शब्द समर

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7.10.23

उठो समरपति

पिताजी निश्चेत अवस्था में आँगन में लिटा दिये गये हैं। शोकाकुल वातावरण के मध्य पण्डित जी लगातार मंत्रोच्चारण करते हुए अन्न, पात्र, वस्त्र, स्वर्ण, मुद्रा,  इत्यादि सहित गोदान सम्पन्न करा रहे हैं। पिताजी के दाहिने हाथ में गाय की पूँछ थमा दी गई है, जिसके बारे में वे पूर्ण अनभिज्ञ हैं, और वे बस हिचकी ले रहे हैं, दोनों आँखों की पुतलियाँ ऊपर की ओर हो गई हैं, जो कि निर्वाणावस्था का द्योतक माना जाता है। 

माँ, बहनें, भाई और कुछ परिजन वहीं आँगन में बैठे हैं, सबके-सब निराश हो चुके हैं,  और माताजी की आँखें तो झरना हो चुकी हैं। लगभग अड़सठ वर्ष का साथ छूटने की अवस्था में दिख रहा था। बहनें भी पिताजी को इस अवस्था में देखकर द्रवित हैं। सभी के भीतर एक झंझावात चल रहा था। परिजनों और कुछ वयोवृद्ध अनिभावी लोगों ने तो लगभग मृत ही घोषित कर दिया है। चारों ओर फैले इस कोलाहल और शोकाकुल वातावरण में एक ऐसा भी व्यक्ति था, जो स्थिर चित्त हो इन समस्त प्रक्रियाओं को देख रहा था। उसे लग रहा था कि यदि पिताजी को उचित चिकित्सा मिल जाय, तो ये एक पुनः पहले ही की भाँति चलने लगेंगे। इन सब आडम्बरों से इनके स्वास्थ्य में तो कोई सुधार हो ही नहीं सकता।  वह व्यक्ति था अच्युत। अच्युत धार्मिक आडम्बरों की अपेक्षा चिकित्सीय उपचार पर अधिक विश्वास करता है, किन्तु दुःयोग से वह सम्भव नहीं हो पा रहा था। अच्युत मृत्युशैया पड़ पड़े वसुदेवशरण जी का सबसे छोटा पुत्र था। 

गोदान के तीन-चार दिन बीतने के बाद भी वसुदेव शरण जी के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ, वे दिन-प्रति-दिन और भी निश्चेत हुए जा रहे थे। आधी रात को उनकी सुश्रुषा और देखभाल में बैठा अच्युत उस समय को स्मृत कर रहा था, जब उसके पिता रुग्णशायी हुए थे। वह इस समस्या के जड़ तक जाना चाहता था। वह याद करने लगा उस समय को जब डेढ़ माह पूर्व पहली बार उसके पिताजी का रक्तचाप उच्च हुआ था। उन्हें ज्वर भी आया था, और अचानक सुबह-सुबह उनके दाहिने अंग में लकवा मार गया था। पिताजी यजमानी से लौटे थे। किसी यजमान के घर दुर्गापाठ करने के उद्देश्य से नौ दिन लगातार एक समय ही भोजन ले रहे थे। अठहत्तर वर्ष की अवस्था में नवरात्रि के उन नौ दिनों में भूख ने उनके शरीर को ऐसे तोड़ दिया कि अब जीवन-मृत्यु के पाटे में पिस रहे हैं। उसी समय उसे अर्थात अच्युत को भी पीलिया, मलेरिया और टाइफाइड तीनों हुए थे। उसकी पत्नी भी दुगुने टाइफाइड से ग्रस्त थी। अच्युत को तो स्थानीय चिकित्सक ने उपचार देने से ही मना कर दिया था। अच्युत को रह-रह कर विश्व भर में फैले कोरोना के समाचार भी लगातार मिल रहे थे। असल में यह समय कोरोना के तीव्र प्रभाव का था, जिसके कारण थोड़ी खाँसी, या जुड़ी भी लोगों को यमराज सदृश लग रहे थे। कोरोना से प्रतिदिन अनगिनत लोगों की मृत्यु हो रही थी, यहाँ तक कि गंगा नदी में लोगों के शव उतरा रहे थे। उसका स्वयं का उपचार होना असम्भव हो गया था। उसके इस बीमारी का समाचार सुन पिताजी और अधिक बीमार होते जा रहे थे। एक परिचित चिकित्सक ने अच्युत उसका उपचार किया। वह तो धीरे-धीरे स्वस्थ्य होने लगा, किन्तु इन पन्द्रह दिनों में उसके पिताजी का स्वास्थ्य लगातार गिरता गया, और गिरता ही गया। 

यह काल, यम-काल था। जहाँ भी देखो, सुनो मात्र मृत्यु का ही समाचार था। मृत्यु भी किसी एक-दो की नहीं बल्कि सैकड़ों-हज़ारों की एक ही दिन में। जो जहाँ थे, सभी सहमे हुए, डरे हुए थे। यम-काल का यह दूसरा वर्ष था, जिसे कोरोना की दूसरी लहर के नाम से जाना जाता है। अच्युत भी अपने पिताजी को लेकर चिकित्सालय नहीं जा रहा है। चिकित्सा केन्द्रों में फैली अव्यस्थाओं, चिकित्सकों की लापरवाहियों, शासन द्वारा जारी कोरोना के दिशा-निर्देशों के कारण उसके और उसकी माँ को भय था कि यदि पिताजी को चिकित्सालय लेकर जाएँगे, तो वे जीवित नहीं लौटेंगे। अतः घर पर रहकर ही सेवा करना उचित जान पड़ रहा था, किन्तु घर में ही रखने के कारण स्थिति यह बन चुकी थी कि अब पिताजी मरणासन्न स्थिति में जा चुके हैं। न वे कुछ खा पा रहे थे, न ही पी रहे थे, मात्र चम्मच के माध्यम से नारियल-पानी उनके मुँह में डाल-डाल कर उन्हें जीवित रखने का प्रयत्न किया जा रहा था।

जब सब लोग पिताजी को लगभग मृत समझ चुके, तब अच्युत उन्हें पुनः खड़े कर देने का साहस सभी को देता रहा था। 

अच्युत एक अपरिमित साहस से भरा हुआ था। जब वह स्वयं बीमार था, उसका ज्वर १०५o सेल्सियस से नीचे नहीं उतर रहा था, और वह स्वयं को मृत्यु के समीप देख रहा था, तब उसने अपनी पत्नी और माता को बोला था, मुझे पाँच दिन का समय दीजिए, मैं उठाकर खड़ा हो जाऊँगा।” वह दिन-रात विभिन्न प्रकार के संगीत सुनता, चिकित्सक के दिये परामर्शानुसार उचित दवाएँ लेता और शीग्र स्वस्थ्य होने की होड़ में लग गया। इसी बीमारी के समय स्वयं को प्रेरित करने के लिए उसने एक कविता लिखी, 

“समर शेष है

चलो समरपति

ले भुजबल आगे-आगे

शत्रु शेष है

लिए अक्षौहणी

खलबल आगे-आगे।”

जिसकी अन्तिम पंक्तियाँ उसने इस प्रकार लिखीं,

“ये लो अन्तिम शत्रु का

मस्तक अब हाथ तुम्हारे है

ये लो अन्तिम शत्रु का

क्षत्रप अब हाथ तुम्हारे है

जीवन शेष है

बढ़ो अधिपति

ले करतल आगे-आगे

समर शेष है

चलो समरपति

ले भुजबल आगे-आगे।”

पहले स्वयं स्वस्थ्य हुआ, इसके पश्चात् उसका एक ही लक्ष्य रहा, वह था, पिता को पुनर्जीवन देना। इस दुर्घर्ष में वह अकेला खड़ा था। जब लोग उसकी इस बात को सुनते, तो उसे अनुभवहीन, अहंकारी, नास्तिक, मूर्ख जैसी संज्ञाएँ दिया करते। लोगों के अनुसार, "अब तो चमत्कार ही इन्हें (वसुदेवशरण जी को) ठीक कर सकता है। जब दान-पुण्य करके भी ग्रह नहीं कटे, तो अब क्या ठीक होंगे?"

गोदान के चार-पाँच दिन बाद भी पिताजी के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं दिखा, चिकित्सालय ले जाना लगभग असम्भव ही दिखाई पड़ रहा था, और अब अच्युत का साहस भी डोल ही गया था। अपनी बीमारी से उठने के एक माह से वह सो नहीं पाया था, और अब वह भी टूट ही रहा था। उसे लगने लगा अब उसका भी विश्वास डगमगाने लगा है। 

उसी रात को उसने देखा, पिताजी की हिचकियाँ अब तेज़ होने लगी हैं। अच्युत ने अपने एक मित्र को फोन लगाया, सारी स्थिति समझाई। तब उसके उस मित्र ने उसे एक ऑनलाइन एप्प का नाम सुझाया, जिसमें कम शुल्क में ही अनुभवी चिकित्सक मिल जाते हैं। अच्युत ने बिना देरी किये, रात में ही एक चिकित्सक से सम्पर्क साधा, सारी वास्तु-स्थिति समझाई। चिकित्सक ने कुछ दवाएँ और शरीरिक अभ्यास कराने का सुझाव दिया, जिसके अमल पर अच्युत पूरी तन्मयता से जुट गया। अब वह अपने पिता को नारियल-पानी के अतिरिक्त उचित दवाएँ भी पिलाने लगा। जब उनकी हिचकी कम हुई, तो लोगों को आशा जगी, और फिर उसके इस साहस को देखते हुए, घर के सभी लोग उसका साथ देने लगे, और उसका पूरा परिवार पिताजी की सुश्रुषा में लग गया। 

परिणामतः, एक वर्ष बाद पिताजी और माताजी को लेकर तीर्थ पर गया। वे अपने डण्डे के सहारे आसपास घूम लेते हैं। दाहिने अंग में लकवा का प्रभाव होने के पश्चात् भी स्नान और भोजन अपने हाथ से ही कर लेते हैं। सभी सगे-सम्बन्धी, परिजन-पुरजन अच्युत के इस साहस का लोहा मानते हैं, क्योंकि अच्युत, उसके साहस, धार्मिक आडम्बरों की बजाय चिकित्सा पर विश्वास, और आत्मबल के कारण आज उसके पिताजी इस संसार में हैं। #

वो शख़्स नहीं एक धोखा था

वो शख़्स नहीं एक धोखा था,
जिससे हमने इश्क़ किया,
वो गुज़रा हुआ एक मौक़ा था,
जिससे हमने इश्क़ किया।

वो पेड़ कि जिसके साये में,
साँसें मिलती रूहानी थीं,
वो अपनी जड़ों से टूटा था,
जिससे हमने इश्क़ किया।

जो पनघट अपने पानी से,
आँखों की प्यास बुझाता था,
वो कूप कभी का सूखा था,
जिससे हमने इश्क़ किया।

वो नींद कि जिसमे दिलबर के,
बस ख़्वाब दिखाई देते थे,
वो सिर्फ़ हवा का झोंका था,
जिससे हमने इश्क़ किया।

वो बज़्म जहाँ दिलवालों की,
महफ़िल का रंग निखरता था,
वो रंग बहुत ही फीका था,
जिससे हमने इश्क़ किया।

नए ज़माने के मुल्क में...

हर ईमानदार अब नापा जाएगा
ख़िलाफ़ बोलने पर छापा जाएगा

या हुक्मरानों की हाँ में होगी हाँ
या पत्ता ज़िन्दगी से काटा जाएगा

या बेबाकी ज़ब्त करनी होगी
या गालों पर चाँटा जाएगा

या कलम दावतों में होगी क़ैद
या स्याही से लाश को पाटा जाएगा

ये नए ज़माने का नया मुल्क़ है
यहाँ हुक़्म-ए-शाह अब लादा जाएगा

हाकिम इंसान को समझता है भेड़ सिर्फ
सबको एक ही डण्डे से हाँका जाएगा।

6.10.23

याद

याद तो याद ही है
जब-तब चली ही आती है।

असल में वह जाती ही नहीं है।
यहीं कहीं दुबकी रहती है,
मस्तिष्क के किसी कोने में,
और पाते ही अवसर,
और देखते हुए स्थिति,
निकल पड़ती है
कभी ठहाके लगाते,
तो कभी आँसू बहाते,

याद,
बड़ी नटखट है,
एकदम कृष्ण की तरह,
जब देखो सताती ही रहती है।

21.3.23

स्वतन्त्र राष्ट्र के बन्दी

याद करो वह साँझ सखे,
हम-तुम आलिंगित बैठे थे
गृद्ध-दृष्टिमय लोगों के
अँगुली से इंगित बैठे थे

उनके निर्दय वारों से
सुध-बुध हमने खोई थी,
पावन होते प्रेम के भी
रंजित और निन्दित बैठे थे।

दो जन पर दस जन टूटे
तिस पर पौरुष दिखलाते थे,
बौद्ध-मार्गी हम दोनों,
हाथों से बन्धित बैठे थे।

हम मौन सहे हर घात उनके
न दृष्टि कड़ी उनपर डाली
अपने ही जन के पापों से
पीड़ित और गन्धित बैठे थे।

पूरे-के-पूरे हम बन्दी
जीवन सारा परतन्त्र हुआ
स्वतन्त्र राष्ट्र के पिंजड़े में
पूरे प्रतिबन्धित बैठे थे।

सभ्यता का पतन

मैं शोक में हूँ
कि आदमी मर चुका है।|

शोक से भी अधिक
क्षोभ में हूँ
कि मरे हुए आदमी के शव की सड़ान्ध,
फैल चुकी है समूचे सरोवर में।

क्षोभ से भी अधिक,
आश्चर्य में हूँ
कि इस सड़ान्ध से,
किसी को कोई समस्या नहीं है।

आश्चर्य से भी अधिक
निश्चित हो चुका हूँ,
कि यह दुर्गन्ध
एक व्यक्ति की नहीं,
मरे हुए समस्त मानव जाति के,
सड़ चुके विचारों की है।

आदमी तो तभी मर जाता है,
जब मारी जाती है,
इसकी शिक्षा,
गाड़ दिया जाता है इसके विचारों को।

शिक्षा का पतन
मनुष्य
और उसकी सम्पूर्ण सभ्यता के मृत्यु की,
पहली निशानी है।

17.3.23

पी पी सर के लिए...

वो शख्स नहीं सरताज था,
जिसपर दुनिया को नाज था,
सब सीखते अन्दाज़-ए-बयां जिससे,
उसका अलग अन्दाज़ था|

वो शिक्षक नहीं सर्वमान था,
जिसपर सबको अभिमान था,
सब पढ़ते थे ज़िन्दगी जिससे,
चलता-फिरता संस्थान था|


वह ख़ास नहीं बस आम था,
काफी बस जिसका नाम था,
मुश्किलें भी जिससे कतरा जातीं,
ऐसा उसका मक़ाम था|

आँखें सबकी हैं भरी हुई,
पलकों से बूँदें झरी हुई,
वो शख्स दुनिया से क्या गया,
दुनिया है जैसे मरी हुई| 

पीपी सर (बाबा) को कोटिशः प्रणाम और भावभीनी श्रद्धांजलि

19.2.23

वतन के नाम पर

ज़िन्दगी की ज़मीं पे, दरिया भी जो न थे,
सियासत की राह में, वो सैलाब हो गए।

रोशनी के नाम पर, जुगनू थे तब तलक,
रोशनाई में आज वो, आफ़ताब हो गए।

क़ायम है आज तो, अफ़सानों में ख़ुश्बू उनकी,
चाबुक के दम पे जो, अब गुलाब हो गए।

आवाम की जानिब, जो क़दम भी ना चले,
तारीख़ में वो आज, नायाब हो गए।

जिनको भी फ़िक्र थी, महफ़ूज़-ए-हुक़ूमत की,

वतन के नाम पे, वो क़ामयाब हो गए।

13.2.23

ज़िन्दगी में कभी...

ज़िन्दगी के कभी कुछ लम्हें ऐसे हों कि-
सिर्फ़ मैं हूँ, और तुम हो,
सिर्फ़ मैं हूँ, और तुम हो।

ज़िन्दगी में दिखाई कभी कुछ यूँ दे कि-
नज़रें सिर्फ़ चार हों,
दो सिर्फ़ मेरी हों, दो सिर्फ़ तुम्हारी हों,
और इश्क़ बार-बार हो

ज़िन्दगी में कभी सुनाई कुछ यूँ दे कि-
लबों पे सरसराहट हो,
न तुम कुछ बोलो, न मैं कुछ बोलूँ,
बस भीगी-सी मुस्कुराहट हो।

ज़िन्दगी में कभी बातें कुछ ऐसी हों कि-
हर तरफ़ मदहोशी हो,
साँसों की साजें हों, ख़ामोशी की आवाज़ें हों,
सन्नाटों की सरगोशी हो।

ज़िन्दगी में हमेशा ऐसा रहे कि-
ऐसा इक़रार हो
मैं रहूँ, तुम रहो, और सिर्फ़ प्यार हो,
और प्यार बेशुमार हो।

2.2.23

प्रिय आओ! गीत प्रणय के गाएँ

भूल द्वेष, हृद राग जगाएँ,

प्रिय आओ! गीत प्रणय के गाएँ।


गज देखो अब चिंघाड़ रहा,

वनराज कहीं हुंकार रहा,

भुजंगिनी के गान लहर में,

भुजंग कुण्डलि मार रहा।

जीवन का सुख इनमें पाएँ,

प्रिय आओ! गीत प्रणय के गाएँ।


कोकिल वन में कूक रही,

रति-काम हृदय में हूक रही,

लालायित पिपासु नयनों को,

देख मृगा, मृग मूक रही।

इनसे अपना हृदय मिलाएँ,

प्रिय आओ! गीत प्रणय के गाएँ।


ऋतुराज खड़े पट पीत लिए,

प्रणयी के संग नव गीत लिए,

नव-पल्लव वसना वसुधा में,

मकरन्द कुसुम जस मीत लिए।

हम द्वय से अब एकम हो जाएँ,

प्रिय आओ! गीत प्रणय के गाएँ।

31.1.23

प्राण-गाड़ी

रात्रि के उस प्रहर,
वह सोया नहीं। 

वह कुछ सुनना चाहता था,
सम्भवतः अन्तर्मन के कोलाहल को।
उसके जीवन की उहापोह
अमावस्या के ज्वार की भाँति
उत्तरदायित्वों, कर्तव्यों की
अनन्त ऊँचाई लिए आता,
और असफलता, निराशा और हताशा के,
गहरे खोह में पटक जाता।

किंकर्तव्यविमूढ़, अनिच्छित वह
हर बार कर जाता प्रवेश,
अन्तस्थोदधि के चक्रवात में,
और लगाने लगता गोते
उत्ताल भाव-तरंगों के मध्य।

उन्माद, अवसाद के बीच,
डूबता-उतराता,
द्वन्द्व की उछालें पाता,
क्रोध से थपेड़े खाता,
उदास हो लोट जाता,
तो कभी नेत्र-धारा में प्रवाहित हो,
चला जाता सुदूर मनः-केन्द्र में,
और आ गिरता
शोकाकूल पर लाचार-सा।

सहसा सुना उसने,
उसके कानों में गूँजती,
अन्तर्वाणी की धोषणा-ध्वनि,
"यात्री कृपया ध्यान दें-
जन्म से लेकर मृत्यु की ओर जाने वाली प्राण-गाड़ी,
कई वर्षों से देह रूपी स्थानक पर खड़ी है,
इसकी यहाँ से प्रस्थान का समय हो चुका है,|
यह यहाँ से अपने निर्धारित समय से ही जाएगी,
अतः
यात्री अपनी तैयारी पूरी कर लें।"

उसने अनिद्रित नेत्रों को खोला,
मन को
भाव-सिन्धु से उबार,
विचार-यान पर किया सवार,
पलकों को गिराया,
और कर गया प्रवेश,
निद्रांगन में।

नये दिन के,
नव प्रभात में उसने देखा,
उसके जीवन ने,
अपनी मृत्यु पर,
कुछ और वर्षों के लिए,
विजय प्राप्त कर लिया है।

20.1.23

हमारी स्मृति

जिस दिन तुम लिखना चाहोगे स्वयं को,
चीरने लगेगी तुम्हारा कलेजा, 
मेरी स्मृति- उसी क्षण।
 
यद्यपि तुम करोगे प्रयत्न बचने का, 
तुम्हारे मस्तिष्क के प्रत्येक यत्न पर, 
किन्तु, 
समय मारेगा हथौड़ा, 
मेरे सह-स्मरण-चित्र का, 
तुम्हारे मनः पटल पर| 

उसका हर प्रहार, 
पिघला डालेगी तुम्हारी अनुभूतियों को, 
प्रवेश कर जाएगी बन स्याही तुम्हारी लेखनी में, 
फिर उकेर देगी पत्र-पृष्ठ पर, 
मेरे साथ, 
तुम्हारे सह-वास को, 
उस समय तुम मात्र लाचार ही रहोगे अपनी
और हमारी स्मृतियों के समक्ष| 

हाँ, संसार के सामने भले ही मुस्कुराते रहो।

18.1.23

समय और सुई

एक समय मैंने पूछा समय से,

“जैसे वह चलना चाहता था,

क्या चल पा रहा है वैसे ही?

 

समय ने देखा मेरी ओर

कुछ कातर दृष्टि से,

पश्चात् प्राप्त कर सहजता,

बोला निर्वेद भाव से,

"मैं कहाँ हूँ अपने वश में?

जो चलूँ अपनी शैली से?

 

मैं कभी होता हूँ

शिव, शुभकर, मंगल, सुदिन, स्वर्णिम,

जब आपेक्षित प्रसन्नता

होती है प्राप्त अपने चरम-सुख को|

यथा प्राप्ति कामधेनु की,

या चतुर्थाश्रम में

मिला हो सन्तति-सुख|

उस समय मैं होता हूँ द्योतक

परमानन्द का,

और कहा जाता है मुझे-

‘स्वर्ण-काल‘|

 

कभी कर दिया जाता हूँ घोषित

स्याह|

यथा-विपदा, यातना, सन्ताप, वेदना, विपत्ति, संकट, शोक

जब पार कर जाते हैं पराकाष्ठा अपनी,

जब इन्द्रास्त्राघात सम वेदना का होता है,

प्रहार किसी पर,

तब मैं कहा जाता हूँ   

अशुभ, अमंगल, दुर्दिन, धूसर, शनीचर, काला-दिन|

 

मैं जन-मनः+भावों से होता रहा हूँ भारिभाषित सदैव-

जिसे सुख मिला, सराहा मुझे,

वरद हस्त उठाया मुझपर,

दिया स्नेहाशीष मुझे,

और उन सभी ने किया अभिशप्त,

जिन्हें मिली पीड़ा तनिक भी|

मैं

चाहता हूँ सदैव

मन में उपजा विकार क्षीण हो जाय,

उसी क्षण,

जिस क्षण जन्मा वह किसी कारणवश|

मैं किसी के क्षोभ का

नहीं बनना चाहता कारक कभी,

न ही देखना इच्छुक होता हूँ

सुनने को रुदन किसी का,

किन्तु जीव अपने स्वाभाव से विवश

मुझे कोसते हुए,

करता रहता है प्रलाप बार-बार

अनेक बार|

 

मैं ब्रह्माण्ड के अवतरण से लेकर

सृष्टि के विनाश तक

सदैव यात्रा करता रहूँगा|

मैं न कभी किसी के लिए रुका हूँ,

न ही कभी रुकूँगा,

किन्तु

चाहता मैं भी हूँ,

स्थिर रहना प्रत्येक के,

प्रेम, अनुराग, स्नेह, वात्सल्य के साथ

जिसमें

थोड़ा लड़ा,

खेला अधिक

रोया थोड़ा,

हँसा अधिक,

फिर सब भूलकर

खूब खाया, खूब सोया,

और जब चाहा, जो चाहा,

किया, कहा,

न माना

न बुरा, न भला|

मैं रुकना भी चाहूँ,

तो रुक नहीं सकता,

क्योंकि

मैं तो हूँ दास मनुष्य का,

जिसने किया है अविष्कार

घड़ी रूपी यंत्र का,

और चलाता रहता है मुझे

निरन्तर एक अनन्त मार्ग पर,

अपनी जिजीविषा, लालसा, अभिलाषा, आकांक्षा, महत्वाकांक्षाओं के रूप में  

अन्तहीन लक्ष्य साधे|

उसकी घड़ी की सुई,

सदैव टिक-टिक चलती रहती है,

न स्वयं होती है स्थिर,

न रुकने देती है मुझे।

मृदु-मुष्टिका,

निःदन्त शिशु को वयस्क

और पुनः

शून्य-हस्त, दन्तहीन वृद्ध बना देती है।

झूलन-शैय्या पर

बोधहीन, नीरीह हाथ-पाँव डुलाता, छटपटाता,

स्तनपान के लिए कें-कें करता हुआ शिशु,

वृद्धावस्था में पुनः रुग्ण शैय्या पर पड़ा,

निःशक्त और जर्जर देह लिए,

रोटी-रोटी के लिए कांय-कांय करने लगता है।

जहाँ से प्रारम्भ करती है,

अपनी वृत्ताकृतिनुसार

जीवन की परिक्रमा कर

जीव को वहीं पहुँचा देती है,

वह घड़ी।"

 

पश्चात् इसके

एक अवसर मैंने पूछा घड़ी की सुई से भी,

कि एक ही स्थान पर

इतना घूमते-घूमते,

क्या वो ऊबती नहीं कभी?

क्या वो थकती नहीं कभी?

 

उसने कहा,

"मैं ऊबती भी हूँ

और मैं थकती भी हूँ,

भर जाती है नीरसता मुझमें भी।

किन्तु मैं हूँ चेरि समय की।

वह

मुझे घुमाता है,

और मैं मात्र घूमती हूँ,

आँख मूँदे,

बिना सर उठाए।

 

मेरी इच्छा या अनिच्छा नहीं है मेरे वश में

मेरा स्वामी समय है,

न वह कभी रुका है,

न रुकने देता मुझे,

और न ही स्थिर होने देता है

या इस सृष्टि को ही|

 

तटस्थ, निरपेक्ष और सम्वेदनारहित समय ने

मुझे भी कर दिया है पूर्ण भावहीन,

और मैं

कालाज्ञापालन में,

रहती हूँ गतिमान निरन्तर

परिणामरहित लक्ष्य की ओर|

जबकि मैं भी चाहती हूँ

निहारना एकटक,

प्रेमियों को,

जिन्हें कोई भय न हो,

रात्रि हो जाने का,

न ही भय हो,

भोर और असंख्य उत्तरदायित्वों का|  

मैं

प्राणियों का प्राणियों से,

जीवों का निर्जीवों से,

प्रेम करते हुए देखना चाहती हूँ,

और वहीं थम जाना चाहती हूँ,

कि

समय के गर्भ में छुपे

घृणा, हिंसा-प्रतिहिंसा से उपजी

पीड़ा उसकी चीत्कार, वेदना, और क्रन्दन

को देखने से बची रहूँ|

 

मैं सोचता हूँ,

इस सृष्टि में

कितने ही आए होंगे,

जिये होंगे, और न मात्र नष्ट हुए,

बल्कि समय की गति से गति न मिला सकने  के कारण,

विलुप्त ही हो गए,

जो और हैं,

जीवन के लिए कितना संघर्ष कर पाएँगे?

समय के साथ कब तक चल पाएँगे?

और कब तक अपना अस्तित्व बचा पाएँगे?

यह तो सम्भवतः समय को भी नहीं पता होगा|

 

जब समय स्वयं

नहीं हो पा रहा गतिमान स्वेच्छा से,

घटिका नहीं पा रही विश्राम तनिक भी,

दोनों ही को नहीं हो रहा प्राप्त अभीष्ट उनका,

तो विराट ब्रह्माण्ड में,

तृणाकृति हम मानव,

क्यों करते हैं अपेक्षा सर्वसुखप्राप्ति की?

और

तब मुझे समझ आया,

समय और सुई

परस्पर हैं अनुपूरक

जो

किसी दम्पति की ही भाँति

प्रतिक्षण करते रहते हैं सर्जन,

प्रेम, आनन्द, विनोद, उल्लास

युक्त

शोभा,  आभा, सौंदर्य से सुसज्जित

इस सृष्टि का|

और कभी काली-काल बन

लील जाते हैं इसी सृष्टि को

जो हो जाती है,

वीभत्स, विनाशक और विषैली।