शब्द समर

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30.7.22

बुलडोज़र

कुछ सालों पहले की बात है, शहर में सड़क किनारे एक विलक्षण वाहन खड़ा था।

देखते ही पाँच वर्षीय बालक झुल्लू ने आश्चर्य से अपने पिता से पूछा, "बाबू! ई कवन गाड़ी ह, जवने में, केवल डराइबर बइठल?"

"बउआ! एकरा हथिसुड़वा कहल जाला, एकरा से पहाड़ खोदल जाला, डहर बनावल जाला, नया निर्माण करल जाला। तहरा गाँव के जब पक्का सड़क बनी त तहरा गाँव में भी आई।" पिता ने बड़े ही प्यार से झुल्लू को बताया।

एक दिन सुबह-सुबह की ही बात है, पैतीस वर्षीय झुल्लू अपने दोस्त इकराम के साथ खड़ा था, उसके गाँव में वही हथिसुड़वा आया है, झुल्लू खुश है, क्योंकि कल ही उसने सरपंच से शहर और गाँव के बीच बाधा बन रहे पहाड़ को काट, गाँव में सड़क बनाने के लिए तीखी बहस की थी। अब उसको गाँव में सड़क बनने का सपना साकार लगा ही था कि बुलडोज़र चढ़ बैठा उसके घर पर और क्षणभर में मलबा हो गया उसका और इकराम का घर।

झुल्लू की बिटिया, वही सवाल कर रही है झुल्लू से, जो उसने अपने पिता से पूछा था, लेकिन झुल्लू का उत्तर था, "बिटिया! एकरा बुलडोज़र कहल जाला, जवने के देस कानून के छाती पर चढ़ा के लोगन के घर गिराव जाला।"

पापा! हमारी गलती क्या है कि घर गिरा दिया हमारा? बिटिया! कल तहार बाऊ, माने कि हम आ तहार इकराम चचा सरपंच से ओकरा गलत बात न माने खातिर अड़ गइल रहली जा। सरपंच इहवाँ के बड़का अदमी ह आ जड़बुद्धि, घमण्डी, जातिवादी, धरमवादी ह, ऊ अपना ख़िलाफ़ बात बर्दाश्त ना करेला, उहो हम जइसे छोटका लोगन से। जवन अदमी के पास बुद्धि ना होखेला,

ऊ अपना ताकत देखावेला।"

तो पापा! गाँव के बाकी लोग क्यों नहीं रोक रहे? बिटिया दुःखी मन से पूछती है। लाचार झुल्लू और इकराम जब तक बिटिया को जवाब देते, उनको गोली लग चुकी थी, बिटिया सन्नाटे में कभी उन्हें देखती, कभी गाँव वालों को, जिन्होंने झुल्लू और इकराम के एनकाउंटर के लिए पुलिस बुलाया था, और एक को इलज़ाम दिया सरपंच के पाटीदारों पर पत्थर चलाने का, और झुल्लू को ज़मीन हथियाने का।

पाँच साल की बिटिया अब बेघर, बेबस, लावारिस सड़कों पर खड़ी भीख माँग रही है। वह सरपंच के ख़िलाफ़ कानूनन मुकदमा भी नहीं कर सकती, क्योंकि कानून का एनकाउंटर कर चुकी थी पुलिस, और बचे हुए को बुलडोज़र रौंद चुका था, कई बार गाँव के कई लोगों के घरों पर चढ़ कर, जिसने भी सरपंच के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी।

अब इस गाँव में कई महिलाएँ और बच्चे सड़कों-चौराहों पर या तो भीख माँग रहे हैं, या बेच रहे हैं, पेन डायरी सस्ते दामों में।

सरपंच सुशासन और गाँव ने सर्वोत्तम व्यवस्था के नाम पर पद्म पुरस्कारों से सम्मानित हो रहा है।

जिगर कहाँ से लाओगे

मुझसे नज़र तो मिलाओगे
पर जिगर कहाँ से लाओगे

जो दग़ा हमसे किया है
वो ख़बर कहाँ मिटाओगे

पीठ-पीछे जो रखा है मेरे
वो खंजर कहाँ छुपाओगे

छुप के जो दफ़नाया है
मेरी कबर कहाँ दबाओगे

दर्द चीखेगा सरे बज़्म मेरा
अपना हशर कहाँ ले जाओगे

शब-ए-ख़ात्मा होने को है
कहो वो सहर कहाँ बुझाओगे 

14.7.22

धर्म

ले लो ले लो
क्या बेचते हो भाई?
मैं धरम बेचता हूँ सरकार।
धरम?

हाँ जी धरम;
जिसे दीन, मज़हब रिलीजन कहते हैं,
जो तिलक, टोपी, क्रॉस
और पगड़ी में दिखाई देता है,|
जिसका प्रतीक,
गाय, सुअर या बकरा होता है,
जो केसरिया, हरा, नीला, लाल होता है,
जो मूँछों, दाढ़ियों से पहचाना जाता है।
अच्छा-अच्छा
जो
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघरों में
रहता है,
जो अल्लाह, राम,
जीजस के नाम से पुकारा जाता है?

हाँ जी वही धरम।
चाहिए आपको?
चाहिए तो था,
पर बड़ा मँहगा होगा?
क्या क़ीमत लगाई इसकी?

हे हे हे!
अरे हज़ूर!
मँहगा?
वह भी धरम?
अजी छोड़िए।
इससे सस्ता तो कुछ हो ही नहीं सकता।
ये कोई डीज़ल, पेट्रोल, रसोईं गैस थोड़े न है,
न ही यह थाली की रोटी है,
यह तो धरम है जी,
आज के दौर का सबसे सस्ता माल।

यह महँगा हुआ करता था,
पिछले ज़माने में,
हमारे दादा-परदादा के।
अच्छा!
क्या क़ीमत लगाई?

ख़ून।
ख़ून?
जी हुज़ूर,
ख़ून, लहू, रक्त, ब्लड।
माफ़ करो,
मैं अभी हाल ही में रक्तदान कर आया हूँ;
तो तुम्हारा माल मैं नहीं ख़रीद पाऊँगा।

अरे सरकार!
कौन माँग रहा है आपसे आपका ख़ून?
तो फिर?
आप तो बस टोपी वाले को,
तिलक वाले से,
तिलक वाले को क्रॉस वाले से,
या ऐसे ही अलग-अलग
निशान वालों को,
इनके अपने-अपने धरम के
ख़तरे में होने का दे दीजिए हवाला
भिड़ा दीजिए,
इन्हें एक-दूसरे से,
फिर देखिएगा,
कैसे ख़ून बहाते हैं ये-
सड़कों पर, चौराहों पर, घरों में
या कहीं भी।
ये रक्तदान नहीं,
रक्त की नदियाँ बहा देंगे।
ये जान बचाने के लिए नदी नहीं,
जान लेने के लिए
लहू तैरकर लहू बहाएँगे।
आप तो बस अपने महलों से
देखते जाइएगा ये नज़ारा,
और पिलाते रहिएगा ख़ुराक़
भाषणों की दूर से ही।
ये वो चीज़ है मालिक,
जिसे आप ख़ुद मानें-न-मानें,
पर लोग आपकी दुहाई देकर
न केवल मानेंगे ही,
बल्कि दूसरों को मनवाने के लिए,
उनके घरों से
ख़ून-ही-ख़ून बहाएँगे।

अरे वाह!
कुछ बेमोल-सी जानें,
और थोड़े-से ख़ून के बदले,
इतनी ख़ूबसूरत चीज़?

लाओ भाई मुझे दे दो।

11.7.22

रास्ता

मैं चाँदनी को छोड़
पहुँचा थोड़ी ही दूर था
कि लगा जैसे,
रास्ता चला आ रहा है
पीछे-पीछे मेरे।


मैं फिर भी बढ़ आया,
आगे बहुत,
पर जब ठहरा,
तो देखा
रास्ता मेरे साथ ही था।


"तुम कहाँ तक चलोगे साथ मेरे?"
मैंने जब पूछा उससे,
"तुम्हारी ज़िन्दगी तक"
कहा उसने,
सहलाकर पैर मेरे।


माँ की कोख से मरघट तक
मैं ही तुम्हारा साथी हूँ,
तुम जहाँ भी देखोगे
मैं हर जगह दिखूँगा।
कभी गली बनकर,
तो कभी पगडण्डी,
कभी हवाओं में,
तो कभी चमचमाती
चौड़ी छाती की तरह।

तुम्हारे हर क़दम का
साथी हूँ मैं
क्योंकि
तुम राही हो,
मैं राह हूँ।

एक आदमी आता है, घर बनाता है

एक आदमी आता है,
घर बनाता है।

गला सूखने तक,
प्यास को दबाता है,
अन्तड़ियाँ उखड़ने तक
भूख बिसराता है।
प्राण निकलने तक
प्राण पुचकारता है।
ख़त्म होती साँसों तक,
साँसों को बहलाता है।


पाताल तक की
मिट्टी खोदता है,
समन्दर भर का पानी,
उलीचकर मिलाता है।
जमा हुई पूँजी को
गारे में घोल जाता है।


मिट्टी को मिट्टी से उठाने में,
अपनी हैसियत के,
सालों-साल समय लगाता है।


चमचमाती आँखों,
हलराती साँसों से,
लहराते सपनों से,
खिलखिलाते अपनों से,
उसे निहारता है,
दुनिया के साथ खूब
खुशियाँ मनाता है।


*****


एक, दूसरा आदमी आता है,
उस घर को गिरा देता है।
मिट्टी को मिट्टी से उठाने में,
लगे वर्षों निर्माण-काल को,
आकाश-चूमते
उन सपनों को,
कुछ पल में ही
मिट्टी में मिला देता है|

कितना सरल होता है,
किसी के श्रम को,
क्षण भर में भरभरा देना
ताश के पत्तों की तरह।

जलता है जो जलने दे

जलता है जो जलने दे,
बुझता जो बुझने दे
वो काँटे की सुई है,
चुभता है चुभने दे।


उसमें तपिश भरी है,
तो तपने दे उसे,
वो तीखी रोशनी है,
पड़ता है पड़ने दे।


आँखों से गिर पड़ा है जो,
उस पर तरस न खा,
वो शबनमी नमी है
गिरता है गिरने दे।


उसकी नज़र अगर,
तुझ पर है अब पड़ी,
तिज़ारती नज़र है वो
गड़ता है तो गड़ने दे।

वो मुस्कुराते आए हैं,
आगोश में तेरे,
खंजर मगर छुपाए हैं
छुपता है छुपने दे।

है इश्क़ की अगन,
उसमें धधक रही,
एक पल हौसला है
जगता है तो जगने दे।

नाचैं राधा संग बिहारी

नाचैं राधा संग बिहारी, हाथ लए पिचकारी,
झूमें सब नरनारी, एह फागुन-बहार में|

बोले गोवर्धन-गिरधारी, सुनो राधे सुकुमारी,
आओ घुल-मिल जाएँ सतरंगी फुहार में|


कि देखो बाजे कहीं ढोल, कहीं भंग रंग घोल,
सब हो रहे हैं मस्त गुलाली बौछार में


विद्यार्थी लिए सुमन संग, बने मस्त मलंग,
लिए झोलियों में रंग बहें प्रेम की बयार में

बीमार होने कि हसरत

बीमार होने की हसरत कोई लेकर नहीं आता
कमबख्त दिल है कि मोहब्बत किए बैठा है।


तिज़ारतें हमने सीखीं नहीं उल्फ़तों की जगह
दिल मेरा संग-ए-दिल की सोहबत किए बैठा है

उनसे इश्क़ करने की ख़ता जो हुई
टूटा हुआ दिल दर्द की हिम्मत लिए बैठा है

उनसे जब हमको इश्क़ हुआ

उनसे जब हमको इश्क़ हुआ,
ख़ामोशी में हम खोए रहे।

बे-तार्रुफ़ होते वक़्त खुदाया,
अश्क़ों से जीस्त भिगोए रहे।

यूँ रौनक-ए-महफ़िल हमीं रहे,
पर तन्हाई में हम रोए रहे।


सालों-दर-साल बेहोशी थी,
अपनी ही बाँहों में सोए रहे।


हसरत-ए-दिल कुछ और नहीं,
चिराग़-ए-उम्मीद सँजोए रहे।

नासाज़ तबीयत

नासाज़ तबीयत लगती है
हम जाएँ कहाँ कुछ यार कहो
बेज़ार ये नीयत लगती है
मुस्काएँ कहाँ अब यार कहो


अपने भी सारे रूठ गए
दिल आशना में टूटा है
जो हथेली में पैबस्त था
वो हाथ हाथ से छूटा है
बरबाद ये उल्फ़त लगती है
हम जाएँ कहाँ कुछ यार कहो


उम्मीद-ए-मोहब्बत की थी जिनसे
वो दिल अब दिल से दूर हुए
आँखों से गिरते अश्क़ों को
हम पीने पर मजबूर हुए
झूठी ये वसीयत लगती है
मुस्काएँ कहाँ अब यार कहो

जीवन-झरना

जीवन झरना है,
और बूँदें इसकी साँसें।
जल होता रहता है प्रवाहित
शरीर में रक्त संचरण जैसे,
और पाषाण,
बाँधे रहते हैं
दोनों पाट,
हड्डियों के रूप में
रेत रूपी माँस-पेशियों के संजाल से।

बहाव आवश्यक है,
चाहे वह झरना हो,
या जीवन,
किन्तु
उससे भी अधिक
आवश्यक
करते रहना रक्षा
बूँदों की
ठीक वैसे ही,
जैसे बचाते हैं,
अपनी साँसें।

अजीब है ज़िन्दगी

अजीब है ज़िन्दगी ये ग़ज़ब का नशा भी
कहो मयक़दों को अब शराब ना पिलाएँ।

मदहोश है रात ये ग़ज़ब की ख़ुमारी है
कहो शायरों से अब शेर ना सुनाएँ।


नज़रों ने किया है तमाम काम अपना
कहो सैयाद से अब तीर ना चलाएँ।


आँखों ने कह डाला हाल-ए-दिल सभी
होंठो से कहो अब जज़्बात न बताएँ।


है तमन्ना डूब जाऊँ दिल के दरिया में
बादलों से कहो कहीं और बरस जाएँ।

शाहीन

धंधेबाज़ भूल जाए भले
धन्धा अपना
या
कलाबाज़ अपनी कलाकारी को।
नशेबाज़ चाहे छोड़ दे
धुत रहना अपनी धुन में,
या
चालबाज़ अपनी अनोखी चालें।
बेशक हुनरबाज़ बन्द कर दे
रिझाना अपने अलग-अलग करतबों से
टंटेबाज़ हो जाए ख़ामोश
अपनी टंटपली से।

लेकिन शाहीन
उड़ता है,
छूता है पूरी ऊँचाई आसमान की,
निहारता रहता है एकाग्रता से
और फिर झप्पटा मार ले जा जाता है
अपने आहार को।

 

बाज़ कभी भी

अपना शिकार

कभी नहीं छोड़ता।

सजीव-सहेली

वो मेरी प्रसन्नता को
बढ़ा देती है कई गुना,
बेटी की तरह,
पोंछ देती है,
आँसू मेरे,
माँ बनकर।

अर्धांगिनी बनकर
पी जाती है सारे दुःख को,
और
सुझाती है सही दिशा
भटके हुए चौराहे पर
बहन सरीखे।

उसमें भाव है दायित्वों का
मेरे पिता के रूप में,
सम्वेदनशील है
भाई के नाते,
आठों याम हाथ थामें
चलती हैं साथ
मित्रवत। 

ये पुस्तकें नहीं
जीवन की वह साथी हैं,
जो निर्जीव होकर भी
सजीव सहेली होती हैं।

फूलों का रंग

फूलों का रंग-
होंठों के रंग जैसा होता है;
बिल्कुल मुस्कुराता हुआ,
खींचता हुआ अपनी ओर
अजनबी को भी।

फूलों का रंग-
आँखों के रंग जैसा होता है;
बिल्कुल खिला हुआ,
करता आमन्त्रित हर पथिक को।

फूलों का रंग-
तारों के रंग जैसा होता है;
बिल्कुल टिमटिमाता हुआ,
बिखेरता रोशनी
अमावस को भी।

फूलों का रंग-
फूलों जैसा ही होता है,
बिल्कुल मुरझाते हुए भी
महकता हुआ
पूरे बग़ीचे में।