शब्द समर

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14.11.17

तुम्हारी अलिखित अमिट कहानी मैं

चित्र-साभार-गूगल 
जब तुम लिख रहे थे स्वयं को,
बुन रहे थे ताना-बाना अपने जीवन का,
कर रहे थे सुखमय वर्णन अपनी जीवन-यात्राओं का|

ठीक उसी समय
तुमने किया होगा स्मरण मुझे भी,
मेरा चित्र बार-बार मूँद देता होगा 
नेत्र तुम्हारे|
मैं आई होऊँगी तुम्हारे मन के द्वारा पर,
खटखटाया भी होगा किवाड़ को थाप दे-देकर|

तब
तुम हुए होगे हिंसक,
किया होगा प्रहार अपनी स्मृतियों पर,
चलाया होगा घातक अस्त्र मेरी सह-अनुभूतियों पर,
की होगी नृशंस हत्या मेरे साथ के समय की,
और फिर
तुम अपने लेखन में
स्वयं अकेले ही दिखने लगे होगे,
प्रत्येक स्थान पर,
जबकि
तुम्हें है पता
तुम्हारे हर उस समय की सहवासी हूँ मैं|

जिस जीवन को आज तुमने उकेरा है इन पन्नों पर,
ये पन्ने तुम्हें चिढ़ाते भी होंगे,
परन्तु अब तो तुम निर्लज्ज बन चुके हो,
तुम्हें नहीं पड़ता होगा अन्तर कोई,
किन्तु ध्यान रखना,
मैं भले ही तुमसे हो चुकी हूँ दूर भौतिक रूप से,
पर तुम्हारा मन चाहकर भी
कभी भी मुझे तुमसे विलग न होने देगा,
क्योंकि जब भी तुम अपने जीवन के इन पन्नों को पलटोगे,
सबसे पहले मेरा ही मुख दिखेगा,
प्रत्येक शब्दों में|

मेरा नाम लिखने की आवश्यकता भी नहीं,
क्योंकि
तुम मुझसे विच्छिन्न हुए हो,
अपने जीवन से नहीं,
मेरा नाम तुम्हारे जीवन के साथ ही जुड़ा हुआ है,
तनिक एक बार स्वयं का नाम लो,
उसके बाद मेरा नाम स्वयमेव ही बोल दोगे|
भले ही मुझे छलकर
तुम हो गये परे मुझसे,
चुन लिया नया पथिक साथी
परन्तु
मैं तुम्हारे जीवन-यात्रा की
अलिखित, अमिट कहानी हूँ|  

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