रात्रि
के उस प्रहर,
वह
सोया नहीं।
वह
कुछ सुनना चाहता था,
सम्भवतः
अन्तर्मन के कोलाहल को।
उसके
जीवन की उहापोह
अमावस्या
के ज्वार की भाँति
उत्तरदायित्वों,
कर्तव्यों
की
अनन्त
ऊँचाई लिए आता,
और
असफलता, निराशा और हताशा के,
गहरे
खोह में पटक जाता।
किंकर्तव्यविमूढ़,
अनिच्छित
वह
हर
बार कर जाता प्रवेश,
अन्तस्थोदधि
के चक्रवात में,
और
लगाने लगता गोते
उत्ताल
भाव-तरंगों के मध्य।
उन्माद,
अवसाद
के बीच,
डूबता-उतराता,
द्वन्द्व
की उछालें पाता,
क्रोध
से थपेड़े खाता,
उदास
हो लोट जाता,
तो
कभी नेत्र-धारा में प्रवाहित हो,
चला
जाता सुदूर मनः-केन्द्र में,
और
आ गिरता
शोकाकूल
पर लाचार-सा।
सहसा
सुना उसने,
उसके
कानों में गूँजती,
अन्तर्वाणी
की धोषणा-ध्वनि,
"यात्री
कृपया ध्यान दें-
जन्म
से लेकर मृत्यु की ओर जाने वाली प्राण-गाड़ी,
कई
वर्षों से देह रूपी स्थानक पर खड़ी है,
इसकी
यहाँ से प्रस्थान का समय हो चुका है,|
यह
यहाँ से अपने निर्धारित समय से ही जाएगी,
अतः
यात्री
अपनी तैयारी पूरी कर लें।"
उसने
अनिद्रित नेत्रों को खोला,
मन
को
भाव-सिन्धु
से उबार,
विचार-यान
पर किया सवार,
पलकों
को गिराया,
और
कर गया प्रवेश,
निद्रांगन
में।
नये
दिन के,
नव
प्रभात में उसने देखा,
उसके
जीवन ने,
अपनी
मृत्यु पर,
कुछ
और वर्षों के लिए,
विजय
प्राप्त कर लिया है।
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