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8.10.21

युवपति

 एक नगर,

नगर में जन संग्रह हुआ है,

दो जन

कर रहे हैं, चर्चा कुछ-

तुम कौन?

मैं धरणीपुत्र,

जो अन्नोत्पादन से

उदरापूर्ति करता है संसार का।

 

तुम?

मैं,

भी वही, जो तुम हो

बस स्थान अलग है।

तुम आए क्यों हो?

मैं आया हूँ, सम्राट से मिलने,

कहने व्यथा अपनी

कि हमें कृषि, उत्पादन

एवं उससे जीवन यापन में

उठानी पड़ रही है हानि बहुत,

थोड़ा नियमों में करें ढील अपनी।

 

तो अब क्या कर रहे हो?

प्रतीक्षा।

किसकी?

सम्राट की?

हाँ|

वो देखो दूर कोई रथ आ रहा है।

हाँ।

महाराज ही हैं|

लगता तो है|

एक और रथ?

आगे-आगे भू-कुंअर हैं।

क्या रथ में राजकुमार हैं?

निःसन्देह भूपति संग युवराज भी हैं,

किन्तु सुना है,

कुमार के भीतर दया का भाव नहीं है,

वे वसुपति से भी अधिक हैं भयानक,

मृत्यु के साथ हुआ है समझौता उनका

कि वे खिलाते रहेंगे

मानव मास मृत्यु को

समय-समय पर।

तो क्या युवपति हत्यारे हैं?

दुस्सास क्यों किया इस कथन का भी,

वे हत्या नहीं करते,

मार्ग स्वच्छ करते हैं,

वे करते हैं हम जैसे मानव के

रक्त से अभिषेक अपना,

और देते हैं प्रमाण पिता को

कि अब हो चुके हैं वे पूर्ण योग्य

जन-दोहन को।


यह वार्ता चल ही थी कि

कुमार का चतुष्चक्र वाहन

कइयों की देह को

कुचलता हुआ चला गया।

कुमार अपने निवास में

मद्योन्मत्त हैं,

और धरा

अपने पुत्रों के शवों को छाती पर लिटाए,

क्रन्दन कर रही है।

संसार उन्हीं शवों के ऊपर

जुगुप्सित नृत्य नाच रहा है।

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