शब्द समर

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25.1.17

आँखों का सूनापन

एक अजब सा सूनापन छाया रहता है,
आँखों की कोरों पर,
जो न जाने कब से
तुम्हारी ही बाट जोह रही हैं|
तुम, जो टपक गये थे,
कल बूँद बनके
मेरी तकिया पर,
और हो गये थे स्थिर बहुत देर तक,
जिसे मैं बिसूरती रही थी,
तब तक,
जब तक,
न हो गये पूरी तरह से विलीन
तकिया के तह में|

मैं हर रात बन्द कर लेती हूँ अपनी पलकें,
ताकि
देख सकूँ तुम्हें अपनी पूरी नज़र से,
रोक सकूँ तुम्हें सारी रात अपने भीतर,
लेकिन तुम हो
कि कोई-न-कोई बहाना बना ही लेते हो,
और मैं बावरी,
झपका देती हूँ, पुतलियों को,
और तुम बह निकलते हो|
पूरी तरह से निकलने से पहले,
मैं रोक लेती हूँ तुम्हें,
अपनी बरौनियों पर भी,
पर तुम कब रुकने वाले होते हो?
अपना खारापन मेरे चेहरे पर बिखेर ही देते हो|

बेबस मैं,
भीगी हुई आँखें,
और सूजे हुए कपोलों को चलती हूँ,
लोगों की नज़रों से बचाकर,
कि कहीं वे हँस न दें,

तुम्हारी बेवफ़ाई पर|

24.1.17

मरघटी तालाब

मरघट एक तालाब है|
तालाब ऐसा,
जिसमें जीते हैं, असंख्य सूक्ष्म,
और विशाल,
जो होता है,
अजले-जले-अधजलों का मुक्ति प्रदाता|
जिसका नाम मात्र ही
भय, और तिरस्कार भाव
से होता है सम्बोधित|
जहाँ अपने ही पैरों पर चलकर जाने से पूर्व
कंपकंपा उठती है देह,
द्विगुणित दौड़ती हैं साँसें,
झनझना जाता है पोर-पोर,
सावधान हो जाता है, रोयाँ-रोयाँ|
रंग-रूप, आकारहीन
घृणा का पात्र यह,
अपनी छाती को सुलगा,
या फाड़ कर  
कर लेता है
समाहित, उन्हें,
जिन्हें छोड़ जाते हैं वे लोग,
जो कभी होते थे वचनबद्ध
जीवन-मरण तक सहचर होने का|
बहुत ही शांत, और नीरव होता है
यह मित्र,
यह मरघटी तालाब|

16.1.17

सतरंगी-इन्द्रजाल

एक अजीब सी सरसराहट होती है
नस-नस में,
जब तुम्हारी छुअन
चुपके से करती है सरगोशी,
बदन के किसी पोर पर।

अंग-अंग चमक उठता है,
जैसे गा रहा हो कोई दीपक राग,
हवाओं में बसकर।
तुम्हारी अँगुलियों के राग मल्हार से
चिलचिला उठती हैं बूँदें,
और भीग जाती है पूरी देह,
जैसे आज यहीं बरसा हो, पूरा-का-पूरा सावन।

अनायास ही पलकें छुपा लेती हैं,
अपनी पुतलियों को
कि कहीं देख ना लें वे,
बिजली सी चमकती तुम्हारी आँखों को।
कानों ने खोल दिए हैं ताले,
अपने पटल के,
ताकि वे सुन सकें,
तुम्हारा पूरा प्रेम।

मन निकल पड़ा है,
किसी अभीष्ट की तलाश में,
और लगाए जा रहा है गोता,
तुम्हारी लहरों के साथ,
खोता जा रहा है,
समुद्र के खारेपन में।

तूफ़ान की तरह तुम्हारा आना,
एक पल में
कर देना मुझे अस्त-व्यस्त,
फिर समेटना,
लरजती हुई मेरी साँसों को,
भर देना भाव संतुष्टि का।

इन्द्रजाल सा यह खेल,
जो कुछ ही क्षणों में हो जाता है अदृश्य,
किन्तु जब तक दिखता है,
जीवन सतरंगी रहता है।

13.1.17

मैं कणाद

चित्र-प्रतीकात्मक, साभार-गूगल  
मेरा परिचय?
वह तो बस
इतना ही है साहब
कि
मैं
बीनता हूँ,
सड़कों, या किनारे फेंकी हुई पन्नियों को|
उठाता हूँ,
तुम्हारे द्वारा खाली की हुई बोतलों को|
उतारता हूँ,
मरे जानवरों की खाल|
करता हूँ सफाई,
उन नालियों की, जिसमें गू-मूत करने में,
नहीं होती तुम्हें तनीक भी हिचक|

खाते हो तुम चुन-चुनकर
बड़े ही चाव से,
जिस भोज्य पदार्थ को,
पश्चात् पाचन के,
निकाल देते हो उसे
देकर नाम मैला का,
फिर उसी से होती है, घिन तुम्हें,
न ही फटकना चाहते, 
तुम उसके ईर्द-गिर्द भी|
रोग और मृत्यु से भरे
कालरूपी मल-मूत्र से 
मुक्ति दिलाने का मैं लेता हूँ जिम्मा|

बदले इसके देते हो तुम मुझे,
घृणा, तिरस्कार, दुत्कार, बलात्कार
और बहिष्कार अपने समाज से|
लगा देते हो धब्बा
मुझपर अछूत होने का|

ऐसा नहीं कि 
नहीं रहता मैं सफाई में,
किन्तु टट्टी उठाने वाला मैं
कितना भी कोशिश कर लूँ,
किन्तु घोषित कर देते हो तुम मुझे टट्टी जैसा ही, 
हमेशा के लिए|
बात ये भी नहीं कि 
अक्षरों से है मेरी शत्रुता
किन्तु
जिस समय ही पलटता हूँ पन्ना,
उसी समय,
पेट की अंतड़ियाँ लगती हैं मरोड़ने,
छाने लगता है अँधेरा आखों के सामने,
चकराने लगता है सर,
क्योंकि किसी ने सत्य ही कहा है,
“भूखे भजन न होय गोपाला|”

इसलिए
किताबों को रख,
मैं पुनः उठा लेता हूँ,
अपने मटमैले वस्त्रों से लिपटे शरीर को,
और निकल पड़ता हूँ,
पेट का अँधेरा मिटाने,
और जिंदगी का अँधेरा बढ़ाने|
मैं पृथ्वी बन
लगाने लगता हूँ चक्कर
अपने कूड़ा रुपी सूर्य का,
और बन जाता हूँ ‘कणाद’| 

9.1.17

मात्र एक घन्टे की

होती है मुलाक़ात मात्र एक घन्टे की,
रह गई है मेरी बात मात्र एक घन्टे की
देखकर आश्चर्य होता है,
क्या बची मेरी औक़ात मात्र एक घन्टे की?

जिन्होंने दी शाहदत, मुझे चूमने को आकाश,
क्या उनकी भी विसात मात्र एक घन्टे की?

आते हो मेरे पास, अपना वक्त  निकालकर,
क्या लाते हो अपनी बारात मात्र एक घन्टे की?  

करते हो बातें बड़ी-बड़ी, तुम देश के लिए,
क्या होती है सारी बात मात्र एक घन्टे की?

किये जो तुमने कार्य, वो आधे-अधूरे हैं,
क्या दे रहे हो सौगात मात्र एक घन्टे की?

मुझसे अभी अधिक प्रिय हैं तुम्हें, बेसन के लड्डू,
क्या तीन रंगों की है विसात मात्र एक घन्टे की?

‘विद्यार्थी’ मैं भारत की आज़ादी, चाहती हूँ कुछ कहना,
क्या सुनोगे मेरी बात मात्र एक घन्टे की?

तो सुनों! अगर चेते नहीं अभी,
तो क्या बचेगी तुम्हारी भी औक़ात, मात्र एक घन्टे की?

7.1.17

विकास या अतिक्रमण?

क्या आप करेंगे पसंद
वह जीवन,
जिसे जीते हैं
कथित आदिवासीबंजारे, दलित, या निम्न वर्गीय लोग?
यदि हाँ,
तो स्वागत है आपका, हमारे बाहुपाश में,
और यदि नहीं,
तो किसने दिया आपको ये हक़
कि आप बलात बदलें
हमारी जीवन शैली,
जिसे हम जी रहे हैं सदियों से,
जो बसी है हमारी हर साँस में?

कहीं आप आक्रमण तो नहीं कर रहे,
सभ्यता और विकास के नाम पर,
हमारी स्वतंत्रता पर?
कहीं आप अतिक्रमण तो नहीं कर रहे हैं,
हमारे जल-वन-भूमि पर?
कहीं सूट-बूट और चिकने चहरे के नाम पर,
आप जला तो नहीं रहे हमारे घर-झोपड़े?

यदि आपकी यही है कोशिश,
तो सावधान अर्जुन!
एकलव्य का मात्र अँगूठा ही छीना है
तुम्हारे गुरु ने,
उसका हुनर नहीं।
हमारे सर्वनाश से पूर्व,
तुम भी नहीं रहोगे,
देखने के लिए जीवित,
सभ्यता के नाम पर विध्वंश करते,

इस दुनिया को।