ख़ुदा को भी है जीने का हक़
उसी आज़ादी से,
जो आज़ादी बख़्शी गई है
इंसानों के लिए।
पर
इंसानों ने
कर रखा है क़ैद ख़ुदा को
दीवारों के बीच,
बना रखे हैं क़ैदख़ाने
मस्जिदों, मन्दिरों, चर्चों, दरगाहों के नाम पर।
ख़ुदा ख़ुद है परेशान
तिज़ारत पर अपनी
कि बेची जा रही है रूह उसकी
जिबह हो रहा है सरेआम नाम उसका।
ख़ुदा भी चाहता है ख़ुदमुख़्तारी अपनी
बेख़ौफ़ी जीने के लिए
पर,
ख़ुदा की रिहाई?
उसकी रिहाई है,
इंसानों के हाथ में,
पर इंसान नहीं करेगा रिहा उसे,
क्योंकि
वह कमाता है अशर्फियों
उसी ख़ुदा के नाम पर।
और
मज़हब बना रखा है इंसानों ने
अपने-अपने फ़ायदे के|
ख़ुदा बिकने को है मजबूर,
इंसान बेच रहा बेख़ौफ़ ख़ुदा को अपने,
बना रखा है ग़ुलाम
अपनी मर्ज़ी का।
ख़ुदा को भी है जीने का हक़,
पर
क्या जीना चाहेगा ख़ुदा ऐसे माहौल में भी
यदि वह वाकई ख़ुदा है
और बेशर्म नहीं है...?
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