चित्र-साभार-गूगल |
बचपन,
एक बिखरी हुई,
लेकिन सिमटी ज़िन्दगी,
जिसे नहीं है चिन्ता,
उड़ने की,
न ही है परवाह,
गिर जाने की।
हर मंज़रों में
बे-ख़ौफ़ मैराथन करने वाले खिलाड़ी,
जिसे न जीतने का गुमान है,
न हार जाने का शोक,
इसी के रास्ते में मिलते हैं।
बचपन
एक ऐसा खेल का मैदान,
जिसमें मदमस्त हाथी,
चंचल हिरण,
खूँखार बाघ,
चालक लोमड़ी,
निरीह मेमना,
सब एक साथ मिल जाते हैं,
उछलते-कूदते।
बचपन,
एक ऐसा आँगन,
जिसमें चन्दा को पाने की ज़िद,
ख़ुद में खो जाने की प्रवृत्ति,
सब कुछ लुटा देने का हुनर,
सूरज को ललकारने की ताक़त
एक ही देहली पर होते हैं,
विराजमान।
आओ घूम आएँ
एक बार, उसी दुनिया में,
जिसे अब हम जी नहीं सकते,
बस तरस सकते हैं,
भरते हुए एक आह,
और यही सोचते रहेते हैं,
काश! समय का पहिया एक बार उल्टा घूम जाता।
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