मिट्टी के घरौंदे में,
कपास की देह पहने,
तेल जैसे विषाक्त हवा को अवशोषित कर,
लपटें ऐसे किरणें फैलाती हैं,
जैसे वृक्ष कोई प्राणवायु।
जितना ही भरता जाता है तेल,
उतना ही,
रोम-रोम जलता है दीया,
रोम की तरह।
मनुष्य नाचता है, गाता है,
करता है सहस्रों कर्म,
और बजाता रहता है बंशी,
इसी के प्रकाश में।
सम्भवतः नीरो अभी भी जीवित है।
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