बेटी की चाहत में नहीं आती
न दादी-दादा की,
न बुआ-फूफा की,
न किसी भी सम्बन्धी की,
न ही वह चाहत होती है,
समाज की,
अधिकतर माँ-बाप की भी
चाहत नहीं होती है
बेटी|
बेटी का
आना अपशगुन है,
अभिशाप
है,
कलंक
है,
बोझ है|
बेटी का
आना
प्रतीक
है,
सिकुड़ी
हुई नाक,
चढ़ी हुई
भौंहों,
लाल-लाल
रक्तिम आँखों
माथे पर
पड़े बल का|
बेटी का
आना
ताना है
माँ के लिए
अपमान
है उसकी कोख के लिए
मातम है
और
पसरा
हुआ सन्नाटा है
पूरे घर
के लिए|
बेटी का
आना
चिन्ता है
ससुराल की
दहेज़ की
सुरक्षा
की
तरह-तरह
की बातों की
प्रतिष्ठा
की
मान की,
सम्मान की|
असल में
बेटी का आना
आना
नहीं,
रोना होता
है|
बेटियाँ,
पहली
हों
या
आख़िरी,
वे अवांछित और अनिच्छित ही होती हैं
और
वे जब भी आती है
बेटे की
ही चाहत में जन्मती हैं|
युवा कवि जितेंद्र देव पाण्डेय की यह कविता हमारे समाज की सच्चाई है। एक करारा व्यंग्य और मार्मिकता से भरी है यह कविता। जो सोचने पर मजबूर करती है। बेटियों को पूरे मनोयोग से जन्म देना हम कब चाहेंगे??
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