एक मालिक के घर,
एक मुर्गा था,
बड़ा ही सुन्दर।
लाल रंगों से सजे पंख उसके,
लाल-लाल दाढ़ी
और सर पर मयूरी ताज।
भोर से प्रभात
और प्रभात से दिन तक
अपनी सबसे तेज़ आवाज़ में बांग देता।
घर के मुखिया से लेकर,
छोटे नाती तक,
सभी उसे प्यार करते।
फिर साल भर में
एक दिन,
देवता के पूजा का समय आया।
थाली में छटपटाते
मुर्गे ने मन-ही-मन में कहा,
"न जाने क्यों लोग
मात्र बकरे की माँ की ही विवशता
क्यों देखते है?
रोती तो मेरी भी माँ है
ठीक वैसे ही।"
आज उसके मालिक के घर
खुशियों का माहौल है,
सबके-सब अघाए हुए डकारें ले रहे हैं,
किसी को भोर होने,
और मुर्गे के न होने की चिन्ता नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें