हम दिल
छोडो जाति की प्रथाएं, ये तो हैं विपदाएं
दूरी अपनी सब मिटाएं मानवता को धर्म बनाएं
सभी दिशाओं से मिलकर, बस एक ही गीत हम गाएं
चलो चलो रे चलो रे, चलो चलो रे चलो रे

तुम चाहो तो खलिहानों में भागीरथी आ जाए
तुम चाहो तो बंजर धरती सोने से लद जाए
छोडो आलस की अदाएं, समझो अपनी तुम क्षमताएं
तुमसे देश को आशाएं, चलो सागर को मथ आएं
सभी दिशाओं से मिलकर, बस एक ही गीत हम गाएं
चलो चलो रे चलो रे, चलो चलो रे चलो रे

14.6.13

अलसाया सूरज

आज सूरज भी अलसाया है.
और आँखे खोयी हुई हैं एक हसीन दुनिया में.
मदहोश चांदनी लिपटी हुई है बदन से.
और पूरे समय जगाये 
रखा अपने घर में .

पोर-पोर में जकड़न है,
और अंगड़ाई है युगल भुजंगिनी सी .
एक सितारी छुअन है
और झंकृत है आपादमस्तक देह.
परिंदों को आज दानें की फ़िक्र नहीं है.
उनकी दुनिया आज इसी घोसले में ही सिमटी है.
वक़्त थम गया है
क्योंकि आज सूरज अलसाया है

7.6.13

अतिरिक्त आदमी

दादा थे तब लाठी, दीदी हैं तब भी लाठी.
खादी थी तब भी लाठी, खाकी है तब भी लाठी.
पीठ थी तब भी लाठी, पेट है तब भी लाठी.
राज था तब भी लाठी, लोक है तब भी लाठी.
गोरे थे तब भी लाठी, काले हैं तब भी लाठी.
दाढ़ी थी तब भी लाठी, मूंछे हैं तब भी लाठी.
छोटे थे तब भी लाठी, बड़े हैं तब भी लाठी.
बाँझ थी तब भी लाठी, गर्भ है तब भी लाठी.
अंगूठा था तब भी लाठी, कलम मिली है तब भी लाठी.
गूंगा था तब भी लाठी, बोल फूटे तब भी लाठी.
अँधा था तब भी लाठी, दीख रहा है तब भी लाठी.
भूखा था तब भी लाठी, खाने लगा तब भी लाठी.
निःशक्त था तब भी लाठी, सशक्त हुआ तब भी लाठी.
निर्वस्त्र था तब भी लाठी, सवस्त्र हूँ तब भी लाठी.
आस्तिक था तब भी लाठी, नास्तिक हूँ तब भी लाठी.
घूंघट में थी तब भी लाठी, बाहर निकली तब भी लाठी.
पवित्र थी तब भी लाठी, लूट ली गई तब भी लाठी.
घर में सोया तब भी लाठी, पगडण्डी पर हूँ तब भी लाठी.
लाठी, लाठी, लाठी, लाठी,
सर से लेकर पाँव तक मुझको अब मिलती है लाठी.
दिन में लाठी, रात में लाठी, सुबह में लाठी, सांझ को लाठी,
बूढ़े-बच्चे, त्रिया-जवान सबको बस मिलती है लाठी.
जन्म में लाठी, जीवन में लाठी,
अब मेरा शव निकलेगा लगता है केवल खाकर लाठी.
लाठी, लाठी, लाठी, लाठी,
लाठी, लाठी, लाठी, लाठी.
मैं अन्य पुरुष हूँ, अतिरिक्त आदमी
जो नहीं है गिनती में
न मारने वाले की न खाने वाले की
कि कितनी मैंने खाई लाठी.
बस यही जाना मैंने कि बरस रही हैं
मुझ पर
लाठी दर लाठी,
लाठी दर लाठी.