शब्द समर

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18.1.23

समय और सुई

एक समय मैंने पूछा समय से,
“जैसे वह चलना चाहता था,
क्या चल पा रहा है वैसे ही? 

समय ने देखा मेरी ओर
कुछ कातर दृष्टि से,
पश्चात् प्राप्त कर सहजता,
बोला निर्वेद भाव से,
"मैं कहाँ हूँ अपने वश में?
जो चलूँ अपनी शैली से?

मैं कभी होता हूँ
शिव, शुभकर, मंगल, सुदिन, स्वर्णिम,
जब आपेक्षित प्रसन्नता
होती है प्राप्त अपने चरम-सुख को|
यथा प्राप्ति कामधेनु की,
या चतुर्थाश्रम में
मिला हो सन्तति-सुख|
उस समय मैं होता हूँ द्योतक
परमानन्द का,
और कहा जाता है मुझे-
‘स्वर्ण-काल‘|

कभी कर दिया जाता हूँ घोषित
स्याह|
यथा-विपदा, यातना, सन्ताप, वेदना, विपत्ति, संकट, शोक
जब पार कर जाते हैं पराकाष्ठा अपनी,
जब इन्द्रास्त्राघात सम वेदना का होता है,
प्रहार किसी पर,
तब मैं कहा जाता हूँ   
अशुभ, अमंगल, दुर्दिन, धूसर, शनीचर, काला-दिन| 

मैं जन-मनः-भावों से होता रहा हूँ भारिभाषित सदैव-
जिसे सुख मिला, सराहा मुझे,
वरद हस्त उठाया मुझपर,
दिया स्नेहाशीष मुझे,
और उन सभी ने किया अभिशप्त,
जिन्हें मिली पीड़ा तनिक भी|
मैं
चाहता हूँ सदैव
मन में उपजा विकार क्षीण हो जाय,
उसी क्षण,
जिस क्षण जन्मा वह किसी कारणवश|
मैं किसी के क्षोभ का
नहीं बनना चाहता कारक कभी,
न ही देखना इच्छुक होता हूँ
सुनने को रुदन किसी का,
किन्तु जीव अपने स्वाभाव से विवश
मुझे कोसते हुए,
करता रहता है प्रलाप बार-बार
अनेक बार| 

मैं ब्रह्माण्ड के अवतरण से लेकर
सृष्टि के विनाश तक
सदैव यात्रा करता रहूँगा|
मैं न कभी किसी के लिए रुका हूँ,
न ही कभी रुकूँगा,
किन्तु
चाहता मैं भी हूँ,
स्थिर रहना प्रत्येक के,
प्रेम, अनुराग, स्नेह, वात्सल्य के साथ
जिसमें
थोड़ा लड़ा,
खेला अधिक
रोया थोड़ा,
हँसा अधिक,
फिर सब भूलकर
खूब खाया, खूब सोया,
और जब चाहा, जो चाहा,
किया, कहा,
न माना
न बुरा, न भला|
मैं रुकना भी चाहूँ,
तो रुक नहीं सकता,
क्योंकि
मैं तो हूँ दास मनुष्य का,
जिसने किया है अविष्कार
घड़ी रूपी यंत्र का,
और चलाता रहता है मुझे
निरन्तर एक अनन्त मार्ग पर,
अपनी जिजीविषा, लालसा, अभिलाषा, आकांक्षा, महत्वाकांक्षाओं के रूप में  
अन्तहीन लक्ष्य साधे|
उसकी घड़ी की सुई,
सदैव टिक-टिक चलती रहती है,
न स्वयं होती है स्थिर,
न रुकने देती है मुझे।
मृदु-मुष्टिका,
निःदन्त शिशु को वयस्क
और पुनः
शून्य-हस्त, दन्तहीन वृद्ध बना देती है।
झूलन-शैय्या पर
बोधहीन, नीरीह हाथ-पाँव डुलाता, छटपटाता,
स्तनपान के लिए कें-कें करता हुआ शिशु,
वृद्धावस्था में पुनः रुग्ण शैय्या पर पड़ा,
निःशक्त और जर्जर देह लिए,
रोटी-रोटी के लिए कांय-कांय करने लगता है।
जहाँ से प्रारम्भ करती है,
अपनी वृत्ताकृतिनुसार
जीवन की परिक्रमा कर
जीव को वहीं पहुँचा देती है,
वह घड़ी।"

पश्चात् इसके
एक अवसर मैंने पूछा घड़ी की सुई से भी,
कि एक ही स्थान पर
इतना घूमते-घूमते,
क्या वो ऊबती नहीं कभी?
क्या वो थकती नहीं कभी?

उसने कहा,
"मैं ऊबती भी हूँ
और मैं थकती भी हूँ,
भर जाती है नीरसता मुझमें भी।
किन्तु मैं हूँ चेरि समय की।
वह
मुझे घुमाता है,
और मैं मात्र घूमती हूँ,
आँख मूँदे,
बिना सर उठाए।

मेरी इच्छा या अनिच्छा नहीं है मेरे वश में
मेरा स्वामी समय है,
न वह कभी रुका है,
न रुकने देता मुझे,
और न ही स्थिर होने देता है
या इस सृष्टि को ही| 
तटस्थ, निरपेक्ष और सम्वेदनारहित समय ने
मुझे भी कर दिया है पूर्ण भावहीन,
और मैं
कालाज्ञापालन में,
रहती हूँ गतिमान निरन्तर
परिणामरहित लक्ष्य की ओर|
जबकि मैं भी चाहती हूँ
निहारना एकटक,
प्रेमियों को,
जिन्हें कोई भय न हो,
रात्रि हो जाने का,
न ही भय हो,
भोर और असंख्य उत्तरदायित्वों का|  

मैं
प्राणियों का प्राणियों से,
जीवों का निर्जीवों से,
प्रेम करते हुए देखना चाहती हूँ,
और वहीं थम जाना चाहती हूँ,
कि
समय के गर्भ में छुपे
घृणा, हिंसा-प्रतिहिंसा से उपजी
पीड़ा उसकी चीत्कार, वेदना, और क्रन्दन
को देखने से बची रहूँ|

मैं सोचता हूँ,
इस सृष्टि में
कितने ही आए होंगे,
जिये होंगे, और न मात्र नष्ट हुए,
बल्कि समय की गति से गति न मिला सकने  के कारण,
विलुप्त ही हो गए,
जो और हैं,
जीवन के लिए कितना संघर्ष कर पाएँगे?
समय के साथ कब तक चल पाएँगे?
और कब तक अपना अस्तित्व बचा पाएँगे?
यह तो सम्भवतः समय को भी नहीं पता होगा|

जब समय स्वयं
नहीं हो पा रहा गतिमान स्वेच्छा से,
घटिका नहीं पा रही विश्राम तनिक भी,
दोनों ही को नहीं हो रहा प्राप्त अभीष्ट उनका,
तो विराट ब्रह्माण्ड में,
तृणाकृति हम मानव,
क्यों करते हैं अपेक्षा सर्वसुखप्राप्ति की?
और
तब मुझे समझ आया,
समय और सुई
परस्पर हैं अनुपूरक
जो
किसी दम्पति की ही भाँति
प्रतिक्षण करते रहते हैं सर्जन,
प्रेम, आनन्द, विनोद, उल्लास
युक्त
शोभा,  आभा, सौंदर्य से सुसज्जित
इस सृष्टि का|
और कभी काली-काल बन
लील जाते हैं इसी सृष्टि को
जो हो जाती है,
वीभत्स, विनाशक और विषैली।


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