शब्द समर

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8.11.16

रेगिस्तानी-बगीचा


चित्र-साभार, गूगल 
रेत के इन लाल कणों के बीच, तुम्हारी सुर्ख आँखें, देखकर लगता है, जैसे मैं किसी नीले समुद्र में हूँ| बार-बार उठ रहे ये बवण्डर और तुम्हारी पलकें, मुझे इठलाती लहरों में डुबोने का एहसास कराती हैं| ये टीले, और तुम्हारी पुतली, किसी सुनसान टापू में ले जाकर छोड़ देते हैं| इस रेगिस्तान ने, और तुम्हरी आँखों ने, ज़रूर कोई सामुद्रिक विद्या पढ़ी है, तभी तो, तुम अपने वशी-यन्त्र से वशीभूत कर लेती हो मुझे|

रेत के इन लाल कणों के बीच, तुम्हारी आँखों को देखकर लगता है, जैसे मैं किसी हरे-भरे बगीचे में हूँ| बार-बार उठ रहे ये बवण्डर, और तुम्हारी पलकें मुझे, बलखाते झूले का एहसास कराती हैं| ये टीले, और तुम्हारी पुतली, किसी एकांत हरियाली में ले जाकर छोड़ देते हैं| इस रेगिस्तान ने, और तुम्हारी आँखों ने ज़रूर कोई इंद्रजाल पढ़ा है, तभी तो, तुम अपने मोहक-मन्त्र से मोहित कर लेते हो मुझे|

उसकी आँखों को निहारते वह ऐसे बोल रहा था जैसे किसी समुद्र में डूब रहा हो, लेकिन उससे बाहर नहीं निकलना चाहता| ठीक उसी के अंदाज़ में वह भी उसकी आँखों में ऐसे डूब गई जैसे किसी घने जंगल में हो|

वह बोले ही जा रही थी-“तुम बहुत ही मीठा गाते हो| ऐसा जैसे इस मरुस्थल की हवाएँ| जैसे भँवरा, किसी कली के कान में शहद घोल रहा हो| सच में, मेरा सावन, मेरे मेघ, मेरी हरियाली, मेरे त्यौहार, सिर्फ़ तुम हो| तुम्हारे आलिंगन में आते ही मुझे लगता है, जैसे मैं किसी दरख्त की शाखाओं के सहारे झूल रही हूँ, ऐसी शाखा, जिसे चक्रवात भी नहीं उखाड़ सकता| तुम्हारी गोद में सर रखते ही, मैं भूल जाती हूँ बिछौना भी| जब तुम्हारी अँगुलियाँ मेरे बदन पर सरगोशी करती हैं, तो मुझे लगता है, जैसे हरी-हरी दूब गुदगुदा रही है| जी करता है, तुम्हारी गर्दन में अपनी बाहें डाले, हमेशा लिपटी रहूँ, जैसे लता लिपटी रहती है, पेड़ों में| अहा! कितना मधुर गुंजन है तुम्हारा, जी करता है, बिखर जाऊँ पूरे बगीचे में, पोर-पोर भर दूँ, अपना रस-रंग तुममें| हाँ तुम गुनगुनाते रहो, ऐसे जैसे बाँसुरी|”

अचानक उसकी नज़रों को किसी गंधा पर टिकते देख, वह सिहर उठी, और अपने शहद को उड़ेलते हुए उसे अपनी ओर खींचने लगी- सुनो! तुम उस कली की ओर मत देखो, मैं बाग़ की सारी ख़ुशबू सिर्फ़ तुम्हरे लिए समेटे बैठी हूँ| तुम जिसे देख रहे हो वह बार-बार फूल बनने की कोशिश कर रही है, पर उसके रस में नशा टपक रहा है|
तुम कहते हो न कि तुम्हारी एक ही जूही है, तुम केवल उसी का पराग-पान करोगे, फिर दूसरी कलियों की ओर तुम्हारी आँखों का जाना, तुम्हारे, और मेरे दोनों के लिए ख़तरनाक हो सकता है| मेरी ओर देखो, तुम्हारी जूही पूर्ण-परागयुक्त है, आओ, तुम उधर मत देखो|
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तुम जूही के गुंजन हो? क्या वह इतना महकती है कि तुम किसी कुसुम के पास जा भी नहीं सकते? सुनो! मुझे भी संगीत से बहुत प्रेम है| क्या तुम मुझे भी वही भ्रमर-गीत सुना सकते हो, जिसे सुनकर, जूही हर रोज़ खिलती है, महकती है? अपने पराग-केसरों को उसके मुँह पर लिपटाते हुए वह कहती जा रही थी| आज मुझे भी महका दो न| मैं अपनी आँखें बंद कर लेती हूँ, ताकि मैं पूरी तरह तुम्हें अपने में उतार सकूँ| मेरे लिए भी वह गीत गुनगुना दो, जिसे सुन कर यह सारा बगीचा हरा हो जाता है|
उसकी यह बातें सुन, वह उसके दलों पर आकर बैठ गया, और फिर एक राग छेड़ दिया| वाह! गूँजते रहो, ऐसा लग रहा है, जैसे मेरा ब्रह्माण्ड ही गुंजित हो रहा है| क्या सचमुच कृष्ण भी ऐसी ही बाँसुरी बजाता था| सुनो! अब मैं खिलना चाहती हूँ, तुम्हारे पंखों के बीच, इजाज़त दे दो| देखो तो! मेरी पंखुड़ियाँ नाचते हुए कैसी दिख रही हैं, तुम इन्हें अपने पंखों के बीच आलिंगित कर लो| इस पवन में जो तुमने अपनी धुन भर दी है, वह मुझे मतवाली कर रही है| मेरा पोर-पोर नशीला हो रहा है, तनिक मेरे केसर की ओर देखो| इसके पहले कि मैं हो जाऊँ मधुहीन, अब मेरा पान कर लो| मेरे खिलने की ऋतु आ गई है| वह कहती जा रही थी, और वह अपनी सुध-बुध खो कर, उसके शब्दों के साथ, उसीमें विलीन होता जा रहा था| ओह मेरे गुंजन! कली से कुसुम बनने के मेरे सहयात्री, क्या अब भी तुम जूही के हो?
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इस हरे-भरे बगीचे में, असंख्य फूल हैं, पर सिर्फ़ तुम पर ही मंडराता हूँ| तुम्हारा पराग, तुम्हारा स्त्रीकेसर, पुंकेसर, परागकण सब-के-सब में आकर्षण की गुरुत्व शक्ति है| मैं तुम्हारे पुष्पदलों के नीचे अनंत दिनों तक बिना भूख-प्यास के सो सकता हूँ| अब मैं नहीं जाउँगा कभी भी वापस उस ऊबी हुई, एकरंगी जूही के पास| आज से तुम कुसुम नहीं, मेरी नौरा हो| मेरी और सिर्फ़ मेरी नौरा| मैं गुंजन नहीं, नौशन हूँ, तुम्हारा और सिर्फ़ तुम्हारा नौशन|
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मेरे पुष्पकेतु! तुम तो मेरे स्वामी थे न? मुझे ही विच्छिन्न कर दिया? समेट दिया मेरी ख़ुशबू को? छिटका दिया टहनियों को दर-ब-दर? शुष्क कर दिया मेरे पुष्पदलों को? बरसती धार की तरह बहते हुए वह कहने लगी| मेरा रज, मेरे केसर, मेरा मधु, मैंने सब कुछ तुम्हें समर्पित कर दिया| अपनी पत्तियों और शूलों से तुम्हें बचाए रखा, और सूर्योदय से सूर्यास्त तक खिलती रही तुम्हारे लिए| और अपने सायक से तुमने मुझे ही वेध दिया?

तुम मुझसे शिकायत मत करो| तुम एक मरुस्थल हो| वीरान मरुस्थल, जिसमें न हवा है, न पानी| तुम्हारे कण उड़ती हुई किरकिरी है, जो मेरी आँखों को घायल करते रहते हैं| तुमने अपने मन में मरीचिका पाला यह तुम्हारी भूल थी|  मुझे नौरा मिल गई है, जो जब खिलती है, तो सारा रेगिस्तान महक उठता है| रेत का एक-एक कण उसकी सुगंध से उन्मत्त हो जाता है| उसके चटकते ही, यह धूसर रेगिस्तान, एक बगीचा बन जाता है| तुम मेरे मन के साँचें से उतर चुकी हो, अब इसमें दुबारा नहीं सज सकती|
इसलिए मैं जा रहा हूँ, उसी बगीचे की सैर में| मैं उसकी हरियाली में, गुनगुना पाउँगा| रच पाउँगा कई और उसके जैसे ही पौधे| हो पाएगा कई और बगीचों का निर्माण| रसोन्मत्त वह दुत्कारे जा रहा था उषा को|
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उषा न हँस पा रही थी, न रो पा रही थी| बस अनायास ही उसके होंठ बड़बड़ा रहे थे- मैं... साँचे से उतर गई...? तो... मेरी... आँखों... की तारीफ़...? मेरी आँखों का समुद्र...? टापू...? लहरें...?

उसे अपने आपको देखकर सचमुच में एक वीराना रेगिस्तान महसूस होने लगा, और नौशन उसमें उगने वाला नागफनी| और नौरा? वह क्या है? क्यों आई मेरी हरियाली को सेहरा बनाने...?


उसने अपनी आँखों से निकलने वाली, सारी लहरों को पी लिया| उसकी हरियाली सूखने लगी, डालियाँ छिटकने लगीं| 

वह एक ठूँठ की तरह वहीं गड़ गई पुनः उद्यान बनने की आशा में...  

30.6.16

वियोगी-वियोगिनी



किसी भी अपरिचित स्त्री के सामने वह पहली बार अर्ध नग्न अवस्था में लेटा हुआ था| उसके सामने नन्दन भी उसी अवस्था में था, किन्तु उसने अपनी देह में एक चादर लपेट रखी थी| अचानक उसे भी अपनी अवस्था पर लज्जा आई, अतः स्वयं को चादर से लपेट लिया| “मुझे पता था इसीलिए मैंने चादर लपेट लिया था|” नन्दन ने कहा| उसने कोई उत्तर नहीं दिया|
स्त्रियों की पोशाक से वे राजपूत लग रही थीं| तीनों स्त्रियाँ सराय से निकलकर गंगा की ओर चली गईं| थोड़ी देर बाद उसे भी स्मरण हुआ कि वह भी गंगा स्नान के लिए ही आया है, अतः नन्दन, भोला और रवि को वहीं छोड़कर गंगा की ओर चला गया|
गंगा के पास पहुँचा ही था कि उसे भरी माँग, बड़ी लाल बूंदों वाली, पचीस-छब्बीस वर्षीय वही युवती दिखाई दी, जिसे उसने सराय में देखा था, और उसकी अवस्था पर वह हँस पड़ी थी| युवती को उसके चरित्र, या व्यवहार में कोई शंका न हो, इसलिए वह दूसरे मार्ग पर चला गया, जहाँ कोई न जानता हो, किन्तु थोड़ी ही दूरी पर उसे सचिन मिल गया, जिससे वह अक्सर दूरी बनाए रखना चाहता था|
अरे! कोई तो स्थान छोड़ दिया करो महाराज|” उसने सचिन से विनोद किया|
आज तक मैंने कोई विशेष गंगा स्नान नागा किया है, जो इसी को कर देता? आप भी तो यहीं डेरा जमाए हैं न महाशय?”
उसने सचिन की बातों को सुना तो, किन्तु कोई उत्तर न देते हुए वापस लौटा, और उस ओर गया, जहाँ गंगा की लहरें समुद्री रूप धारण किये हुए थीं| वह वहीं लेट गया| लहरें आतीं, वह भीग जाता| वहीं लेटे-लेटे एक स्व रचित गीत गुनगुनाने लगा-

उस प्रेम को कैसे बिसारूँ प्रिये?
जिस पर जीवन वार दिया है|
उस जग से सिधारूँ प्रिये?
जिसमें तुमको स्वीकार किया है|
मैं रिक्त हृदय का पंछी था
जब प्रेम-बीज रोपा तुमने
मैं अपनी धुन में रहता था
जब स्नेह-पिंजड़ सौंपा तुमने
उस घट को कैसे नाकारूँ प्रिये
जो प्रेम नीर का सार लिया है|

यह गीत सुनते-सुनते वह युवती धीरे-धीरे उसके समीप आती जा रही थी| युवती थोड़ी साँवली थी, किन्तु सुन्दर थी| अचानक उसके पेट में पीड़ा उठी| वह चिल्लाई, “भाभी! बल्लो! जल्दी आओ| मुझे बहुत तीव्र व्यथा हो रही है| लगता है मैं मर जाऊँगी| आह!”
भाभी दौड़ कर आईं| उन्होंने बल्लो को पुकारा| फिर बोली, “लगता है, यहीं कराना पड़ेगा|” वहीं गंगा के किनारे ही एक छोटा सा भवन था| उसीमें एक कमरा रिक्त था, जिसमें एक चारपाई थी| भाभी ने युवती को उसी पर लिटा दिया| अभी तक भाभी अकेली ही थीं| वहाँ पर्दे की आवश्यकता थी| कमरे में कोई किवाड़ नहीं था| भाभी अपनी ओढ़ी हुई चादर को कमरे के द्वार पर कोई कील न होने के कारण लटकाने का असफल प्रयास कर रही थीं| उधर युवती तीव्र पीड़ा के कारण चीत्कार रही थी| “धैर्य धरो अभी आती हूँ|” भाभी युवती को प्रेम से बोलीं| यह कहते हुए वे लगातार चादर को द्वार पर लटकाने का प्रयास कर रही थीं|
अचानक किसी ने बाहर से चादर को पकड़ लिया| “आप चिंता न कीजिये, मैंने इसे पकड़ रखा है, मैं कुछ भी नहीं देखूँगा| आप उन्हें पीड़ा मुक्त कीजिये|” यह उसी का स्वर था| भाभी समझ गईं| वह दौड़ कर युवती के पास पहुँचीं| युवती की चीख उसने सुन लिया था, अतः भीगा हुआ ही गंगा-किनारे से दौड़ कर कमरे तक आ गया था|
युवती पीड़ा के मारे चीत्कार रही थी| वास्तव में वह युवती क्यों चिल्ला रही थी, यह जानने की उत्सुकता वश, वह चादर को थोड़ा नीचे कर देखना चाहता था, किन्तु पता नहीं क्यों उसने उधर पीठ कर लिया, ताकि कुछ भी न देख सके|
कुछ देर बाद स्त्रियों की सामान्य बातचीत प्रारम्भ हो गई| सम्भवतः तीसरी स्त्री भी आ गई थी| भाभी ने उसे बल्लो कहा था| युवती ने भी उसी नाम से उसे पुकारा था| ”कितनी सुन्दर बच्ची है|” यह कहते हुए भाभी ने नवजात को चूम लिया| अब उसने अपनी उत्सुकता को रोका नहीं, चादर की ओट से देख ही लिया| सब कुछ समान्य था| युवती मुस्कुरा रही थी|
कुछ पल के लिए तो मुझे ऐसा लगा, जैसे प्रलय आ गई हो| वह मुस्कुराते हुए कह रहा था| एक बच्ची के लिए सारा संसार सर पर उठाने की क्या आवश्यकता थी?” उसने यह हास्य कर तो दिया, किन्तु क्यों किया उसे भी नहीं पता था, इसीलिए अपनी भूल पर पछता रहा था|
पुरुष हो न? कभी अपने पर पड़ती, तब समझते|” भाभी ने स्नेह युक्त उलाहने से कहा|
जब अपनी स्वयं की सन्तान होगी, तब समझ में आएगा|” यह निर्झर युवती के बोल से फूटे थे|
उसने अपनी साँसें रोके डबडबाई आँखों से न के रूप में सर हिलाया|
भाभी ने उसके चहरे के भावों को पढ़ लिया|
क्या अकेले हो?” भाभी ने पूछा|
सर ने फिर वही संकेत किया|
तो? भाभी अवाक् थीं|
वह कुछ नहीं बोला|
पुनः उन्हीं लहरों के पास जाकर लेट गया, और वही स्वरचित गीत गाने लगा|

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भाभी उसे ढूँढते हुए पहुँचीं|
क्या हुआ तुम्हें? तुम इतने उदास क्यों हो? संसार में तुम अकेले वंचित नहीं हो| कई लोगों पर यह दैवीय प्रकोप पड़ा है|” भाभी इतना कुछ बोले जा रही थीं, और वह लहरों के मध्य निश्चल पड़ा हुआ, वही गीत गुनगुनाए जा रहा था| गंगा की लहरें आतीं, उसके आश्रुओं को बड़ी आत्मीयता से आलिंगित कर अपने साथ ले जातीं, इसीलिए भाभी को मात्र उसके कपोल ही दिख रहे थे|
भाभी भरी हुई आँखों से न जाने क्यों उससे बोले जा रही थीं|
अपने भाइयों की एकलौती बहन है यह| इस निष्ठुर संसार में उसके जन्म के कुछ ही दिनों पश्चात् माता-पिता दोनों ही दुर्घटना वश दुधमुँही बच्ची, पन्द्रह और बारह वर्षीय बच्चों को छोड़ चल बसे| हमारा समाज मात्र सुख का ही साथी होता है, किसी दुखिया को स्वीकार ही नहीं करता| वर्षों से चली आ रही यह विसंगति इसका साथ कैसे छोड़ सकती थी? हम राजपूतों में लड़की का जन्म होना ही अपशकुन माना जाता है| फिर यहाँ तो कन्या के जन्म के कुछ ही दिनों पश्चात् माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था| अतः समाज ने इस अबोध को राक्षसी और माता-पिता को खा जाने वाली अपराधी घोषित कर मृत्युदण्ड देने की योजना बना डाली| बड़े भाई को पता चला, तो अँधेरी रात में ही इसे लेकर घर से भाग गया|
कुछ दिन भटकने के पश्चात् भाई ने इसे अनाथालय में छोड़ दिया| घर वापसी पर देखा कि सारे सगे-सम्बन्धी शत्रु बन चुके हैं| भाई को कह दिया गया कि अब वह इस गाँव में किसी से कोई आशा नहीं रखे| छोटा भाई भी शत्रुवत बनाया जा चुका था| पन्द्रह वर्षीय किशोर पर अबोध-नवजात अपनी सहोदरी भगिनी की रक्षा का अपराध तय किया जा चुका था| इस समाज ने उस भाई को दण्ड दिया, जिसने राखी बाँधने से पूर्व अपनी बहन की रक्षा की थी|
उसके संघर्षों की कहानी कहूँगी, तो तुम्हारे और मेरे आँसुओं से यह गंगा भी खारी हो जाएगी| भाई अब तीस वर्ष का हो चुका था| अपने श्रम के बल पर उसने निजी सम्पत्ति खड़ी कर ली| पैतृक धन को छोटे भाई को ही सौंप दिया, या यूँ कहें कि वह उन सबका मुँह नहीं देखना चाहता था| समाज ने छोटे भाई का विवाह किया, किन्तु बड़े भाई को पूछा तक नहीं, मनो! उसमें उसका सम्मिलित होना समाज के अपमान की बात थी|
एक दिन मेरे पिता की दृष्टि इनके ऊपर पड़ी| पिता ने सब जानते हुए भी, समस्त समाज के विरोध के पश्चात् भी, एक साहसी और परिश्रमी को मेरा जीवन साथी बना दिया| दस वर्षों का हमारा अमिट प्रेम आज भी जीवित है| उन्होंने मुझे इसके बारे में सब बात बताई| हम दोनों ने निर्णय लिया कि हमारी अपनी कोई सन्तान नहीं होगी| हम नीरा को ही अपनी बेटी मानेंगे| नीरा इसी का नाम है| इसे हम घर ले आये| स्नातक तक पढ़ाई कराई और विवाह किया|
 भाभी निरन्तर बोले जा रही थीं| “जीवन सुख पूर्वक बीत रहा था| आह! निर्दयी समाज! दुष्ट समाज! हत्यारा समाज! गाँव के किसी ने जाकर इसके ससुराल वालों को पचीस वर्ष पूर्व की घटना को बताया, और यह भी कहा कि ज्योतिषियों के अनुसार यह जिस घर में रहेगी उसका सर्वनाश हो जायेगा| उस समय यह मातृ अवस्था को धारण कर चुकी थी|” भाभी की आँखे और गंगा की धारा दोनों सामान रूप से बहने लगी थीं|
भाभी की ध्वनि सिसकियों के कारण स्पष्ट नहीं निकल पा रही थी| वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा एकटक भाभी को निहारे जा रहा था| भाभी थोड़ी स्थिर हुईं, तो आगे बोलीं, “निर्दयियों ने इसके पेट पर लात मारा, ताकि इसकी आने वाली सन्तान और यह दोनों ही सिधार जाएँ| हम दोनों पर धोखाधड़ी का आरोप लगा, न्यायालय में अभियोग चला दिया|” भाभी के शब्दों में दृढ़ता थी| “जिस लड़की को नवजात अवस्था में ही कोई न मार सका, उसे यौवन में कैसे मार सकते थे? किन्तु उसे मृत्यु से भी निकृष्ट जीवन दिया गया था| सड़क पर अर्धमृत अवस्था में मारकर उसे फेंक दिया था उन कसाइयों ने| हमें तीन-चार दिनों पश्चात् सूचना मिली, जब वह अस्पताल में अज्ञात नाम से भर्ती की गई थी|” भाभी पुनः नीर नयना हो गई थीं, और वह वक दृष्टा| भाभी ने पुनः कहना प्रारम्भ किया, “ हम गये और उसे यमराज के हाथों से छीनकर ले आये|” कभी-कभी तो लगता है, यह मर जाए तो ही अच्छा है| कम-से-कम दुखों से इसे छुटकारा तो मिलेगा|” भाभी के शब्दों में विषाद था| “किन्तु अपनी एक मात्र सन्तान कोई खोना चाहेगा क्या?”
आज यह संघर्षिनी माँ बनी है| एक कन्या की माँ| आह कन्या! ओह कन्ये! तू इस समाज की दासी मत बनना|” भाभी अभी चीत्कार रही थीं| उनका क्रन्दन दूर-दूर तक सुनाई दे रहा था| उनका विलाप हृदयभेदी था| पाषणद्रवी विलाप| निर्दयी समाज में कन्या के दुर्भाग्य पर विलाप|
बल्लो ने भाभी को सम्भाला| वह उनका क्रन्दन सुनकर गंगा किनारे आ गई थी| भाभी को लेकर वह उसी कमरे में गई, जहाँ युवती अपनी नवजात को वात्सल्य पान करा रही थी|
यहाँ उसे नहीं समझ में आ रहा था कि वह क्या करे? अपने दुखों को समेटने, उनसे मुक्ति पाने वह गंगा मैया की शरण में आया था, किन्तु यहाँ तो व्यथा-शिलाएँ उसके मनः वेदना को और अधिक विछिन्न कर रही थीं| इसीलिए वह अचेत रूप से वहीं लेटा रहा|

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अचानक मन में कुछ भँवर सा उठा, वह उद्विग्न हो, उठ कर धीरे-धीरे उस कमरे पर पहुँचा, जहाँ तीनों स्त्रियाँ बैठी थीं| बल्लो भाभी को पानी पिला उन्हें सामान्य करने का प्रयास कर रही थी| आज भाभी जी भरकर रोयी हैं| जीवन में पहले इतना कभी नहीं रोई थीं| आज एक अपरिचित न जाने क्यों उन्हें अपना-सा जान पड़ा था, और उन्होंने अपना हृदय-द्वार खोल मन की समस्त व्यथा को उसके सामने उड़ेल दिया था|
क्या मैं भीतर आ सकता हूँ?” अचानक उसके स्वर को सुनकर तीनों स्त्रियाँ असहज हुईं, किन्तु पुनः सामान्य हो गईं| “मेरे कारण आप लोगों को कष्ट तो नहीं हुआ?” उसने अपराधी की भाँति हाथ जोड़ लिया|
आपके कारण कष्ट क्यों होगा?” युवती ने आश्चर्य से उसे देखते हुए पुछा| “आपने तो हमारी सहायता ही किया है|” “पता नहीं क्यों? इनके विलाप मैं सुनता रहा, किन्तु एक शब्द भी नहीं बोल पाया| पता नहीं मुझे उस समय क्या हो गया था?” उसने उसी स्वर में उत्तर दिया|
आपने नहीं ध्यान दिया, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है| विशेष बात यह कि न हम आपको जानते हैं, न आप हमें| पश्चात् इसके भी आपने हमारी सहायता की| अन्यथा यह तो भारतवर्ष के विधान में ही पुरुषों ने एक तरफा निर्णय करते हुए लिख रखा है कि स्त्री को देवि का लालच देकर उसका अपमान किया जाय| जब मनुष्यों के आदर्श पुरुष जिन्हें पुरुषोत्तम कहा जाता है, उस राम ने ही समाज के भय से अपनी स्त्री की पीड़ा को नहीं समझा, तो सामान्य मनुष्यों से हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं? यदि राम ने समाज के भय का दिखावा न कर, सीता की अग्नि परीक्षा न ली होती, उसे बलात वनदण्ड न दिया होता, तो सम्भवतः इस राष्ट्र के समाज में शासन हथिया इसे पुरुष प्रधान घोषित कर, यह पुरुष वर्ग स्त्रियों पर इतना अत्याचार, उसका इतना शोषण और अपमान नहीं करता| स्त्रियों को देवि, त्याग और ममता की मूर्ति बना घर में बन्दी कर स्वयं स्वच्छन्द विचरण न करता|” स्थिर किन्तु दृढ शब्दों में यह बात नीरा ने कही थी|
क्षमा तो मुझे आपसे माँगनी चाहिए| बिना जाने-समझे मैं आपके समक्ष अपना दुखड़ा लिए बैठ गई| यह भी न सोचा कि आप हमारे बारे में क्या सोचेंगे| आप किसी और प्रयोजन से यहाँ आये होंगे, और मैंने आपको परेशान किया|” भाभी ने क्षमा माँगते हुए कहा|
आपने जो भी किया, ठीक ही किया|” उसने कहा| वास्तव में यह संसार जहाँ एक ओर व्यथा-श्रृंखला से बना है, वहीं प्रसन्नता के निर्झर भी हैं| सभी स्त्रियाँ उसके मनोभावों को एकटक देखे जा रही थीं| सत्य कहूँ तो आज मैं गंगा मैया की शरण में अपनी व्यथाओं को सदैव के लिए प्रवाहित करने आया था| समय के पाँसे मेरे भी विपरीत पड़े हैं|” वह एकदम स्थिरता से बोल रहा था|
मैं दर्पण| अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान हूँ| सर्व सुख सपन्न| अकूत धनराशियों का स्वामी| अभाव शब्द का मेरे जीवन में कोई महत्व ही नहीं है| वे जो तीन युवक सराय में मेरे साथ थे, उनकी शिक्षा-दीक्षा का पूरा दायित्व मैं वहन करता हूँ|” वह भावुक हो रहा था|
मैंने एक श्रेष्ठ सुन्दरी से प्रेम किया, या यूँ कहें कि उसने भी मुझसे प्रेम किया था| हम अपनी और अपने अभिभावकों की सहमति से दम्पत्ति भी बने| हमारे जीवन में सुख-ही-सुख था| सुख के इसी समुद्र में एक दिन शंका का भँवरजाल आया| उस भँवर ने मेरी और उसकी दोनों की बुद्धि क्षीण कर दी| वास्तव में मैं निरपराधी था, अतः अहंकार में था, और वह स्वाभिमानिनी शंका में| दोनों का प्रेम धागा टूटा और विछोह हो गया| दोनों के अभिभावक हैरान थे, और हम दोनों ही हतबुद्धि किसी की सुनने को तैयार नहीं|” वह अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए बोल रहा था|
इसी भँवर में अचानक सन्तान रूपी नौका की सूचना मिली; पितृ-सुख की कल्पना ही मुझे रोमांचित किये जा रही थी| गर्भस्थ शिशु ने मेरे अहंकार को चूर कर दिया| मैं अपनी प्रेयसी से मिलने उसके पैतृक घर गया| अपराध न होते हुए भी, उसके पैर पकड़ कर क्षमा याचना की| वह हिम-हृदयी मेरे प्रेमताप से पिघल गयी| हम दोनों ने घर-वापसी का निर्णय किया| माता-पिता से विदा लिया, और चल पड़े|
घर से निकल कुछ दूर आकर हमने मुख्य सड़क को पकड़ा| आज चार माह पश्चात् मन हवाओं में गोते लगा रहा था| लग रहा था आज सारा प्रेम यहीं मार्ग में ही उड़ेल डालूँ| तभी उसे उल्टियाँ होने लगीं| मन और भी बल्लियाँ उछलने लगा| गर्भवती को तो उल्टियाँ होती ही हैं| तभी थोड़ी देर में रक्त वमन ने मेरा हृदय दहला दिया| मैंने गाड़ी को एक किनारे रोका| उसका वमन और भी तीव्र हो गया| जब तक मैं किसी चिकित्सक से सम्पर्क करता, तब तक उसने मुझे कहा, “मेरे प्रिय! मैं तुम्हें समझ नहीं पाई| इसलिए तुम्हें यह अथाह कष्ट दे रही हूँ| मैं अपराधिनी हूँ| मैंने कल रात में ही विष खा लिया था| रात भर कुछ नहीं हुआ, तो मुझे लगा सम्भवतः मैं बच गई, परन्तु “अमृत भले ही अपना कार्य न पाए, किन्तु विष कभी अपना असर नहीं त्यागता| मैं मूर्ख-हृदयी तुम्हारे योग्य थी ही नहीं| मैं तुम पर भरोसा नहीं रख सकी मेरे प्रिय! यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल रही| इसीलिए तो यह दुर्गति हो रही है| तुम मुझ जैसे हतभागिनी के लिए अपना जीवन व्यर्थ......
चारों ओर लोगों की भीड़ थी, किन्तु मैं अकेला| शव परीक्षण के पश्चात् पता चला, चार माह की कन्या गर्भस्थ थी| पता नहीं क्यों मेरे ऊपर कोई न्यायिक अभियोग भी नहीं चला? दो वर्षों से अपनी स्नेहा और व्यथा को पीठ पर लादे घूम रहा था| आज गंगा को स्वसमर्पित करने आया था| भर्राए हुए उसके स्वर दीवारों को ताक रहे थे और तीनों स्त्रियाँ अश्रुपूरित नयन से उसे देख रही थीं| वतावरण पूर्ण रूप से शून्य स्वर हो गया था|
सुनों! तुम वियोगी हो, और यह वियोगिनी| मैं इसका हाथ तुम्हारे हाथों में सौंपना चाहती हूँ| इस बात का प्रत्याभूत भी देती हूँ कि जब तक दैवीय कारण नहीं पड़ेगा, तुम कभी प्रेम से वंचित नहीं रहोगे|” बहुत देर की स्तब्धता के पश्चात् भाभी पूरे दृढ़ स्वरों में उससे कह रही थीं, और वह एकटक दीवारों को ही ताके जा रहा था| पुनः भरी आँखों से न में सर हिलाया|
क्या प्रेम किसी एक की चिता के साथ ही जल जाता है? यह प्रश्न बल्लो ने किया, जो अब तक चुप थी| बल्लो भाभी और नीरा की परिचारिका थी| अपने शब्दों को और सशक्त करते हुए बल्लो पुनः बोली, “पूर्व काल में स्त्रियों को बलात सती किया जाता था| मेरी समझ में पति के शव के साथ जल जाना ही सती होना नहीं है| आजीवन तड़पते रहना भी, उस प्रथा को जीवित रखने के बराबर ही है, जबकि उस पीड़ा से बहार निकलने के सहस्रों मार्ग हैं|” बल्लो ने यह बात बड़े ही स्नेह से कही थी|
बल्लो की बातों से बल पाते हुए भाभी ने कहा, “जिस प्रकार गणित में ‘ऋण’ और ‘ऋण’ जुड़कर ‘धन’ बनते हैं, उसी प्रकार जीवन में ‘दुखी’ और ‘दुखी’ मिलकर ‘सुखी’ बन सकते हैं, और सुखमय जीवन बिता सकते हैं|”

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वह थोड़ी देर शान्त खड़ा रहा| आँखें बरस रही थीं| हृदय धड़क रहा था| वह कुछ सोचे, किसी निर्णय पर पहुँचे इसके पूर्व ही वहाँ से लौट पड़ा| अचानक बिजली की गति से कमरे में आया और नीरा का हाथ पकड़कर बोला, “ यदि नीरा को मुझे स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं हो, तो मैं इनके, और इस एकलौती पुत्री के साथ जीवन बिताने को तैयार हूँ|
युवती का वक्ष कभी वात्सल्य में पड़ता, तो कभी प्रेम में| उसका हृदय तीव्र गति से स्पन्दित हो रहा था|
अपरिचित नगर में, अपरिचित भवन में, अपरिचित लोगों के मध्य, क्षण पूर्व प्रेम ने पूरे वातावरण में शान्ति फैला दी थी| सबकी आँखें बरस रही थीं, किन्तु कोई उन्हें पोंछना नहीं चाहता था| शान्ति के उस संसार में मात्र आधे घंटे की एक शिशु की किलकारी भर सुनाई दे रही थी.......
******************************समाप्त***********************************

2.6.16

I'm writing poetry

I'm writing a poetry,
Pen is smiling


I'm living my life,
Breaths are overwhelming,


I'm drinking the tears,
Eyes are raining,


I'm chewing hunger ,
bread is scorching


I'm calling to the death,
soul is tormenting

मैं कविता लिख रहा हूँ

मैं कविता लिख रहा हूँ,
कलम मुस्कुरा रही है

मैं ज़िन्दगी जी रहा हूँ,
साँसे बौखला रही हैं,

मैं आँसू पी रहा हूँ,
आँखें बरसा रही हैं,

मैं भूख चबा रहा हूँ,
रोटी झुलसा रही है

मैं मौत बुला रहा हूँ,
रूह तड़पा रही है|

26.2.16

मेरा आर्तनाद

हे भविष्य! 
मेरा आर्तनाद, नहीं सुन सकते तुम,
क्योंकि तुम हो मस्त,
मात्र अपने ही संसार में।

तुम हिंसक ध्वनियों में ढूँढते
हो सपने,
और मैं नीर-सुर में रहता हूँ लीन|
तुम तो जीना चाहते हो, 
मात्र अपनी प्रसन्नता,
और मैं दे रहा हूँ भार,
जीने को पूरा-का-पूरा समाज|

तुम देखना चाहते हो मात्र,
पैरों के नीचे की भूमि,
और मैं दिखा रहा हूँ,
सूर्य से भी आगे का संसार,
बनाना चाहता हूँ त्रिकालदर्शी तुम्हें|

तुम चाहते हो भरते रहना कुलाचें,
भाँति किसी शावक के,
और मैं बना रहा हूँ
गम्भीर, किसी सिंह समान|

इसीलिए,
तुम समझकर भी,
नहीं समझना चाहते,
किसी के हृदय का घाव,
नहीं ले पाते टोह,
धमनियों से बाहर रिस रहे, 
रक्त प्रवाह का|

तुम करते जाते हो निरन्तर चोट,
जैसे करता है लुहार, 
लोहे पर;
यह जानकार भी
कि होती है, 
कितनी असहनीय पीड़ा,
जब करता है प्रहार
कोई अपना, 
किसी अपने पर|