शब्द समर

विशेषाधिकार

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26.2.16

मेरा आर्तनाद

हे भविष्य! 
मेरा आर्तनाद, नहीं सुन सकते तुम,
क्योंकि तुम हो मस्त,
मात्र अपने ही संसार में।

तुम हिंसक ध्वनियों में ढूँढते
हो सपने,
और मैं नीर-सुर में रहता हूँ लीन|
तुम तो जीना चाहते हो, 
मात्र अपनी प्रसन्नता,
और मैं दे रहा हूँ भार,
जीने को पूरा-का-पूरा समाज|

तुम देखना चाहते हो मात्र,
पैरों के नीचे की भूमि,
और मैं दिखा रहा हूँ,
सूर्य से भी आगे का संसार,
बनाना चाहता हूँ त्रिकालदर्शी तुम्हें|

तुम चाहते हो भरते रहना कुलाचें,
भाँति किसी शावक के,
और मैं बना रहा हूँ
गम्भीर, किसी सिंह समान|

इसीलिए,
तुम समझकर भी,
नहीं समझना चाहते,
किसी के हृदय का घाव,
नहीं ले पाते टोह,
धमनियों से बाहर रिस रहे, 
रक्त प्रवाह का|

तुम करते जाते हो निरन्तर चोट,
जैसे करता है लुहार, 
लोहे पर;
यह जानकार भी
कि होती है, 
कितनी असहनीय पीड़ा,
जब करता है प्रहार
कोई अपना, 
किसी अपने पर|

11.2.16

शूलपथ

हे पथिक!
तू नहीं है निर्बाध
इस भव में,
न ही निर्विघ्न है
तेरा यह यज्ञ ही|

जल जायेंगे
हवन करते हुए ही
तेरे हाथ
क्योंकि
तेरी आहुतियाँ ही
कर देती हैं उत्पन्न
विकराल अनल ज्वाल|

तूने जुटाया जो साहस
चुनने को शूलपथ
उसमें तेरा रंजित होना
होता है स्वाभाविक ही|

तूझे होती है पीड़ा
होने पर आहत
विषमय शर-प्रहारों से
क्योंकि
द्विजिह्व भुजंग
होता ही है मात्र विषवमन हेतु|

नहीं है तेरा जीवन
कीट-पतंगों की भाँति निरर्थक
न ही तेरा मन
होने को भयभीत
तुच्छ बाधाओं से|


अतः
तू गाण्डीव उठा
और कर निःशस्त्र जयद्रथ को विच्छिन्न
क्योंकि
पाषाण हृदयी को
मृदु वाणी से नहीं जीता जा सकता|