मेरी ज़िन्दगी?
मेरी तो ज़िन्दगी बिखरी पड़ी है;
उसे एक ही जगह से उठा पाना,
ज़रा मुश्किल होगा|
बीनना पड़ेगा उसे,
टुकड़े-टुकड़े, तिनके-तिनके में|
सबसे पहले जाओ मेरे कमरे में;
वहाँ
थोड़ी-सी छिटकी होगी फर्श पर
धूल के कणों में,
तो कुछ पड़ी होगी अस्त-व्यस्त, बेतरतीब-सी
अलमारी के खानों में|
तनिक झाँक लेना,
कुछ अंश दराज़ में भी होंगे,
तो कुछ चिपके होंगे,
कुर्सी, टेबल और खाट के पायों में
मकड़ी के जाले, और धब्बे बनकर|
किताबों में तो गुच्छे-में ही मिल जाएगी,
जब-तब पाते-ही फ़ुर्सत
ताकती रहती थी टकटकी लगाए
पन्ने-दर-पन्ने;
बहुत कुछ समेटा है,
उन काग़ज़ों से|
बहुत-सारी मिलेगी फैली हुई
स्याही बन कई सादे काग़ज़ों में,
जिसमें उकेरे हैं इसने कई हर्फ़
अपने और कईयों की जिन्दगियों के,
कुछ नज़्मों और कविताएँ बनाकर|
पड़े-पड़े बिस्तर पर
कभी-कभी लगाने लगती थी
चक्कर पंखे की तीलियों के साथ,
तो कभी शुरू कर देती नैन-मटक्का,
बल्ब की रौशनी से|
ज़रा गहराई से देखना,
थोड़ी-बहुत मिल जाएगी छितराई हुई,
दीवारों में भी;
जो ख़ूब सुना करती थी कान लगाकर
बातें उसके एकान्त की,
और साथ ही कभी रस लिया है गीत-कविताओं का,
तो कभी झेला है, निजी बकवास को|
एक बार गले से लगाना तकिया को,
बूँद-बूँद मिल जाएगी बहती हुई,
उसके रेशे-रेशे में|
बहुत पिया है खारापन इसका
और बना लिया रंग अपना मटमैला भी|
पर्दे? नहीं,
कभी पर्दा किया ही नहीं,
और पर्दा करती भी तो किससे?
था ही क्या
जिसे छुपाया जाता?
हाँ पूछोगे, तो कपड़े ज़रूर बताएँगे,
जिनमें उग आते थे चिल्लर कभी-कभी
कि इसको छुपके रहने की कभी आदत ही नहीं थी|
जा ही रहे हो, तो जाना ज़रूर
स्नानागार और शौंचालय में,
वहाँ पड़ी हुई बाल्टी, मग, और
कमोड भी,
सभी सुनाएँगे कहानी
सारी कविताओं, गीतों, कहानियों,
और रचनात्मकताओं के सृष्टि की|
अब निकलना होगा बाहर तुम्हें
तब कुछ हिस्सा मिलेगा
दोस्तों के पास,
और बहुत-सारा विरोधियों की ज़बान पर|
एक छोटा-सा कण प्रेमिका ने भी रखा होगा,
और एकाध रवा उन लड़कियों ने भी
जिन्होंने चुपके से इसे अपना बना लिया,
और हो किसी और की गईं,
पर इसे ख़बर तक नहीं दी|
फिर ज़रा रुख करना
उस ओर जहाँ इसे जीने में मिलता था,
सबसे बड़ा सुख|
हाँ प्रकृति के पास|
क़ुदरत की गोद में,
अपने कई हसीन पल बिताए हैं इसने|
एक-एक अंश इसका
मिला हुआ दिखेगा, प्रकृति के एक-एक कण में|
कहीं लहलहाती दिखेगी हरी पत्तियों में,
तो कहीं शाख से अलग कर दी गई सूखी टहनियों में|
चिल्लाना तुम बनकर आवाज़
उसी टूटी हुई डाली की,
और सुनना उसका दर्द पहाड़ों की गूँज में|
बढ़ाना अपने क़दम नदियों की ओर
पूछना उससे,
वह बताएगी,
लहरों से सराबोर उसकी काया का,
लहरों से सराबोर उसकी काया का,
रेतीले होने के दर्दीले सफ़र के बारे में|
पानी की एक-एक बूँद से
बालू के हर एक कण में मिलेगी मेरी ज़िन्दगी|
थोड़ी-बहुत मिल जाएगी
चट्टानों की खुरदराहट में भी|
और मिलेगी सूखे से छाती फाड़ती धरती के
एक-एक दरारों में|
मैंने ये तो बताया ही नहीं
कि घुप अँधेरी रात में
तारों से बतियाना न भूलना,
और न ही भूलना
क्षितिज की गोद से निकल,
उसकी आँचल में समाते
सूर्य की यात्रा में सम्मिलित होना,
नहीं तो छूट जायेगा,
मेरी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा|
अब इतना घूम ही लिया है,
तो थोड़ा चले जाना
खेतों में भी|
मिल लेना किसानों से,
पूछना तेज़ धूप में जलती उनकी चमड़ियों से,
वे भी कहेंगी कुछ अहवाल मेरी ज़िन्दगी का|
पूरा चाहिए?
एक बार में ही?
तब तो जाना पड़ेगा मेरे गाँव,
मेरे घर, मेरे परिजनों के पास,
ख़ासकर;
मिलना होगा मेरे माँ-बाप से|
मेरी ज़िन्दगी दुबकी पड़ी है
उन्हीं के कलेजे में,
जैसे माँ की कहानियों के राजकुमार
की ज़िन्दगी
छुपी होती थी;
किसी तोते में|
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