शब्द समर

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21.3.23

स्वतन्त्र राष्ट्र के बन्दी

याद करो वह साँझ सखे,
हम-तुम आलिंगित बैठे थे
गृद्ध-दृष्टिमय लोगों के
अँगुली से इंगित बैठे थे

उनके निर्दय वारों से
सुध-बुध हमने खोई थी,
पावन होते प्रेम के भी
रंजित और निन्दित बैठे थे।

दो जन पर दस जन टूटे
तिस पर पौरुष दिखलाते थे,
बौद्ध-मार्गी हम दोनों,
हाथों से बन्धित बैठे थे।

हम मौन सहे हर घात उनके
न दृष्टि कड़ी उनपर डाली
अपने ही जन के पापों से
पीड़ित और गन्धित बैठे थे।

पूरे-के-पूरे हम बन्दी
जीवन सारा परतन्त्र हुआ
स्वतन्त्र राष्ट्र के पिंजड़े में
पूरे प्रतिबन्धित बैठे थे।

सभ्यता का पतन

मैं शोक में हूँ
कि आदमी मर चुका है।|

शोक से भी अधिक
क्षोभ में हूँ
कि मरे हुए आदमी के शव की सड़ान्ध,
फैल चुकी है समूचे सरोवर में।

क्षोभ से भी अधिक,
आश्चर्य में हूँ
कि इस सड़ान्ध से,
किसी को कोई समस्या नहीं है।

आश्चर्य से भी अधिक
निश्चित हो चुका हूँ,
कि यह दुर्गन्ध
एक व्यक्ति की नहीं,
मरे हुए समस्त मानव जाति के,
सड़ चुके विचारों की है।

आदमी तो तभी मर जाता है,
जब मारी जाती है,
इसकी शिक्षा,
गाड़ दिया जाता है इसके विचारों को।

शिक्षा का पतन
मनुष्य
और उसकी सम्पूर्ण सभ्यता के मृत्यु की,
पहली निशानी है।

17.3.23

पी पी सर के लिए...

वो शख्स नहीं सरताज था,
जिसपर दुनिया को नाज था,
सब सीखते अन्दाज़-ए-बयां जिससे,
उसका अलग अन्दाज़ था|

वो शिक्षक नहीं सर्वमान था,
जिसपर सबको अभिमान था,
सब पढ़ते थे ज़िन्दगी जिससे,
चलता-फिरता संस्थान था|


वह ख़ास नहीं बस आम था,
काफी बस जिसका नाम था,
मुश्किलें भी जिससे कतरा जातीं,
ऐसा उसका मक़ाम था|

आँखें सबकी हैं भरी हुई,
पलकों से बूँदें झरी हुई,
वो शख्स दुनिया से क्या गया,
दुनिया है जैसे मरी हुई| 

पीपी सर (बाबा) को कोटिशः प्रणाम और भावभीनी श्रद्धांजलि