शब्द समर

विशेषाधिकार

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27.3.14

मैं पलायन करना चाहता हूँ



मैं सोच रहा हूँ  
कर लूँ पलायन
इस जिजीविषा से
|
मैं चला जाऊँ कहीं
अनन्त की यात्रा पर
लेकर अवकाश इस
सांसारिकता से
|

मैं सोच रहा हूँ जाकर
छिप जाऊँ
किसी स्याह अँधेरी
गिरि कन्दरा में
जहाँ नभ-मंडल और उसकी
तारिकाएँ हो रही हों दैदीप्यमान
आठों प्रहर
और हरण कर लें
अज्ञानलवदुर्विदग्ध इस अन्तः का
|

मैं सोच रहा हूँ
जाकर करूँ निवास,
किसी ऐसी मरुस्थली में
जहाँ समुद्र की उत्ताल-उच्छृंखल तरंगे
हिम की भांति हों स्थिर
और दे रही हों शन्ति मेरी
अन्तः के विचलन को
|

मैं सोच  रहा हूँ
चला जाऊँ किसी 
ऐसे हिम सागर में
जहाँ तपती हुई अग्नि शिखाएँ
भस्म कर दें मेरी
इच्छाओं को|

मैं सोच रहा हूँ
हो जाऊँ लुप्त किसी 
ऐसे अघोर वन में
जहाँ बजरियों की 
दीवारें रोक रही हो
प्राणघातक पवन को|

मैं सोच रहा हूँ
बैठ जाऊँ जेठ की 
दुपहरी में कहीं
जहाँ का मंद समीर
अपनी मंथर गति से
कर रहा हो
संताप मुक्त मुझे|

मैं पलायनवादी बनना चाहता हूँ
क्योंकि मैं नहीं चाहता
आगमी पीढ़ियाँ पढ़ें 
मात्र मेरा इतिहास
और मेरे चित्र के नीचे लिखा हो
विलुप्त प्राणी|