बहुत दिनों से
कविता मन में आती हैं,
कुछ भाव जगाती है,
और पहले इसके कि
दूँ उसे रूप कोई,
लाऊँ दुनिया के सामने,
न जाने क्यों
वह बिना कुछ कहे-बताए
स्वयमेव ही
नष्ट हो जाती है?
मेरे मन के
गर्भपात से
मैं
घुटता ही रह जाता हूँ,
भीतर-ही-भीतर।
कविता भी कभी-कभी
बड़ी निर्मोही होती है।
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