शब्द समर

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29.9.13

जीवन एक अंतहीन प्यास

क ऐसी कला जिससे जन्म लेते ही हर प्राणी प्रेम करने लगता है। मूक हो, या वाचाल, इस प्रेम से कोई भी अछूता नहीं है। यदि कोई किसी व्यक्ति से पूछे कि आप सबसे अधिक किससे प्रेम करते हैं? उस समय सामने वाले व्यक्ति की जो प्रतिक्रिया होगी, वह देखते ही बनेगी। क्योंकि इस प्रश्न के पश्चात् अधिकतर लोगों के समक्ष अपने किसी प्रेमी-प्रेमिका, या किसी घनिष्ठ का चित्र उभर कर आता है, जबकि प्रत्येक प्राणी, जिससे सबसे अधिक प्रेम करता है, वह है एक ‘कला’। वह कला कुछ और नहीं 'जीवन' है।
प्रत्येक जीव, जब तक उसके शरीर में रक्त संचरित होता, तब तक इससे चिपका रहता है, और विपरीत आने वाली हर परिस्थिति से लोहा लेने के लिए तैयार रहता है। शरीर के भीतर होने वाली विभिन्न क्रियाएँ ‘जीवन’ हैं। जैसे ही समस्त दैहिक क्रियाएँ बंद होती हैं, उसी समय कहा जाता है, “फलाँ जीव नष्ट हो गया।“ जीव का तात्पर्य है, सप्राण, या जिसमें ‘जीवन’ हो वही जीव है।
मेरी दृष्टि में ‘जीवन’ को मात्र चलने-फिरने का नाम दे देना अन्याय होगा। यह ऐसी कला है, जिसमें पारंगत होना सभी जीवधारियों के वश में नहीं है। ‘जीवन’ एक उद्देश्य है, जिसमें सुगम, और दुर्गम मार्ग से होकर निकलना पड़ता है। यहाँ सुगमता को प्रेम और दुर्गमता को घृणा का पात्र बनना पड़ता है। इसे प्रसन्नता और खिन्नता भी कहा जा सकता है।
जीव अपने ‘जीवन’ में मात्र, प्रकाश चाहता है, अन्धकार नहीं, जबकि वह भूल जाता है कि घड़ी की सुई किसी एक स्थान पर नहीं टिकती। यदि वह मनोरम और सिन्दूरी प्रकाश को जन्म देने वाली उषा काल का भोर बन नवोर्जा से सँवारती है, तो उसी प्रकाश को यौवन का रूप देते हुए तपती-चमकती धूप वाली दोपहरी भी बन थकाती है। यदि उसी प्रकाश के विलोपन, और अन्धारम्भ के मन्द समीर वाली संध्या बन लुभाती है, तो काली-घनी, सियारों और झींगुरों की ध्वनियों से भयभीत कर देने वाली पूर्णान्धकार वाली रात्रि के रूप में डराती भी है। यही प्रक्रिया अनवरत और निरन्तर चलती रहती है, सब के जीवन में। सृष्टि ने समस्त जीव धारियों को एक ही सुविधा सामान रूप से प्रदान किया है, वह है समय। किसी के समय की घड़ी की सुई कभी भी स्थिर नहीं होती, उसी प्रकार व्यक्ति के ‘जीवन’ में प्रकाश और अन्धकार भी स्थायी नहीं रहते, हाँ यह अवश्य है कि ऋतुओं के आधार पर प्रकाश और अन्धकार की समयावधि अधिक-कम होती रहती है। प्रकाश का गमन व्यक्ति को जितना ही शीघ्र प्रतीत होता है, अन्धकार का उसके ‘जीवन’ से प्रस्थान उससे भी कहीं अधिक विलम्ब से लगता है। कोई भी जीव अपने ‘जीवन’ में दुःख को समीप नहीं देखना चाहता, किन्तु सुख को वह प्रेयसी की भाँति आलिंगित किये रहना चाहता है। यहाँ प्रकाश और अन्धकार क्रमशः सुख-दुःख के प्रतीक ही हैं। अतः सूर्य और चन्द्रमा के पग-से-पग मिलाने वाली एक घड़ी है ‘जीवन’, जो साँसों की सुइयों के साथ निरंतर गतिमान होता है। 
‘जीवन’  पीढ़ी-दर-पीढ़ी हर प्राणी में अलग-अलग प्रकार से हस्तान्तरित होने वाली एक संस्कृति का नाम है। ‘जीवन’ एक प्रकार का जीवन और सामाजिक मूल्य है, जो कई सिद्धांतों और वर्जनाओं के जाल-रूप में गुँथा होता है, और प्राणी चाह कर भी उससे बाहर नहीं निकल पाता। ‘जीवन’ संक्रमण है, जो सकारत्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में प्राणी-से-प्राणी को प्रभावित करता है, और स्वयं से प्रेम करने के लिए एक-दूसरे को प्रेरित करता है। ‘जीवन’ वरण है, जिसे हर कोई अंत से अनंत तक अपने से आलिंगित किये रहना चाहता है। शरीर त्याग के पश्चात् भी, यश-अपयश के रूप में इस संसार में सनाम अमरत्व प्राप्त कर लेने का नाम है ‘जीवन’।
‘जीवन’ एक धारा है, जो अपने अनन्त जलधि की प्राप्ति के लिए, निरंतर बहता ही रहता है। अपने उद्गम से लेकर अनन्त के समाधि-संगम तक, अनगिनत गुण-दोषों को समेटे, दोनों छोरों को तृप्त-अतृप्त करता अविराम चलायमान रहता है ‘जीवन’।
‘जीवन’ ऐसा सहचर है, जिसे पाने के लिए सृष्टि जीव के समक्ष नित करबद्ध खड़ी रहती है। ‘जीवन’ ऐसा भोज है, जिसकी प्राप्यता के लिए हर जीव उसी प्राकर कतार में खड़ा रहता है, जैसे राजकीय व सहकारी विक्रय केन्द्रों में, निर्धनता के स्तर से नीचे जीवन यापन करने वाले लोग। सृष्टि जीवों को एक अनुपम और अद्वितीय उपहार देती है, जिसका नाम है ‘जीवन’। यह उपहार बिना किसी प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित हुए ही पुस्कार स्वरूप मिलता है। डॉ. हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में ‘जीवन’ मदिरा है, जिसका पान किये बिना इस सृष्टि का कोई भी आगन्तुक नहीं रह सकता।

अंत में ‘जीवन’ संघर्ष है। अपने अस्तित्व के महाभारत की रणभूमि है ‘जीवन’। यह ऐसा कुरुक्षेत्र है, जहाँ पाण्डव-कौरव भी,  रथी-सारथी भी और स्वयं कृष्ण भी, सभी कुछ वही होता है, जो जीना चाहता है। स्वयं को उपदेश देता है, स्वयं को स्वयं से मारता हैस्वयं ही परीक्षित को बचाकर कर अपने इच्छा रूपी वंश की रक्षा करता है। इसीलिए जितना मृत्यु के समीप है, उतनी ही एक अंतहीन प्यास है यह ‘जीवन’।

28.9.13

रोटी की क़ीमत


चलो दुनिया में हम अब रोटी की क़ीमत ढूंढ लें।
आओ भूलाने ग़म को हम अपनी नसीहत ढूंढ लें।

वो जहां गोदमों में वर्षों से राषन सड़ रहा,
उसको पाने की चलों हम सबकी नीयत ढूंढ लें। 
चलो दुनिया में हम अब रोटी की क़ीमत ढूंढ लें।

चंद टुकड़ों के लिए अब तक ग़ुलामी कर रहे,
उनकी मुक्ति की चलो अपनी तबीयत ढूंढ लें।
चलो दुनिया में हम अब रोटी की क़ीमत ढूंढ लें।

ऊंचे महलों में जहां एक काली दुनिया मस्त है,
पर्दे के पीछे की आओ सब हक़ीक़त ढूंढ लें।
चलो दुनिया में हम अब रोटी की क़ीमत ढूंढ लें।

बन के हम सैलाब निकलें इस जहां की भीड़ में,
तांडव के भूचाल सी हम अपनी हिम्मत ढूंढ लें।
चलो दुनिया में हम अब रोटी की क़ीमत ढूंढ लें।

5.9.13

मैं सम्पूर्ण तुम्हारा हूँ

देखो मैं लौट आया हूँ
ख़ुद-ब-ख़ुद,
पर तुम कहाँ हो?
 
तुम चाहते हो न
कि मैं तुम्हारे साये की तरह रहूँ?
तो लो अपने नस-नस का
क़तरा-क़तरा तुम में समाहित कर रहा हूँ.
सुनो मेरे क़रीब होकर भी
इतने दूर क्यों हो?
तुम्हारे होंठों के कमल पर
ये गोधूली का धुंधलका क्यों है?
तुम्हारे ये मृगनयन में
सागर क्यों छलक रहा है?

देखो मैं सम्पूर्ण आया हूँ
तुम्हारे ही पास
केवल तुम्हारे पास,
अब मेरे क़रीब किसी और की
परछाईं भी न पाओगे कभी.
बस एक बार अपने चेहरे पर
दीवाली का दिया जलाकर
इसे होली की भांति इंद्रधनुषी कर दो|