चित्र-साभार गूगल |
हाँ! मैं
शव वाहक
हूँ।
मेरे कंधों
ने उठाए
हैं,
एक नहीं,
अनगिनत शव,
अपने इन्हीं
कन्धों पर।
मैंने तब
भी उठाया
था शव,
जब जल
बिन मछली
की भाँति,
बिने रोटी
के तड़प
गई थी,
मेरी पाँच
वर्षीय बेटी,
और मैंने
गाड़ दिया
था उसे,
एक पेड़
के नीचे।
मैंने उठाया
था शव,
जब पैंसठ
वर्ष की
आयु में
ही,
खून
ओछरते (उल्टी
करते)
मेरे पिता
ने,
उठाया था
हाथ मेरे
सर से।
ईश्वर ने
संभवतः मुझे
भेजा है,
बनाकर शव
वाहक ही,
तभी तो,
मैंने पुनः
उठाया शव,
मोतियाबिंद ग्रसित अपनी माँ का,
जो रात
में बाहर
जाते हुए,
जीवनेच्छा होते हुए भी,
गिर पड़ी
किसी खोह
में,
और कुछ
देर पूर्व
मुझे आँचल
से ढँक,
मेरा दुःख
दूर करने
वाला शरीर,
हो गया
परिवर्तित, एक
शव में।
मुझे कन्धा
देने वाला
मेरा बेटा,
जिसे मैं
कहता था,
अपना स्वप्न,
अपने बुढ़ापे
की लाठी।
जो चाहता
था बनना
बड़ा अधिकारी।
वह भी
तो उठा
खाकर ही
लाठी,
बखरी के
मालिक की।
मेरे कन्धे
का भार
हल्का करने
वाला भी,
उठाया गया
मेरे ही
कन्धों पर।
उधार तो
मैंने नहीं
चुकाए थे,
किन्तु दण्डित
हुई वह,
बन वासना
उनकी,
जो बने
थे भगवान
मेरे।
उन्होंने ही मेरी प्रतिष्ठा को तार-तार कर
उठवा दिया
मेरे कन्धों
पर,
शव मेरी
पत्नी का।
मैंने उठाया
था तब
भी शव,
जब अपने
अधिकारों की
माँग करते
हुए
खाई थी
गोलियाँ मेरे
पड़ोसी ने।
मैंने तब
भी उठाया
था शव
जब पुल
टूटने से,
एक साथ
दबे थे
चार लोग,
एक ही
घर के।
मैंने तब
भी उठाया
था शव,
जब चली
थीं दनादन
लाठियाँ,
पानी भरने
की होड़
में।
मैंने तब
भी उठाया
था शव,
जब धर्मों
ने धारण
किया,
अपना वीभत्स-पैशाचिक रूप,
और लूटा-काटा अनगिनत
शान्ति प्रेमियों को।
मेरे कन्धों
को अब,
नहीं होती
पीड़ा,
उठाने में
भारी-से-भारी बोझ भी।
क्योंकि प्रियजनों के शवों से अधिक भारी,
और कोई
बोझ होता
है क्या?
यद्यपि मैं
नहीं हूँ,
पारम्परिक व्यवसायी शव-वाहन का,
मेरे पिता-पितामह ने भी नहीं उठाया होगा,
न ही
अब कोई
और उठाएगा,
मेरे नृवंशी
परिवार में।
परन्तु मुझ
अभागे के
कन्धों को,
तो ईश्वर
ने बना
ही गया
एक शव
वाहक।
पहले तो
आँखें भी
लगती थीं
झरने,
मन पड़ता
था चीत्कार,
गला करता
था हृदय-भेदी क्रन्दन,
परन्तु अब,
आँखों में
भी सूखा
पड़ गया
है,
मन चला
गया सुशुप्तावस्था में,
और गला
हो गया
है अवरुद्ध।
अतः अब
कोई बताए
मार्ग कहीं
का भी,
वे जा
पहुँचते हैं,
शव-सागर
में ही।
पैरों का
भी स्वभाव,
और अभ्यास
ही हो
चला है,
हर बार
एक ही
रास्ते पर
जाने का।
ऋण है
ऐसा मंद-विष
जो होता
है सदैव
कारक मृत्यु
का ही।
चाहे वह
सरकार से
हो,
या अपने
मालिक से
लिया हुआ।
अबकी भी
नहीं हुई
है वर्षा।
न ही
चुका पाया
हूँ ऋण
ही।
परन्तु मुझे
है आशा,
कि या
तो मालिक
लेंगे ऋण
अपना वापस,
या ईश्वर
दे देगा
कोई रोग,
या आपदा
बड़ी,
या सरकार
ही ले
लेगी कोई
जनघाती निर्णय।
बस न
चाहते हुए
भी
दूसरों के
शवों को,
अपने कन्धे
पर उठाने
वाला मैं
एक शव
वाहक,
या उठ
जाऊँगा, किसी और
के कन्धे
पर,
या पा
जाऊँगा सद्गति
चील-कुत्तों
से।
हाँ मैं
ही शव
वाहक हूँ।
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