शब्द समर

विशेषाधिकार

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29.4.12

तुम्हारी आँखें

नहीं मूंदो मत इन्हें.
मैं 
देखना चाहता हूँ,
कितनों की बुझती है प्यास इनसे?
कितनों की हैं जीवन ये? 
कितनों का ह्रदय स्पंदित होता है 
मात्र इनके चार होने पर?
कितने वीराने हो जाते हैं 
इनसे फासला पाने पर?
कितनों की सुबह होती है इनकी स्मृति के साथ  में
कितनों की मोती हैं ये घनघोर अँधेरी रात में?
कितनों के लिए चंचल हैं हिरणी सी
कितनों की मदिरालय
कितनों की विशालता गगन जैसी
कितनों की महकती उपवन ?
कितने डूब जाना चाहते हैं इस अथाह सागर में
और कितने समेट लेना चाहते हैं अपने कर के आंगन में?

हे अनुपमेय!
मुझे चाँद का चकोर बनकर 
ताकने दो अपने चंदकला को 
टकटकी लगाए 
दुनिया भर के सपने 
अपने में ही समाहित की हुई तुम्हारी
झील सी शबनमी 
आँखों को.

18.4.12

क्यों कोई क़दर करे?


जिसके दांतों की चमक से, निशा दिवस सम दर्शाए
वो हीरे की क्या क़दर करे?
जिसके मंद अधर मुस्कान से, खुद पराग ही गिर जाये
वो भ्रमरों की क्या क़दर करे?
जिसके पलकों के झपकने से, गगन दामिनी दमकाए
वो मेघों की क्या क़दर करे?
जिसकी सूरत वीनस को तरसाए
संगममर की क्या क़दर करे?
जिसे देख आइना शर्माए
वो चंदा की क्या क़दर करे?
जिसके क़दमों की दमक से स्वतः भूकम्पित हो जाये
हलधर की क्या क़दर करे?
जिसके साँस धरा को महकें
सुमनों की क्या क़दर करे?
जिसके पास करोड़ों मडराएँ 
'विद्यार्थी' की क्या क़दर करे?