ज़िन्दगी की ज़मीं पे, दरिया भी जो न
थे,
सियासत की राह में, वो सैलाब हो
गए।
रोशनी के नाम पर, जुगनू थे तब
तलक,
रोशनाई में आज वो, आफ़ताब हो गए।
क़ायम है आज तो, अफ़सानों में ख़ुश्बू उनकी,
चाबुक के दम पे जो, अब गुलाब हो
गए।
आवाम की जानिब, जो क़दम भी ना चले,
तारीख़ में वो आज, नायाब हो गए।
जिनको भी फ़िक्र थी, महफ़ूज़-ए-हुक़ूमत की,
वतन के नाम पे, वो क़ामयाब हो गए।
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